प्रचारक परंपरा के आदर्श

प्रचारक परंपरा के आदर्श
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अरुण जैन

देश की सम्पूर्ण परिस्थितियों का अनुभव कर, अध्ययन उपरांत सब छोड़ माँ भारती की पूजा के जिस निष्कर्ष पर स्वामी विवेकानंद पहुँचे और भगिनी निवेदिता ने प्रतिदिन गाँव मुहल्ले में सभी एक घण्टे एकत्रित हो भारत माता की पूजा का जो संदेश दिया, उसी निष्कर्ष पर पहुँच, उसी का क्रियान्वयन पूजनीय डॉ. साहब ने विजयादशमी १९२५ को संघ स्थापना से शुरू किया। देश के सभी व्यक्ति जब तक प्रतिदिन कुछ समय देश के लिये देना शुरू नहीं करते तब तक कुछ व्यक्तियों को पूरा का पूरा जीवन देश के लिए देना होगा, इस निष्कर्ष की पूर्ति डॉ. साहब ने स्वयं के जीवन से प्रारम्भ की।

घोर परिश्रम, सादगी, सरलता, मितव्ययिता, आर्थिक और चारित्रिक पारदर्शिता, उत्कट देशभक्ति, प्रसिद्धि से दूर, आत्मविलोपी, आत्मीयता, नि:स्वार्थता, प्रामाणिकता, प्रेम की पराकाष्ठा और देश के लिए बिना शर्त सम्पूर्ण समर्पण, ये सब आदर्श डॉ. साहब में उनके साथ काम करने वाले युवाओं ने प्रत्यक्ष देखे, अनुभव किए। उन्हें देखकर पहले बाबा साहब आप्टे, दादाराव परमार्थ और बाबू राव येरकुंठवार घर-परिवार छोड़़ संघ को पूरा समय दिया और फिर तो १९३७ आते-आते कोई पढ़ने का बहाना ले, कोई काम का, उस समय के सभी प्रांतों में नागपुर और आसपास से जीवनव्रती निकल पड़े। सबकी आँखों में डॉ. साहब का जीवन आदर्श रूप में बसा हुआ था। माधव राव मुले, राजाभाऊ पातुरकर पंजाब, तो वसंत राव ओक दिल्ली, भाऊराव देवरस, भैयाजी दाणी उत्तर प्रदेश, बाला साहब देवरस बंगाल, बाबा साहब तिजारे जी उज्जैन, तो तर्टे जी ग्वालियर आ पहुँचे। एकनाथ रानाडे महाकौशल गए तो दादा राव परमार्थ मद्रास और यादव राव जोशी ने कर्नाटक सम्हाला।

सभी नींव के पत्थरों को देखकर व इन्हीं के जीवन आदर्श आँखों में लेकर अपने तराणेकर जी ने यही संघ व्रत अपनाया। हम ग्वालियर के स्वयंसेवकों ने उन नींव में विसर्जित प्रचारकों को भले न देखा हो पर उन्हीं आदर्शों पर चलते, उठते-बैठते तराणेकर जी को वर्षों तक देखा है। सम्पूर्ण देश के लिए प्रचारक यानी डॉ. साहब, बाबा साहब आप्टे और हम ग्वालियर वासियों को डॉ. साहब के जीवंत रूप यानी माननीय तराणेकर जी। किसी भी कोने से देखें, सोते, जागते कभी भी, प्रचारक यानी माननीय तराणेकर जी।

परिश्रम की पराकाष्ठा पुराने स्वयंसेवकों ने उनमें देखी, हमने उनसे सुनी। पैदल चलते समय कुछ कदमों के बाद वे डगमगा जाते, घुटना जवाब देता, पता चला कभी चोट में थोड़ा सा हेयर क्रेक, जो कभी सुधरवाने का प्रयास नहीं किया, उसके बाद भी पैदल व साइकिल से कोई कमी नहीं प्रवास में।

भोजन-पानी के प्रति खुद के बारे में घोर लापरवाह, दूसरों के प्रति अति आग्रही। दोपहर २ बजे कार्यालय आने के बाद उस समय चार आने की छोटी ब्रेड का पैकेट और चार आने का बाड़े पर बैठे भगोने वाले का चूड़ा तो अनेक ने लाकर दिया है। कपड़े धोना तो छोड़ो, सूखने डालने को भी किसी को इसलिए नहीं देते कि जोर से निचोड़ेेगा, फटकारेगा, धज्जियाँ उड़ जाएंगी उस जर्जर बंडी की जिसे वे महीनों और चलाने वाले हैं।

सामान बहुत कम रखते थे। दाढ़ी का डिब्बा भी नहीं, एक ब्लेड कागज में लपेटकर रखते, नहाने की साबुन दाढ़ी में लगाकर पास जो होते उससे रेजर हमेशा मांगते। इंदौर स्थानांतरण पर एक अच्छा सा सेविंग बॉक्स उन्हें भेंट दिया। उनके जाने के कुछ दिनों बाद कार्यालय के कुएँ पर अपने श्यामराव परांजपे आराम से दाढ़ी बना रहे, पूछा ये सेविंग बॉक्स कहाँ से लाए? बोले जाते समय तराणेकर जी ने भेंट दिया हैं।

