मनुष्य के उपभोग प्रेरित कर्म प्रकृति विरुद्ध

गिरीश्वर मिश्र
हमारा पर्यावरण पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंच महाभूतों या तत्वों से निर्मित है । आरम्भ में मनुष्य इनके प्रचंड प्रभाव को देख चकित थे। ऐसे में यदि इनमें देवत्व के दर्शन की परम्परा चल पड़ी तो कोई अजूबा नहीं है। आज भी भारतीय समाज में यह एक स्वीकृत मान्यता के रूप में आज भी प्रचलित है । अग्नि, सूर्य, चंद्र, आकाश, पृथ्वी, और वायु आदि ईश्वर के 'प्रत्यक्षÓ तनु या शरीर कहे गए है। अनेकानेक देवी देवताओं की संकल्पना प्रकृति के उपादानों से की जाती रही है जो आज भी प्रचलित है। शिव पशुपति और पार्थिव हैं तो गणेश गजानन हैं। सीता जी पृथ्वी माता से निकली हैं। द्रौपदी यज्ञ की अग्नि से उपजी 'याज्ञसेनीÓ हैं। वैसे भी पर्यावरण का हर पहलू हमारे लिए उपयोगी है और जीवन को सम्भव बनाता है। वनस्पतियां हर तरह से लाभकर और जीवनदायी हैं। वृक्ष वायु-संचार के मुख्य आधार हैं । शीशम और सागौन के वृक्ष सिफ़र् फर्नीचर के लिए लकड़ी ही नहीं देते बल्कि पर्यावरण को संतुलित रखते हैं। बरगद, पीपल और नीम आदि वातावरण को स्वस्थ बनाते हैं। कई वृक्ष देवताओं के आवास माने जाते हैं तो कई देवस्वरूप मान लिए गए हैं। आयुर्वेद में नाना प्रकार की जीवनदायी औषधियां विभिन्न वृक्षों के पत्तों, फलों, फूलों, जड़ों और छालों से मिलती हैं। इसी तरह विविध प्रकार के अन्न और शाक सब्जी के साथ आम, अमरूद, लीची, केला, संतरा और सेव आदि वृक्षों से मिलने वाले मधुर और सुस्वादु फल बलबर्धक और प्रिय भोज्य हैं। भारतीय पर्यावरण-चिंतन का सबसे विलक्षण पक्ष यह है कि पार्थिव रचनाएं भी हमारे लिए पूज्य हैं। अनेक कुंड, सरोवर, वन और पर्वत पवित्र तीर्थ के रूप में आराधना स्थल के रूप में लोकप्रिय हैं। नदियों में स्नान पुण्यदायी है । माघ पूस की कड़क ठंड में प्रयाग में संगम तट पर लोग कल्पवास करते हैं। मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा के बाद पत्थर और काठ की मूर्तियां सजीव स्वीकार ली जाती हैं। फिर स्नान, पूजन और नैवेद्य आदि के विधि-विधान के साथ उनकी उपासना की जाती है। यह सब न केवल मूर्त रूप अमूर्त तक पहुंचने का माध्यम है बल्कि अपने चतुर्दिक स्थित वातावरण के लिए आदर और सम्मान के भाव का भी सूचक है। इनका आशय यही है कि पर्यावरण कोई निर्जीव वस्तु नहीं है। उसके पोषण की व्यवस्था की गई।
वस्तुत: भारतीय सोच में मनुष्य को भी प्रकृति के विभिन्न तत्वों में से एक था और अन्य तत्वों से प्रभावित भी होता था । 'यत् पिंडे तद् ब्रह्मांडेÓ और 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म ' कह कर व्यष्टि और समष्टि तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच एक अनोखी कि़स्म की अनिवार्य पारस्परिकता और परस्परनिर्भरता को जीवन का आधार बनाया गया। इस ब्रह्मांड की परिकल्पना में ग्रह नक्षत्र को भी जीवन में स्थान दिया गया। नव ग्रहों का स्मरण और पूजन दैनिक कृत्य का हिस्सा बनाया गया। जीवन का ताना-बाना प्रकृति के संदर्भ में ही आयोजित किए जाने की व्यवस्था बनी जो सृष्टि में सबकी एक दूसरे के सापेक्ष्य सत्ता की पुष्टि करती है।वह जीवों और पदार्थों की असम्बद्ध उपस्थिति को नकारती है और पारस्परिकता को प्रतिष्ठित करती है। आज भी जीवन में ज्योतिष के परामर्श पर विशेष ध्यान दिया जाता है। बड़ी संख्या में विवाह आज भी वर और वधू की जन्म-कुंडली मिला कर तय होते हैं। 