गीता को जाने-52: अहं को जानना है, अहंकार को त्यागना है

अहंकार को समझने से पहले अहं को समझना आवश्यक है। अहं तो हमारा शुद्ध स्वरूप है। “मैं बालक था”, “मैं युवा हूँ”, “मैं सुख से सोया” आदि में जो ‘मैं’ है, वह हमारा स्वरूप है। जब इस अहं (मैं) को आकार दे दिया जाता है तो इसे अहंकार कहते हैं। शरीर, संबंधी, धन, संपत्ति, पद आदि को ही अपना स्वरूप मान लेना अर्थात् शुद्ध ‘मैं’ को आकार दे देना है। तब हम कहते हैं “मैं धनी हूँ”, “मैं अधिकारी हूँ”, “मैं पिता हूँ” आदि।
इसे दर्शन शास्त्र की भाषा में कहते हैं-हमने धन के कारण धनौ, अधिकार के कारण अधिकारी, पुत्र के कारण पिता को उपाधि धारण कर ली है। मेरा शुद्ध स्वरूप 'अहं' है और उसके साथ आने वाले धनी, अधिकारी, पिता आदि शब्द 'अहंकार' हैं।
अहंकार के कारण ही हमारा संसार से संबंध जुड़ा। हमारा अहंभाव ‘मैं’ तो हमारा स्वरूप है, जो अहंकार के पीछे खो गया है और जिसे हमें प्राप्त करना है। जब यह समझ में आ जाता है कि अहंकार जिन उपाधियों (धन, अधिकार, पुत्र आदि) से बना है, वे मेरे स्वरूप ‘अहं’ से पृथक् हैं, तो अहंकार की वास्तविकता समझ में आ जाती है। कोई भी असत्य तभी तक टिकता है जब तक सत्य का ज्ञान नहीं होता। अहंकार की वास्तविकता समझ आने पर अहंकार समाप्त हो जाता है और अहं का बोध हो जाता है।
अहंकार का नाश करके अहं को (अपने स्वरूप को) जानना ही जीवन का लक्ष्य है। यहीं परम पुरुषार्थ है।
मनुष्य ने मान लिया है-“यह शरीर मैं ही हूँ और संसार की वस्तुएँ-घर, धन, पद, संबंधी आदि मेरे हैं।” अहंकार के कारण वह जिनको अपना मानता है, उन्हें सदैव अपने पास रखना चाहता है; यही ममता है।
निर्मम का अर्थ यहाँ दुष्ट या क्रूर होना नहीं है, अपितु संसार की परिवर्तनशीलता और नाशवानता को समझकर संसार की वस्तुओं और व्यक्तियों को सदैव अपने पास रखने की इच्छा अर्थात् ममता से रहित होना है। ममता ही बंधन का कारण होती है। ज्ञान साधना में ममता जल जाती है, भक्ति में उसे ईश्वर के प्रति समर्पित करके उससे छुटकारा पा लिया जाता है। दोनों ही तरीकों से निर्ममः की अवस्था प्राप्त होती है।
भोग से मिले ‘रस’ का संस्कार चित्त में रहने से पुनः भोग में प्रवृत्त होने की इच्छा स्पृहा कहलाती है। कामनाएँ ‘मैं’ और ‘मेरा’ के संबंध (अर्थात् अहंकार) से ही पैदा होती हैं और देह तथा इंद्रियों तक सीमित रहती हैं।
शांति प्राप्त करने के लिए त्याग का क्रम भगवान् ने इस प्रकार बताया है-सर्वप्रथम समस्त कामनाओं का त्याग, तदुपरांत स्पृहा रहित होकर व्यवहार करना, ममता रहित होना और अहंकार का त्याग। यह चारों आपस में जुड़े हैं। प्रकट में कामना दिखाई देती है; उसके नीचे स्पृहा और उसके नीचे ममता होती है। कामना छोड़ने पर भी स्पृहा बनी रह सकती है। स्पृहा त्यागने पर भी ममता बनी रह सकती है। ममता रहित होने पर भी अहंकार बचा रह सकता है।
इन सबका आधार अहंकार में होता है, जो ममता के रूप में परिवर्तित होता है। जब अहंकार समाप्त हो जाता है तो ममता (मेरा-पन) भी समाप्त हो जाती है। इसका अर्थ है कि अब सांसारिक वस्तुओं का मोह नहीं रहता। परिणामतः सभी कामनाएँ समाप्त हो जाएँगी।
दूसरे शब्दों में, अहंकार के नाश से ममता का नाश होता है और इससे कामना का नाश हो जाता है। कामना होने का अर्थ ही है कि हम इंद्रियों के विषयाधीन हैं। कामना समाप्त होने पर हम संसार की दासता से मुक्त हो जाते हैं और शांति मिल जाती है।