आर्थिक शुचिता के प्रति बहुत आग्रह था ही। एक बार कार्यालय में वनवासी कल्याण परिषद की पिछले वर्ष की ८, १० पावती पुस्तिकाएँ पड़़ीं दिख गईं। कितने दिन तक क्या तो प्रचारक, क्या कार्यवाह और व्यवस्था प्रमुख, सबकी पेशी, पावतियाँ यहां पड़ीं तो हिसाब-किताब कैसे मिलाकर दिया? गलत दिया क्या? एक-एक पावती का हिसाब यथासमय होना ही चाहिए, ये आग्रह हमेशा रहता था।

निर्धारित कार्यक्रम के प्रति घोर आग्रही, दिसम्बर की ठण्ड, रविवार प्रात:काल, सायं शाखाओं का वर्ग, ऊपर से घनघोर पानी, कार्यालय के गेट पर साइकिल लिए खड़ा सोच रहा आज तो कोई भी आने से रहा, पीछे से तराणेकर जी, क्यों? समय हो गया न? तुरन्त भागा, नदीगेट भवन के छज्जे के नीचे दुबक कर ३ किशोर स्वयंसेवक खड़े थे, तुरन्त चिल्लाकर बोले, हमें पता था अरुण जी तो आयेंगे ही। एकदम ध्यान आया मैं नगर का सायंभाग कार्यवाह, आज न आता तो अनर्थ होता। इन नए स्वयंसेवकों के मन पर क्या असर होता। लौटकर जाने पर तराणेकर जी इंतजार करते मिले रसोई में गर्मागर्म भजिए का एक घान अरुण के साथ लूँगा, इसलिए उनने रुकवाया हुआ था। एक-एक बात का शिक्षण - मेरी कार्यालय शाखा से ५ स्वयंसेवक प्राथमिक वर्ग शिवपुरी गए थे। रविवार गुप्ते जी के साथ, मिलने चला गया। तब तो मुख्य शिक्षक ही था, बोले, वो 'राष्ट्र वंदनाÓ गीत पुस्तक लाओ, आगे ५ दिन ये बौद्धिक के विषय हैं, इनके लिए सम्भावित २-२ व्यक्तिगत गीत ढूंढकर ध्रुव पद लिखो।

संगठनात्मक दूरदर्शी सोच, डायरियों में सुन्दर छोटे-छोटे अक्षरों में ढेरों जानकारियाँ। महानगरी कार्य के कितने पहलू, ग्वालियर के बाजारों में कहाँ-कहाँ कौन स्वयंसेवक, एजी ऑफिस, मोती महल के किन-किन कार्यालयों में कौन-कौन। प्राध्यापकों, शिक्षक स्वयंसेवकों की विषय अनुसार सूची। वृत्ति अनुसार सूची जिनका आग्रह आज शुरू हुआ, वो उनकी १९६७-१९६८ की डायरियों में उपलब्ध। संस्कृत, कला, संगीत, इतिहास, विज्ञान सभी विषयों के शिक्षकों की सूची पहले से तैयार होने से संस्कार भारती, संस्कृत भारती, विज्ञान भारती, इतिहास संकलन जब नए खुलने आए, ये सभी बनी बनाईं सूचियाँ काम में आईं।

प्रांतीय अधिकारियों के पास १-२ विविध संगठनों से संपर्क का काम रहता है, तराणेकर जी किसान संघ के पालक थे। जिस जिले में प्रवास पर जाते, वहां के किसान संघ के पदाधिकारियों से व्यक्तिगत भेंट जरूर करते। सहज रूप से किसान संघ के प्रांतीय अध्यक्ष, महामंत्री तो ठीक संगठन मंत्री से भी अधिक नीचे तक के कार्य, कार्यकर्ताओं और उनके आपसी सामंजस्य की जानकारी उनके पास रहती, जिस कारण योग्य, संगठन का सटीक मार्गदर्शन वे करते।

छोटे कार्यकर्ताओं को स्थापित करने का सतत प्रयास। कोई भी बड़ा व्यक्ति, घर भोजन, को अल्पाहार को आमंत्रित करता तो महानगर प्रचारक से बात कर लो कहकर उस प्रचारक का मान बढ़ाते। १९९३ में पूर्ण विभाग का विभाग प्रचारक घोषित होने पर सभी जिला केन्द्रों पर स्वयं परिचय कराने गए। रात्रि ११ बजे, डबरा जाते समय सखा विलास पर जीप खराब तो आगे स्कूटर से, स्कूटर भी जौरासी की डांग में खराब, तो रेत के ट्रक में बैठ रात्रि ३ बजे डबरा बाबूलाल जी के घर पहुँचे। प्रथम परिचय योग्य तरीके से होना ही चाहिए, इसका आग्रह रहता था।

