चुगली एक जरूरी कला है

प्रदीप औदिच्य
चुगली एक बेहद जहीन और संजीदगी वाला कार्य है। जीवन में एक चुगलखोर का होना अति आवश्यक है। चुगली मात्र आधुनिक काल की कला नहीं है । ये ऐतिहासिक महत्व की कला है। राजा महाराजाओं के काल में राजा महाराजा अपने पास ऐसे लोगो को रखते थे,जो चुगलखोर होते थे जिन्हे वह दरबारी कहते थे।
लेकिन रहीम दास ने ये साफ साफ नहीं बताया कि किसकी चुगली करने वाले अपने पास रखना है। इसलिए हुआ यूं कि राजा महाराजाओं ने समझा कि दूसरो की निन्दा करने वाले लोगों को अपने पास रखना चाहिए ।रहीम दास जी को ये उसी समय स्पष्ट लिखना था कि चुगलखोर तो रखो लेकिन अपनी चुगली या बुराई करने वालो को ।इस कंफ्यूजन से ये तो गड़बड़ हुई।
पर इसमें अच्छी बात ये हुई कि सफलता पाने के रास्ते खुल गए। राजाओं के नजदीक आने के नए रास्ते पता लगा। चुगलखोर का महत्व राज दरबार में बढ़ा। चुगली का महत्व भी बढ़ा। बस यही नियोजित और आत्मप्रगति की राह खोलने वाली परम्परा आदि काल से आधुनिक काल तक चली आई। आधुनिक काल में मंत्री, बड़े अफसर सब लोग निंदक मतलब चुगल खोर को अपने नजदीक रखने लगे। फिर सीधे उसे चुगलखोर भी नहीं कह सकते थे, सो उन्होंने उसे निज सहायक या पी ए जैसा नाम दे दिया जो सरकारी होते है, फिर उन्हें लगा कि चुगली का काम विस्तृत काम है। किसी एक आदमी के बस का नहीं है । तब सत्ता ने अन्य लोगों को भी इस काम में लगा दिया। ये इतना आनंदित काम है कि लोग बिना पैसे के भी करते हैं , उनके अपने आनन्द है उस आंनद प्राप्ति के लिए लोग किसी बात पर निंदा शुरू कर देते हैं। चुगली कला के प्रभावशाली होने का सबूत ऐसा था कि कई लोग जमींदार बन गए, आज भी चुगली एक शानदार सीढ़ी है सफलता की। चुगली करने में कोई खास सामग्री की जरूरत नहीं है।
चुगली के लिए एकांत की जरूरत है। आप ये काम थोड़ी झिझक के साथ शुरू करते है, ये काम तब आगे बढ़ता है जब जो चुगली सुन रहा हो वह आपकी चुगली को हरी बत्ती जलाकर रास्ता साफ होने का सिग्नल दे। मतलब वह आपकी चुगली को बड़ी ही इज्जत के साथ सुने और बीच में हूं, हां... का हुंकारा भरता हुआ आपको और अधिक चुगली करने वाले को उत्साहित करे।
वैसे चुगली में ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है, ना ये काम करने के लिए किसी का खास राशि या धन की आवश्यकता है ,बिना बैंक लोन के भी ये काम शुरू हो जाता है।
बड़े दफ्तर में साहब के बारे में लोग क्या कह रहे है, मंत्री जी के दरबार में क्या चल रहा है, ये बात सुनकर तो कहना अच्छा है ही। कुछ लोग तो किसी का चेहरा देख कर या उसके आसपास की हवा को सूंघकर ही पूरी कहानी अपने बॉस को सुना देते हैं।
बस, हिंदी साहित्य ने इसके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया है। इसको जो ऊंचा मुकाम या सम्मान देना चाहिए था, उसमे कंजूसी बरती ।
इससे चुगलखोर समाज में रोष है। उनका लगता है कि,आप तारीफ करने वाले को पुल बनाने वाला कह सकते हो,,तो चुगली वाले को एक पुलिया का निर्माता ही कह दो,हालांकि समाज और साहित्य जगत की किसी की परवाह किए बिना ही चुगल खोर अपने काम में पूरे मेहनत और जतन से लगे हैं।
मोबाइल तकनीक ने इस काम को त्वरित करने में बड़ी मदद की है, इधर बात सुनी और उधर झट से सम्बन्धित व्यक्ति तक पहुंचाई गई। कई विशेषज्ञ वीडियो और ऑडियो माध्यम का सहारा लेते हैं, ये वो लोग है जो अपनी बात के पक्ष में कोई सबूत चाहते हैं पर कई तो विश्वास के सहारे चलते है... इसमें विश्वास की बात बहुत जरूरी है। मतलब ये बात साफ है कि चुगली की सीढ़ी से सफलता की छत पर जाने का रास्ता खुल जाता है। हर बड़े आदमी के पास एक चुगलखोर होता है, अगर आप बड़े आदमी बनना चाहते हैं तो आप अपने पास एक चुगल खोर अवश्य रखें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
