बुजुर्गों के प्रति शिथिल होती मानवीय संवेदनाएं!

सोनम लववंशी
वर्तमान दौर में मानवीय संवेदनाएं ख़त्म हो रही हैं। यह कहना ग़लत नहीं होगा, क्योंकि आए दिन देश के किसी न किसी कोने से सामाजिकता तार-तार करने वाली खबरें मीडिया जगत की सुर्खियां बन रही है। अभी हाल ही में अलवर जिले में दो निर्दयी बेटों ने महज 4 बीघा जमीन के लालच में अपनी ही जन्मदात्री माँ के हथौड़े से पैर तोड़ दिए। जबकि पिता को भी गम्भीर चोट पहुंचाई है। बच्चे अपनी माँ की जमीन को पहले भी फर्जी तरीके से अपने नाम करवा चुके है बाकी जमीन को भी अपने नाम कराना चाहते थे, जब माँ ने बेटों की बात नहीं मानी तो कलियुगी बेटे माँ के प्राण के ही प्यासे बन गए। ये हमारे समाज की कोई पहली और आखिरी घटना नहीं है। जब चन्द रुपए पैसे, ज़मीन जायजाद के लालच में बच्चे अपने ही माँ-बाप के दुश्मन बन बैठे हो। इससे पहले भी भोपाल के कुटुंब न्यायालय में एक बुजुर्ग दम्पति को उसके अपने ही बेटे ने यह पूछने पर मजबूर कर दिया कि, क्या कुत्ता बाप से ज़्यादा उपयोगी होता है? सोचिए कितना निर्दयी बेटा होगा जिसके लिए कुत्ता अपने पिता से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया।
इससे पहले भी मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले में एक कलियुगी बेटे ने मानसिक रूप से कमजोर माँ की मोंगरी से पीटकर हत्या कर दी थी। क्योंकि वह अपनी माँ से परेशान हो चुका था। ऐसे में इस कलियुगी बेटे की मृत माँ की आत्मा जहां कहीं भी होगी। सवाल तो बहुत उठे होंगे उसके जेहन में, कि आख़िर इसीलिए तो नौ माह पेट में नहीं रखा था? जिस माँ ने ख़ुद को कष्ट देकर अपने जिगर के टुकड़े का पालन-पोषण कर बड़ा बनाया। इसलिए तो नहीं कि वही बेटा उसी माँ के लिए काल बन जाए। लेकिन वर्तमान दौर में ऐसी मानवीय संवेदनाओं का ह्रास हो चला हो। तभी तो किसी गीतकार ने यह लिखा था कि पूत-कपूत सुनें हैं, पर ना माता सुनी कुमाता। जब भी इस गाने को लिखा गया होगा। लिखने वाले ने शायद वर्तमान स्थिति को भांपकर ही इसके बोल लिखें होंगे। तभी तो वर्तमान दौर में जानवरों को पालना फैशन बन गया है जबकि माँ बाप वृद्धाश्रम की ख़ाक छानने को मजबूर हो रहे हैं।
ऐसे में सवालों की फेहरिस्त लम्बी है। भारत की पुरातन संस्कृति और सभ्यता तो ऐसी कतई नहीं थी। फ़िर आज क्यों हमारा समाज और देश अपनी दिशा से भटक रहा है? हम शिक्षा के पैमाने पर अंकों के मामले में भले ही आगे बढ़ रहे हैं पर अपने नैतिक मूल्यों और समाज के प्रति कर्तव्यों को तिलांजलि क्यों दे रहे हैं? हमारा समाज अपने बुजुर्ग माता-पिता पर ही अत्याचार कर रहा। फ़िर ऐसे में कैसे उम्मीद लगाई जाए, कि वह किसी दूसरे की जान की परवाह करेगा। आज समाज आधुनिक होने का दम्भ तो भर रहा पर शायद वह यह भूल गया है, कि सामाजिक व्यवस्था और घर-परिवार सिर्फ इन भौतिक वस्तुओं से नहीं चलते। हमें एक बेहतर समाज निर्माण के लिए बेहतर सोच रखनी होगी। तभी देश और समाज की बनी-बनाई व्यवस्था चल पाएगी। वरना सब कुछ जंगलराज में तब्दील हो जाएगा।
ये सच है कि आज के दौर में कोई भी व्यक्ति श्रवण कुमार नहीं बन सकता पर अपने बुजुर्ग माता-पिता की सेवा तो की ही जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए आज के समाज का! लोग खूबसूरत पहनावे और भौतिक सुख-सुविधाओं से लैस होकर ख़ुद को स्मार्ट समझने लगे है। लेकिन वास्तव में दिलों - दिमाग से उतने ही घिनौने और कंगाल होते जा रहे हैं। ऐसी आधुनिकता और शिक्षित समाज किस काम का जो अपने बुजुर्ग सदस्यों को अकेलेपन में जीवन बिताने के लिए आश्रम में छोड़ दे, अथवा अपने ही हाथों से उनकी जीवनलीला समाप्त कर दे।
ऐसे में सवाल तो बहुत है कि आख़िर हमारे समाज को हुआ क्या है? क्यों आज समाज में एक ऐसा तबक़ा हावी हो रहा, जो अपनों की ही जान लेने पर उतावला हो रहा है। वृद्धजनों के लिये बुनियादी सुविधाओं जैसे- भोजन, स्वास्थ्य, घर तथा अन्य आवश्यकताओं की अनुपलब्धता उनके मानवाधिकारों का हनन तो है ही। साथ में यह संविधान के अनुच्छेद-21, जो कि प्रत्येक मनुष्य को गरिमापूर्ण तथा स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार देता है, उसके साथ भी खिलवाड़ है और ऐसा खिलवाड़ अपने ही कर रहे। ऐसे में समझ सकते हमारा समाज अंदर से कितना खोखला होता जा रहा।
वैसे पिछले कुछ दशकों में हमारे सामाजिक मूल्यों में काफ़ी बदलाव आ गया है, तभी सरकार को साल 2007 में 'माता पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण और कल्याणÓ कानून ही नहीं बनाना पड़ा बल्कि वरिष्ठ नागरिकों के हितों की रक्षा और सम्मानपूर्वक जीवन के लिए न्यायपालिका को भी कड़े कदम उठाने पड़े। यह वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा के लिए सम्बल तो दे रहा है। बावजूद इसके आए दिन देश के किसी न किसी कोने से माँ बाप पर अत्याचार की खबरें भी आ रही है। इसके लिए सिर्फ सरकार ही नहीं परिवार को भी अपने बुजुर्ग माता-पिता की जिम्मेदारी उठानी होगी। उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देना होगा। तभी हमारा वर्तमान और भविष्य सुरक्षित हो सकेगा।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
