मैंने संघ को पहले जिया बाद में उसे समझा है,यह मेरे जीवन का अनुशासन है

मैंने संघ को पहले जिया बाद में उसे समझा है,यह मेरे जीवन का अनुशासन है
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कुछ संस्थाएं केवल अपने कार्यों से पहचानी जाती हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी होती हैं, जो व्यक्ति के जीवन में संस्कार बनकर उतरती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मेरे लिए ऐसा ही एक नाम है। यह कोई अचानक जुड़ाव नहीं रहा, बल्कि स्मृतियों, अनुशासन और पीढिय़ों से चली आ रही जीवन-दृष्टि का स्वाभाविक विस्तार रहा है।

अगर मैं संघ से अपने जुड़ाव को शब्दों में ढालूं, तो इसकी शुरुआत किसी पद, पहचान या मंच से नहीं होती। इसकी शुरुआत होती है मेरे घर से, बचपन से, उस वातावरण से जहां सुबह की दिनचर्या, नियमितता और जिम्मेदारी जीवन का स्वाभाविक हिस्सा होती है। मैं तो यहां तक कहूंगी कि मैंने संघ को पहले जीया, बाद में समझा।

महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करने का

वर्ष 1996 से मैं महिला उत्थान से जुड़ी गतिविधियों में सक्रिय रही हूं। यह कार्य मंच पर खड़े होकर भाषण देने का नहीं था, बल्कि पृष्ठभूमि में रहकर महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करने का था। मेरा दायित्व था महिलाओं को यह विश्वास दिलाना कि वे अपने जीवन को स्वयं दिशा दे सकती हैं। विशेषकर स्वरोजगार के माध्यम से। यह कार्य मेरे लिए केवल सामाजिक जिम्मेदारी नहीं था, बल्कि एक साधना जैसा था।

पंजाब में रहते हुए मुझे इस दिशा में एक अविस्मरणीय अवसर मिला। वहां मैंने उन संगठन में महिलाओं से संवाद किया, जिनका सामाजिक और आर्थिक स्तर अत्यंत कमजोर था। उनके चेहरे, उनकी आंखों की झिझक, और उनके जीवन की कहानियां आज भी मेरे भीतर जीवित हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि उनका जीवन कैसे चल रहा है, तो समझ आया कि बदलाव के लिए सबसे पहले संवाद और विश्वास की आवश्यकता होती है। इसी क्रम में महिला और शिशु स्वास्थ्य का विषय भी मेरे कार्य का अभिन्न हिस्सा बन गया। मेरा मानना हमेशा रहा है कि यदि एक स्त्री स्वस्थ और जागरूक है, तो वह पूरे परिवार को स्वस्थ रख सकती है।

बच्चे केवल प्रतिस्पर्धा नहीं, सामूहिकता भी सीखें

नोएडा में मेरा जुड़ाव बच्चों और खेल गतिविधियों से हुआ। स्कूलों में बच्चों को खेलों से जोडऩे का प्रयास किया गया। लेकिन यह प्रयास केवल खेल सिखाने तक सीमित नहीं था। मैंने यहां एक विचार को साकार किया। मॉडर्निटी ब्लेंड्स विद ट्रेडिशन। एक ओर टेनिस जैसे आधुनिक खेल, तो दूसरी ओर खो-खो, कबड्डी, गिल्ली-डंडा, सिथोलिया और विभिन्न राज्यों के पारंपरिक खेल। उद्देश्य यह था कि बच्चे केवल प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि संस्कृति और सामूहिकता भी सीखें।

संघ भारत की आंतरिक शक्ति की नींव

संघ को लेकर मेरी सोच अत्यंत भावनात्मक है। मेरे लिए संघ भारत की उस आंतरिक शक्ति की नींव है, जिसने हमारे पारिवारिक और सांस्कृतिक मूल्यों को आज भी संभाल कर रखा है। आज जब दुनिया परिवारों के टूटने, संबंधों के बिखरने और मूल्यों के क्षरण की बात कर रही है, तब भारत में परिवार व्यवस्था का जीवित रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है। इसके पीछे वह सोच है, जो व्यक्ति को कर्तव्य से जोड़ती है और यही संघ की आत्मा है।

दादा जी ने सिखाया अनुशासन का पाठ

संघ से मेरा जुड़ाव केवल वैचारिक नहीं, बल्कि पारिवारिक है। मेरे दादाजी पंडित घासीराम गौड़, मूलत: अलीगढ़ से थे। उन्होंने जीवन में नित्य नियम, अनुशासन और सेवा का जो पाठ हमें पढ़ाया, वही संस्कार मेरे पिताजी गजेंद्र नाथ गौड़, मेरे पति प्रसून शर्मा, और हमारे पूरे परिवार में आगे बढ़ा। यह तीसरी पीढ़ी का प्रवाह है-जिसमें संघ कोई बाहरी तत्व नहीं, बल्कि जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है।

जो कहा गया वह करना है

आज भी मुझे संघ के शिविरों की स्मृतियां बहुत स्पष्ट रूप से याद हैं। सुबह की दिनचर्या, समय का पालन, समूह में काम करना, और यह भाव कि जो कहा गया है, वह करना है बिना किसी अगर और लेकिन के। इन अनुभवों ने मेरे जीवन को गढ़ा। अनुशासन, सदाचार, और समग्र विकास ये शब्द नहीं, बल्कि जीवन के व्यवहार बने।

संघ सबसे बड़ी शक्ति उसकी समग्रता

संघ और सनातन को मैं एक-दूसरे से अलग नहीं देखती। सनातन धर्म की सबसे बड़ी शक्ति उसकी समग्रता है। आज जब दुनिया इकोलॉजिकल असंतुलन और मानवीय संकट की बात कर रही है, तब मुझे लगता है कि उसके समाधान हमारे सनातन दर्शन में पहले से मौजूद हैं। हमारी पूजा-पद्धति, हवन, और दैनिक आचरण हमें प्रकृति और मानव के बीच संतुलन सिखाते हैं। जिसे आज 360 डिग्री अप्रोच कहा जाता है, वह हमारे जीवन व्यवहार में सदियों से रचा-बसा है।

किसी संगठन का सौ वर्ष पूर्ण करना केवल उत्सव का अवसर नहीं होता। यह आत्ममंथन और जिम्मेदारी का समय भी होता है। संघ की शताब्दी यह प्रमाण है कि जब कोई विचार निस्वार्थ भाव से, अनुशासन और समर्पण के साथ आगे बढ़ता है, तो वह पीढिय़ों तक जीवित रहता है।

संघ मेरे लिए कोई स्मृति भर नहीं है। वह आज भी मेरे निर्णयों में, मेरे आचरण में और मेरी सोच में जीवित है। यह वह संस्कार है, जो पीढिय़ों से बहता हुआ आज भी मुझे और हम सबको राष्ट्र और समाज से जोड़ता है।

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