गुरु-स्मरण: शास्त्रीय नृत्य-संगीत में बदलती प्रवृत्ति

शास्त्रीय नृत्य-संगीत में बदलती प्रवृत्ति
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डॉ अजना झा। भारतीय शास्त्रीय नृत्य और संगीत की परंपरा में गुरु-शिष्य परंपरा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह केवल कला सिखाने का माध्यम नहीं, बल्कि एक ऐसी संस्कृति है जिसमें शिष्य का व्यक्तित्व, उसका संस्कार और उसकी दृष्टि आकार लेती है। हर कलाकार की कला-यात्रा का आरंभ किसी न किसी गुरु के सान्निध्य से होता है, जो उसकी बुनियाद रखता है।

आजकल एक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है कि बहुत से विद्यार्थी और कलाकार अपने प्रथम गुरु का उल्लेख अपने परिचय में नहीं करते। वे केवल उन गुरुओं का नाम लेना पसंद करते हैं, जिनसे उन्होंने बाद में शिक्षा ली या जिनके नाम से उन्हें मंचीय मान्यता और प्रसिद्धि मिली। यह चलन केवल गुरु के नाम का उल्लेख छोड़ना नहीं, बल्कि उस परंपरा और संस्कार की उपेक्षा है, जिसकी नींव पर उनकी कला खड़ी हुई है।

कला केवल मंच पर दिखाने की वस्तु नहीं है, वह संस्कार है। जिस प्रकार एक वृक्ष की जड़ें दिखाई नहीं देतीं, पर उसकी मजबूती का आधार वही होती हैं, वैसे ही कलाकार की कला की जड़ें उसके प्रथम गुरु में होती हैं। चाहे वह गुरु आज मंचों पर सक्रिय हो या न हो, उसका महत्व कभी कम नहीं होता।

कलाकार का दायित्व है कि वह अपने जीवन के हर पड़ाव पर उस गुरु का स्मरण करे जिसने उसे पहली बार ताल, स्वर, रचना और सौंदर्यबोध सिखाया। यह केवल कृतज्ञता नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की पहचान है।

आज समय की मांग है कि कलाकार इस दिशा में सजग हों। नवाचार और आधुनिक मंचीय प्रतिस्पर्धा के बीच भी अपनी गुरु परंपरा का सम्मान करें। प्रथम गुरु का स्मरण करना किसी प्रसिद्धि या ब्रांड वैल्यू के लिए नहीं, बल्कि अपने संस्कार और आत्मिक ऋण को स्वीकार करने का भाव है।

जहां गुरु-शिष्य परंपरा जीवित है, वहां कला केवल कौशल नहीं, साधना बन जाती है। इसलिए कलाकारों को चाहिए कि वे अपने प्रोफाइल, मंचीय घोषणाओं और लेखों में अपने प्रथम गुरु का उल्लेख अवश्य करें। यह परंपरा की गरिमा और व्यक्तिगत ईमानदारी दोनों का प्रतीक है।


डॉ. अजना झा:

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कत्थक नृत्यांगना (जयपुर घराना) टांप ग्रेड दूरदर्शन कलाकार भारत सरकार

सह प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष कत्थक नृत्य विभाग

राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय ग्वालियर मध्यप्रदेश

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