कार्यकर्ता की पूरी जानकारी रखना, योग्य समय पर सहयोग, मार्गदर्शन। पिताजी के देहावसान के बाद छोटी बहन के विवाह की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर है, वे जानते थे। सम्बन्ध पक्के होने के समय ही केन्द्रीय अधिकारी प्रवास दतिया में माननीय भाऊ राव देवरस जी का, मैं विभाग प्रचारक, रिश्तेदार देख लेंगे सोच कर घर जाना निरस्त किया। उन्हें पता लगा तो डांट कर आदेश ही दिया, 'तुम सागर जाओ, मैं अधिकारियों को बता दूँगा।Ó सम्बन्ध पक्का हुआ। प्रचारकों के तो कार्यक्षेत्र में घरु-पारिवारिक सम्बन्ध होते नहीं, बनाते भी नहीं। अत: किसी को निमंत्रण देने का कारण नहीं था, पर तराणेकर जी तो मेरे लिए घर के थे। एक निमंत्रण पत्र पर उनका नाम एवं कार्यालय परिवार लिखकर कार्यालय में छोड़ दिया। विवाह के दिन अपने साथ ग्वालियर के सभी बड़े अधिकारियों अण्णा जी, डॉ. छापरवाल जी, माहेश्वरी जी, अन्य सभी के साथ सागर आये। बरातियों की संख्या से अधिक घराती, १५-२० कारों में। बाराती, रिश्तेदार सभी का आनंद देखने लायक। कार्यकर्ता का समाज में सम्मान बढ़े, इसके लिए सजग रहते थे।

कार्यालय में अनावश्यक राजनीति का वातावरण न बने, इसके लिए सजग रहते थे। १९८०, विधायक जी की विजयी शोभायात्रा बाड़े से जनकगंज की तरफ, पायलट मोटरबाइक से संदेशा, वे कार्यालय आ रहे हैं आशीर्वाद लेने। तुरन्त सूचना वापिस दी, उनसे बोलना बाद में अकेले आयें। जुलूस सीधा निकल गया, उनकी सूचना उल्लंघन का कोई कारण नहीं था। एक बार सांसद जी के घर मिलकर वापसी के समय उन्होंने पूछा लक्ष्मण राव अब कहाँ जाओगे? नाम सुन वे खिन्न हुए, बोले पार्टी में अनुशासनहीनता करने वालों के यहाँ आपके जैसों के जाने से उनका दिमाग और ऊपर चढ़ता है। तराणेकर जी बोले, पार्टी में उनने अनुशासनहीनता की, तो कार्यवाही करना ही चाहिए, योग्य दण्ड देने में भी कोई आपत्ति नहीं। पर हम प्रचारकों को तो सक्रिय-निष्क्रिय, नए-पुराने, उलझे-सुलझे, नाराज-प्रसन्न, सभी से मिलना-जुलना, पारिवारिक संपर्क बनाए रखने की जिम्मेदारी है। बिना दबाव में आए वे उनके घर गए। जब याद उन्हें करते हैं तो प्रेरक प्रसंगों की भरमार, लिख सकना दूभर।

ऐसे हम सबके, छोटों के-बड़ों के, सबके तराणेकर जी, ओमप्रकाश, जगराम, धीर सिंह जैसे उस समय के तहसफल, जिला प्रचारक अपना क्षेत्र छोड़ कार्यालय आ जाते, क्यों पूछने पर कुछ नहीं। बहुत दिनों से उनकी याद आ रही, मिल लेते हैं तो मन हल्का हो जाता है। उधर डॉ. नेवासकर जी की शैय्या के पास या आदरणीय कप्तान सिंह जी जैसे वरिष्ठजन भी मेरी उपस्थिति को भुलाकर, कभी आक्रोश में, गुस्से में, ऊँचे स्वरों में अपनी व्यथा-कथा कह समझो झगड़ा ही कर रहे हो पर अंत में 'जानता हूँ आप कुछ नहीं करेंगे, फिर भी आपको सुनाए बिना ये मन भी तो हल्का नहीं होताÓ ये अंतिम वाक्य रुंधे गले से उनके निकलते। कार्यालय की शाखा के बाल किशोर तो मानो उनके सखा थे। मृत्यु दिवस पर १५, २० किशोर, १४, १५ से १८, २० आयु के पूरी रात्रि मुस्तैदी से फूल साफ करते, बर्फ की कमी दूर करते, धूप बत्ती जलाते, जागते रहे, मानो उनके घर के बाबा, दादा का शरीर शांत हुआ हो।

छोटे-बड़े सभी के सखा, सभी की सुनने वाले, सभी के रोने का एक सशक्त कंधा बनके लम्बे समय तक वे हमारे बीच एक-एक छोटी-छोटी बातें सिखाते हुए, अपना जीवन धन्य कर गए, उनके सान्निध्य से हम सब भी सार्थक जीवन जीने के प्रयास में सफल हो सकें इस यत्न में लगे हैं। प्रचारक परंपरा के आदर्श मान्यवर तराणेकर जी के चरणों में हार्दिक-सादर वंदन।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सहप्रचारक प्रमुख हैं)

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