दिल्ली में सियासी महाभारत कब तक

दिल्ली में सियासी महाभारत कब तक
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विवेक शुक्ला

मानकर चलिए कि संसद के आगामी मानसून सत्र के दौरान राजधानी दिल्ली में शक्तियों के बंटवारे के सवाल पर केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच चल रहे विवाद पर खूब हंगामा होगा। देखा जाए तो केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की शक्तियों के मसले पर संघर्ष तब ही शुरू हो गया था जब 1952 में चौधरी ब्रह्म प्रकाश दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे। वो संघर्ष अब भी जारी है। अब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) सरकार केन्द्र सरकार पर आरोप लगा रही है कि केन्द्र सरकार उसे पर्याप्त अधिकार नहीं दे रही ताकि वो अपना काम कर सकें। इस पूरे संघर्ष के बीच चौधरी ब्रह्म प्रकाश की याद आती है। वे दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री थे और वे बातचीत में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पंत को ले ही आते थे। कहते थे- दिल्ली में मैं अच्छे तरीके से सरकार चला रहा था पर नेहरू जी और पंत जी ने मुझे मुख्यमंत्री के पद से इसलिए हटा दिया था क्योंकि मैं दिल्ली सरकार के लिए अधिक शक्तियों की मांग करने लगा था। ' ब्रह्म प्रकाश 17 मार्च 1952-12 फरवरी 1955 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। दिल्ली में ब्रह्म प्रकाश को हटाने के बाद कांग्रेस आला कमान ने गुरुमुख निहाल सिंह को दिल्ली का मुख्यमंत्री बना दिया। वे एक सिख थे। स्वाधीनता सेनानी थे। पर केन्द्र सरकार ने दिल्ली विधानसभा को एक अक्टूबर 1956 को भंग कर दिया। गुरुमुख निहाल सिंह के पुत्र एस. निहाल सिंह इंडियन एक्सप्रेस के संपादक भी रहे।

दिल्ली विधान सभा 1956 में भंग किए जाने के बाद दिल्ली प्रशासन पर केन्द्र सरकार का सीधा नियंत्रण रहा। हां, इस दौरान दिल्ली नगर निगम और महानगर परिषद अवश्य गठित हुईं। प्रधानमंत्री नरसिंह राव के कार्यकाल के समय दिल्ली को फिर से विधानसभा मिली। फिर मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा,सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान केंद्र और दिल्ली में अलग-अलग दलों की सरकारें भी रहीं। पर कुल मिलाकर दिल्ली सरकार का काम बिना किसी बाधा या अवरोध के चलता रहा। हां, दिल्ली सरकार को अधिक अधिकार देने की मांग होती रही। दिल्ली को कैसे 1991 में फिर से राज्य का दर्जा मिल गया और यहां 1993 में विधानसभा चुनाव हो गए? यह हम जानते हैं कि 1956 दिल्ली विधानसभा को भंग कर दिया गया था। उसके बाद भाजपा (पहले जनसंघ) और कांग्रेस की तरफ से लगातार मांग होती रही कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले। हालांकि इस मांग को करने में भाजपा सबसे आगे थी। भाजपा को दिल्ली अपनी लगती थी। उसका यहां आधार भी था। दिल्ली में ही जनसंघ की 1951 में स्थापना हुई थी। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग ने 1970 के दशक में फिर से जोर पकड़ा था। उसी दौर में श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में इमरजेंसी लागू की थी और फिर 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। तब जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया था। तब जनसंघ के नेता मांग कर रहे थे कि दिल्ली के चौतरफा विकास के लिए इसे पूर्ण राज्य का दर्जा देना जरूरी है। कांग्रेस की तरफ से भी दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग उठने लगी। 1980 के दशक के अंतिम सालों में तो यह मांग बहुत मुखर हो गई। लगातार धरने-प्रदर्शन होने लगे। इस बीच, भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा) 1980 में बन चुकी थी।1984 के लोकसभा चुनाव में करारी हार मिली थी भाजपा को । उसके सभी बड़े नेता लोकसभा चुनाव हार गए। तब भाजपा को लगा कि वो दिल्ली को पूर्ण राज्य की मांग के साथ फिर से खड़ा कर लेगी। इस मांग के चलते दिल्ली में राजनीतिक हलचल तेज हो गई।

