मैं इस योग्य भी नहीं कि उन्हें अपना ‘आदर्श’ कह सकूं!

मैं इस योग्य भी नहीं कि उन्हें अपना ‘आदर्श’ कह सकूं!
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अतुल तारे

यह मेरे जीवन का सौभाग्य है और पूर्वजन्म के संचित पुण्य कर्मों तथा पूज्य माता-पिता के आशीर्वाद का परिणाम है कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक हूँ। साथ ही स्वदेश के समूह संपादक होने का गौरव भी प्राप्त है, जिसके आदि संपादक भारत रत्न स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी रहे हैं।

मेरा बचपन ग्वालियर के अत्यंत प्रतिष्ठित परिवारों के सानिध्य में बीता है। नादरणीय स्वर्गीय श्री माधव शंकर इंदापुरकर, वन संरक्षण और भाषा को विपरीत परिस्थितियों में विस्मृत होने से बचाने के लिए अपना सर्वस्व देने वाले तन्मय राजनेताओं में से एक थे। हम उनके ही बाड़े में रहते थे, इसलिए अटल जी का सानिध्य मिलने का अवसर मिल जाता था। यही कारण है कि बाल्यावस्था में ही अटल जी के प्रति एक श्रद्धा-भाव विकसित हो गया।

स्वदेश में पत्रकारिता की शुरुआत करते समय स्वाभाविक ही है कि एक पत्रकार के नाते भी अटल जी को देखने, सुनने और समझने का लालच बना रहा।

स्वदेश का प्रारंभ 1948 में लखनऊ से हुआ। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की प्रेरणा से प्रारंभ हुए स्वदेश के पहले संपादक अटल जी बने। वास्तव में वे संपादक ही नहीं, बल्कि कंपोजिटर, प्रूफ रीडर और वितरक भी थे। विपरीत परिस्थितियों में स्वदेश के संचालन का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव था और यही संवेदनशील दृष्टि स्वदेश के प्रति जीवन भर बनी रही।

आज स्वदेश भी अपने अमृत काल में है। तीन राज्यों में स्वदेश आज 16 संस्करणों के माध्यम से लोक जागरण और ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के युगधर्म का निर्वहन कर रहा है।

अब आते हैं एक प्रसंग की ओर। वर्ष 1977 की एक घटना तत्कालीन संपादक श्री जयकिशन शर्मा जी बताते हैं। आपातकाल समाप्त हो चुका था, लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी थी और स्वदेश का प्रसार तेजी से बढ़ रहा था। अटल जी एक आमसभा के लिए ग्वालियर आए थे और वरिष्ठ नेता स्वर्गीय नारायण कृष्ण जी के यहाँ ठहरे थे। उन्होंने सभी समाचार पत्र मंगवाए, जिनमें स्वदेश भी था।

स्वदेश को देखकर उन्होंने संपादक के नाते जयकिशन जी को बुलाया और पूछा “क्या इस टाइप में अखबार पढ़ा जा सकता है?” जयकिशन जी ने मना किया और बताया कि आर्थिक संसाधन नहीं हैं। आगरा में नए टाइप का ऑर्डर दिया है, पर प्रसार बढ़ने के कारण कागज खरीद लिया गया और अब राशि शेष नहीं है।

अटल जी ने तुरंत वरिष्ठ नेता स्वर्गीय गंगाराम दिलोई जी को बुलाया और कहा- “आज ही स्वदेश का टाइप बदल जाना चाहिए, अन्यथा मेरी सभा रद्द समझी जाए।”

अटल जी के इस सख्त व्यवहार से पार्टी के नेता स्तब्ध रह गए। इसके पीछे दो स्पष्ट संदेश थे। पहला- वे वरिष्ठ नेता होते हुए भी अपनी संस्थाओं की परेशानियों को लेकर कितने संवेदनशील थे। दूसरा- उन्होंने आज के प्रचलित ‘इको-सिस्टम’ को तब ही समझ लिया था। उन्होंने पार्टी नेताओं से कहा कि मेरी सभा में भिंड, मुरैना, गुना आदि स्थानों के लोग नहीं आ पाएंगे, उन्हें मेरी बात स्वदेश के माध्यम से ही पहुँचेगी, इसलिए पार्टी को इसकी भी चिंता करनी चाहिए।