'राशि-फलÓ मीडिया में अभी भी लोकप्रिय है। इस प्रसंग में यह तथ्य भी बेहद महत्व का है कि समस्त जगत के पदार्थों की मूल संरचना के स्तर पर गम्भीर समानता पहचानी गई है। मनुष्य का भी निर्माण अन्य पदार्थों जैसा ही है । तुलसीदासजी ' क्षिति जल पावक गगन समीरा,पंचरचित अति अधम सरीराÓ कह कर यही स्थापित करते हैं । पर हम हैं जो अपने में इतने खोए रहते हैं कि अपने अस्तित्व-रचना के आधार के रूप में इन भौतिक तत्वों की अनुभूति के लिए तैयार नहीं होते। हम अपने को एक अतिविशिष्ट एक 'चेतनÓ रचना मानते हैं और शेष को 'जड़Ó समझते हैं।
पांच तत्वों में से वायु और उससे बना 'वातावरणÓ अन्य चार के मुकाबले में जरूर प्रकट महत्व पा सका क्योंकि श्वांस-प्रश्वास तो जीवन का पर्याय है । वह प्राण से जुड़ा होने के कारण जीवन का आधार बन गया और जीव को 'प्राणीÓ (प्राणयुक्त) कह दिया गया । अग्नि, जल, आकाश और पृथ्वी अपनी उपयोगिता के आधार पर महत्व पाते है। जीवित रहने के लिए जरूरी सारे आवश्यक तत्व हमें प्रकृति से ही मिलते हैं। रूप, रस, गंध और स्पर्श की जो संवेदनाएं हमें समृद्ध और सुखी करती हैं उनका स्रोत हमारे पर्यावरण में ही स्थित है। इस तरह हमारी स्थिति अन्य तत्वों के सापेक्ष भी समझी जानी चाहिए । पर हुआ इसके उल्टा और हमने सब कुछ को अपने स्वार्थ के अनुरूप देखना शुरू किया और भ्रमवश स्वयं को सृष्टि का केंद्र मान बैठे। धरती पर मानव के विकास के इतिहास की यात्रा के बीच प्रकृति और पर्यावरण से परे स्वयं को सारी सृष्टि का केंद्र मान बैठना निर्णायक साबित हुआ। अहंकारदीप्त मनुष्य अपने को सर्वश्रेष्ठ प्राणी मान बैठा और स्व (अपने) और अन्य (दूसरे) के बीच दुर्भेद्य रेखा खींच दी । हमने खुद को उपभोक्ता और पर्यावरण को निर्जीव वस्तु मान उपभोग्य बना दिया। फिर निर्लज्जता के साथ युद्ध स्तर पर जल, थल, अंतरिक्ष, वन, पर्वत, वनस्पति और खनिज सम्पदा के दोहन और शोषण में जुट गए। अब दूसरे ग्रहों के शोषण के लिए तजबीज हो रही है। सृष्टि में हस्तक्षेप और उस पर अधिकार जमाने की प्रवृत्ति की कोई सीमा नहीं दिख रही है।
यह ज़रूर है कि पांच तत्वों में विसंगति आने पर हमारे सामने मुश्किल चुनौती खड़ी हो जाती है। विगत इतिहास साक्षी है कि इन तत्वों की 'अतिÓ या 'न्यूनता Ó के चलते तरह-तरह के कष्ट सहने पड़ते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओला पड़ना, धरती की उर्वरा शक्ति का ह्रास, वन में आग, बड़वाग्नि (सुनामी!), बिजली गिरना आदि लगातार हो रहे हैं । सब मिल कर व्यापक जलवायु परिवर्तन को जन्म दे रहे हैं और सारा विश्व आज चिंतित हो रहा है। पृथ्वी का तापक्रम लगातार बढ़ रहा है, ओज़ोन की परत में छेद हो रहा है, विभिन्न गैसों का उत्सर्जन ग्राह्य सीमा से अधिक हो रहा है, वनस्पतियों की प्रजातियां लुप्त हो रही हैं , ग्लेशियर पिघल रहे हैं, वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही, कूड़े-कचरे से धरती और उसके नीचे ही नहीं अंतरिक्ष में भी प्रदूषण बढ़ रहा है, गंगा जैसी पवित्र नदियां औद्योगिक कचरों और शहरी मल के चलते भयंकर प्रदूषण का शिकार हो रही हैं, एवरेस्ट पर्वत शिखर भी प्रदूषण की गिरफ्त में है, शहर कंक्रीट के जंगल हो रहे हैं, बड़े पैमाने पर शुद्ध पेय जल की कमी हो रही है तथा आणविक ऊर्जा के उपयोग से जहां बिजली मिल रही है वहीं पर उसके अवशिष्ट कचरे के निस्तारण की स्थायी समस्या खड़ी हो रही है। हमारा पर्यावरण हमारे अपने व्यवहार के चलते जीवन के ही विरुद्ध होता जा रहा है।
(लेखक शिक्षाविद हैं)
