तुलसी की जीवन दृष्टि

तुलसी की जीवन दृष्टि
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गिरीश्वर मिश्र

गोस्वामी जी भौतिक-सामाजिक विश्व तथा आध्यात्मिक जीवन, दोनों को जोड़ते हैं। वस्तुत: उनके यहाँ आध्यात्मिक और भौतिक की स्वतंत्र या निरपेक्ष सत्ता ही नहीं हैं। उनकी राम कथा में देवता, ईश्वर, मनुष्य, वानर, पक्षी, राक्षस सभी भाग लेते हैं। ये सभी पात्र परस्पर गुँथे हुए हैं और राम-कथा यह बताती है कि पूरी सृष्टि को साथ में लेकर कैसे चला जाए और उन सबके बीच कैसे सार्थक संवाद स्थापित हो। कथा भी ऐसी है कि सतत जिज्ञासा बनी रहती है कि अभी जो हुआ है उसके बाद आगे क्या घटित होगा? अभी संध्या को तय हो रहा था कि सुबह राम का राजतिलक होगा और अकस्मात् एक घटना घटित होती है जो पूरी कथा की दिशा ही बदल देती है। फिर निर्णय होता है कि राज्याभिषेक की जगह राम का वनवास होगा और वे चौदह वर्षों के लिए वन जाएँगे। ऐसे ही अनेक स्थलों पर निर्णायक परिवर्तनों को इस रामायणी कथा में पिरोया गया है। इन प्रसंगों का प्रयोजन मूलत: इस प्रश्न से जुड़ा हुआ है कि परिवर्तनशील संसार में कैसे जिया जाए ? बदलती हुई परिस्थितियों में कैसे जिया जाए? उथल-पुथल के बीच समरसता या साम्य की स्थिति कैसे लाई जाए? रामायण में परिवर्तन का एक सुंदर रूपक गढा गया है ।

शिव-पार्वती का विवाह हेमंत ऋतु है, राम-जन्म शिशिर है, राम-सीता का विवाह वसंत है, वन-गमन ग्रीष्म ऋतु है, राक्षसों से युद्ध वर्षा ऋतु है, और राम-सीता की अयोध्या वापिसी शीत ऋतु है। प्रकृति में जो परिवर्तन हो रहा है, वह ऋतु में, स्वभाव में, जीवन की घटनाओं में समानांतर रूप से अभिव्यक्त है। अत: जीवन में जो उतार-चढ़ाव है उनको अविचल भाव से स्वीकार करना चाहिए। रामचरितमानस में समाज के सभी जनों को याद करते हैं। वे नाना प्रकार के वातावरण बनाते हैं और यह दिखाते हैं कि इस व्यापक जीवन में सबकी अपनी-अपनी जगह है। लेकिन उन सबको समेटने वाली अंतर्धारा भक्ति की है। भक्ति की यह धारा सगुण और निर्गुण के भेदों को स्वीकारते हुए उनसे पार जाती है। गोस्वामी जी कहते हैं कि यह जो अरूप है और जो सरूप या रूपवाला है दोनों मूलत: एक ही हैं। वे भगवान के नामस्मरण में दोनों को शामिल कर लेते हैं। गोस्वामी जी यह भी कहते हैं कि इस राम कथा का न आदि है न अंत, कथा के पहले भी कथा है और बाद में भी अर्थात् कथा में जो भी शुरुआत दिखती है उसके भी पहले भी कुछ है और यह कथा जहां सम्पन्न होती है उसके बाद भी शेष रहता है। यह कथा इस बात का भी द्योतन करती है कि यह सृष्टि और जीवन भी प्रवहमान है, जो कभी व्यक्त रहता है तो कभी अव्यक्त, कभी धीमी गति होती है कभी तीव्र गति होती है। गोस्वामी जी यह भी कहते हैं की इस कथा में हमने अपना भी इसमें कुछ लगाया है और निगम, आगम, पुराणों आदि से भी लिया है। कथा में वर्णित बहुत सारी घटनाएं बताती हैं कि लोक का प्रवेश अधिक है।

एक स्वस्थ जीवन की प्रवृत्ति किस प्रकार से स्थापित की जाए? यह आज के जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है। यह कैसे दूर हो सकती है इसकी संकल्पना रामराज्य में मिलती है। वह हमारे सामने समग्र मूल्यबोध का एक सामाजिक आकार हमारे सामने रखता है। जैसा कि यह प्रसिद्ध चौपाई कहती है-दैहिक दैविक भौतिक तापा राम राज नहिं कहुहि ब्यापा ।। सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥ अर्थात् रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों तरह के ताप नहीं हैं। यही तो स्वस्ति भाव 'वेल बीइंगÓ है। जीवन की गुणवत्ता जिसको हम लोग कह रहे हैं। 'क्वालिटी ऑफ लाइफÓ जिसे कह रहे हैं वह स्थिति इससे प्रकट होती है। पर शर्त है कि यह होगा तब जब 'सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीतीÓ ' पारस्परिक सद्भाव और सौमनस्य हो और अपने स्वधर्म का पालन किया जाए। रामराज्य तक पहुँचने के लिए आचरण में कुछ मूल्य स्थापित करने पड़ेंगे, स्वधर्म का पालन करना पड़ेगा। जो संविधान है. कानून है उसके प्रति जो आपका कर्तव्य है उसे आपको करना आवश्यक है। जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक रामराज्य की परिकल्पना संभव नहीं है। यह तभी संभव होगा, जब हम अपने स्वधर्म का पालन करेंगे। बिना इसके न तो जीवन में, न तो समाज में, न संस्था में कोई सुधार हो सकता है। तभी हम सब आगे बढ़ सकते हैं और जीवन के लिए मार्ग तभी प्रशस्त हो सकेगा है जब स्वधर्म की स्थापना हो।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि के पूर्व कुलपति हैं)

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