आज जब मैं अटल जी के विषय में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ, तो यह बिल्कुल आसान नहीं है। अटल जी ‘अटल’ भी हैं और ‘बिहारी’ भी। उनके व्यक्तित्व के इतने अधिक आयाम हैं कि उन्हें शब्दों में बाँधना सरल नहीं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक साधारण स्वयंसेवक के रूप में मैं अटल जी के अभिव्यक्ति पक्ष पर प्रकाश डालना चाहता हूँ, क्योंकि आज समाज और विशेषकर राजनीति में अभिव्यक्ति का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। असहमति लोकतंत्र का स्वाभाविक गुण है। अटल जी इसके आदर्श उदाहरण थे।

मैं दो उदाहरण देना चाहूंगा

पहला उदाहरण

वर्ष 1984 में अटल जी लोकसभा चुनाव में माधवराव सिंधिया से हार जाते हैं और बाद में राज्यसभा से संसद पहुँचते हैं। संसद के गलियारे में पत्रकार उनसे पूछते हैं कि आपने कभी माधवराव सिंधिया के बारे में कहा था कि उनकी लोकप्रियता परखने के लिए उन्हें ग्वालियर से चुनाव लड़ना चाहिए।

अटल जी ने स्पष्ट किया कि यह कथन राजनीतिक विरोध के रूप में नहीं था। उन्होंने केवल यह पूछा था कि क्या वे ग्वालियर से चुनाव लड़ेंगे। सिंधिया जी ने मना किया, पर बाद में पार्टी रणनीति के तहत वहीँ से चुनाव लड़ा। इसे वे वचन-भंग तो नहीं कहते, पर आपसी संबंधों की कसौटी पर उचित भी नहीं मानते। एक वाक्य में उन्होंने कितनी गहरी बात कह दी— यह समझा जा सकता है।

दूसरा उदाहरण

अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी उत्तर दे रहे थे। पोखरण परमाणु परीक्षण पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी ने आलोचना की थी। अटल जी ने कहा-

“चंद्रशेखर जी का मैं आदर करता हूँ। उनके चिंतन की अपनी विशिष्ट धारा है, पर मैं आदरपूर्वक उनसे असहमत हूँ।”

वाणी का यह सौंदर्य अद्भुत है। संसद हो या आमसभा, अटल जी ने विपक्ष की भूमिका भी निभाई, तीखी आलोचना भी की, पर भाषा की शालीनता सदैव बनाए रखी।

पंडित नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक, मोरारजी देसाई से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक- उनके राजनीतिक काल में अनेक प्रधानमंत्री रहे। असहमतियाँ रहीं, पर मर्यादा बनी रही। वे कहा करते थे कि राजनेताओं को साहित्य से जुड़ा रहना चाहिए, अन्यथा राजनीति क्रूर हो जाती है।

भारतीय राजनीति में अटल जी जैसा व्यक्तित्व फिर मिलना असंभव-सा प्रतीत होता है। उनकी तुलना केवल लाल बहादुर शास्त्री जी से ही की जा सकती है। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमने उन्हें देखा, सुना और अनुभव किया। उनके अवसान के बाद भारतीय राजनीति के बदले परिदृश्य पर गंभीर विमर्श संभव है।

यह प्रसन्नता और अभिनंदन का विषय है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अटल जी की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सार्थक प्रयास किए हैं। उन्होंने अटल जी के स्वप्न- राम मंदिर और कश्मीर से धारा 370 हटाने- को साकार किया। आज अटल जी हमारे बीच भले न हों, पर उनके विचार, उनकी वाणी, उनके लेख, उनकी कार्यप्रणाली, संतुलन और समन्वय का भाव आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

सादर नमन।

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