क्या थी बालकृष्णन कमेटी की सिफारिश

केन्द्र सरकार ने 1987 में जस्टिस आर.एस.सरकारिया की अगुवाई में एक कमेटी बनाई। इसका बाद में नाम जस्टिस बाल कृष्णन कमेटी कर दिया गया क्योंकि सरकारिया साहब ने इस्तीफा दे दिया था। इस कमेटी को पता लगाना था कि दिल्ली की व्यवस्था का पुनर्गठन कितना जरूरी है। बाल कृष्णन कमेटी ने दिल्ली के विभिन्न अहम सियासी दलों और प्रबुद्ध नागरिकों से बात की। सबकी राय थी कि इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए। इसके अभाव में राष्ट्रीय राजधानी का विकास नहीं हो रहा है। इसके बाद बालकृष्णन कमेटी की सिफारिशों को मानते हुए केन्द्र सरकार ने मई 1990 में संसद में एक बिल पेश किया। इसका मकसद दिल्ली को राज्य का दर्जा देना था। खैर, दिल्ली को 1991 में राज्य का दर्जा तो मिल गया। 1993 के विधानसभा चुनाव में मदन लाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गये। पर दिल्ली विधानसभा को कह सकते हैं कि सांकेतिक शक्तियां ही मिलीं। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना तो दूर की संभावना ही बनी रही।

आम आदमी पार्टी (आप) के दिल्ली की सत्ता पर 2015 में काबिज होने के बाद केन्द्र और दिल्ली सरकार के बीच पहले वाला सौहार्द और तालमेल खत्म हो गया। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सरकार और दिल्ली में केजरीवाल सरकार के बीच शक्तियों के बंटवारे के बिन्दु पर अनवरत महाभारत शुरू रहने लगा। ताजा विवाद की जड़ में दिल्ली के लिए केंद्र सरकार का बीती 19 मई को अध्यादेश लाना है। सुप्रीम कोर्ट के विगत 11 मई के फैसले के बाद इसे लाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अफसरों की ट्रांसफर और पोस्टिंग को लेकर दिल्ली सरकार के पक्ष में फैसला दिया था। अध्या्देश के तहत राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण के गठन की बात कही गई है। अध्यादेश कहता है कि ट्रांसफर-पोस्टिंग और विजिलेंस का काम राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण देखेगा। ट्रांसफर-पोस्टिंग का फैसला अकेले मुख्यमंत्री नहीं करेंगे। एक बात और भी गौरतलब है कि दिल्ली ना पूर्ण राज्य है और ना ही केन्द्र शसित प्रदेश। इसे राष्ट्रीय राजधानी का दर्जा हासिल है। दिल्ली आबादी के लिहाज से देश के बड़े राज्यों में शुमार होता है। इसको लेकर केन्द्र सरकार को कोई साफ नीति बना लेनी चाहिए। दिल्ली में विवाद की स्थिति इसलिए ही बनी रहती है क्योंकि शक्तियों का बंटवारा साफ नहीं हैं।

कांग्रेस मोदी सरकार के साथ क्यों

दिल्ली में केन्द्र सरकार बनाम दिल्ली सरकार के बीच चल रही तनातनी में कांग्रेस मोदी सरकार के साथ खड़ी नजर आ रही है। कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेता अजय माकन और संदीप दीक्षित लगातार केजरीवाल सरकार पर हल्ला बोल रहे हैं। इनका दावा है कि दिल्ली में मुख्यमंत्री केजरीवाल एक इस तरह का विशेष अधिकार चाहते हैं, जो दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी नहीं मिला। अजय माकन बताते हैं कि बाबा साहेब अंबेडकर के नेतृत्व में गठित एक समिति ने 21 अक्टूबर, 1947 को दिल्ली को लेकर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसमें कहा गया था 'जहां तक दिल्ली का संबंध है, हमें ऐसा लगता है कि भारत की राजधानी को शायद ही किसी स्थानीय प्रशासन के अधीन रखा जा सकता है।

दिल्ली की स्थिति विशेष तो है। यहां पर विदेशी दूतावास और उच्चायोग भी हैं। इसलिए इसे दिल्ली सरकार को पूरी तरह से नहीं सौंपा जा सकता। पर केन्द्र सरकार को भी उपराज्यपाल के जरिए दिल्ली सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप बंद करने होंगे। इस बीच, कहने वाले कह रहे हैं कि दिल्ली विधानसभा को 1956 को भंग भी किया जा सकता है। क्या ये होगा ? ( लेखक स्तंभकार हैं)

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