जब यह बोध हो जाता है कि मेरा स्वरूप शरीर नहीं, अपितु आत्मा है, जो नित्य, अविकारी और अविनाशी है (अर्थात् अहंकार समाप्त हो गया), तब भीतर से उत्पन्न अपूर्णता-जिसे हम बाह्य चीजों से भरना चाहते हैं और इसलिए ममता और कामना में फँसते हैं-समाप्त हो जाती है। भीतर से अपने को परिपूर्ण अनुभव करने और अपने आप में ही संतुष्ट रहने वाले को संसार की वस्तुओं की कामना और ममता नहीं रहती।
संक्षेप में कहें तो, अहंकार समाप्त होने पर उस पर खड़ा यह महल ताश के पत्तों की तरह भर-भरा कर गिर जाता है। यह सभी त्याग परस्पर संबंधित हैं, इसलिए जब एक प्रवृत्त होता है तो दूसरा स्वमेव प्रवृत्त हो जाता है। हम अपनी शुरुआत अपनी जरूरतों को सीमित करने से कर सकते हैं; इससे कामनाएँ घटेंगी और कार्य-कारण की श्रृंखला चल पड़ेगी, जिसका परिणाम शांति की प्राप्ति होगा।
शांति प्राप्ति की श्रृंखला का प्रथम चरण बताया गया है-कामनाओं का त्याग। परंतु यह न सोचें कि कामनाओं के त्याग से मनुष्य कर्म से विरत होकर जड़वत् हो जाएगा। निरंतर कर्म करते रहना गीता की शिक्षा है। इसलिए भगवान् स्पष्ट करते हैं-स्थितप्रज्ञ ‘निःस्पृहः’ चरति, अर्थात् वह समस्त व्यवहार करता है, परंतु निष्काम होकर। वह कर्म करते हुए भी अपने को अकर्ता और भोगते हुए भी अभोक्ता अनुभव करता है।
अब उसका कार्यक्षेत्र स्वार्थ के छोटे घेरे को पार कर परमार्थ का अनंत आकाश हो जाता है। निष्काम कर्म अधिक व्यापक, प्रभावी और उच्च होते हैं। उसका जीवन अन्यों के लिए आदर्श होता है।
ऐसी निष्काम अवस्था जहाँ कामना, स्पृहा, ममता और अहंकार न रह जाए, उसे ब्राह्मी अवस्था कहते हैं। यह मानव जीवन की उच्चतम उपलब्धि है। नित्य शांति को प्राप्त होना ही ब्रह्म की प्राप्ति है। ब्रह्म को जानकर वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है।
भगवान् कहते हैं-“हे पार्थ! यह ब्राह्मी अवस्था है। इसे प्राप्त करके कोई मोहित नहीं होता। जो अंत समय में भी इसमें स्थित हो जाता है, उसे निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है (गीता 2.72)।”
अहंकार समाप्त होने से असत् से संबंध विच्छेद हो जाता है और सत् में अपनी वास्तविक स्थिति का बोध हो जाता है। अर्थात् संसार से संबंध समाप्त हो जाता है। संसार से संबंध होने के कारण ही अहंकार (व्यक्तित्व) होता है। संसार से संबंध समाप्त होते ही योगी की व्यक्तिगत स्थिति समाप्त हो जाती है।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्ति का अर्थ है-इस सत्य का बोध हो जाना कि ब्रह्म ही सर्वव्यापक है। इस अवस्था में केवल परमात्मतत्त्व ही शेष रहता है। व्यक्तिगत अस्तित्व उसी में विलीन हो जाता है। अतः एक बार यह अवस्था प्राप्त होने पर वह सदैव रहती है। इसमें फिर कोई मोह या भ्रम नहीं होता। इसलिए अंत समय में भी जो इस स्थिति में स्थित हो जाता है, वह शांत ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
सामान्य रूप से मनुष्य अल्प या अशिव अवस्था में रहता है। पर कामना त्याग के परिणामस्वरूप भूमा, ब्राह्मी या शिव अवस्था मिलती है। यही है नर से नारायण हो जाना, जीव का शिव हो जाना।
एक बार ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो गई, तो वह सदैव बनी रहती है। इस स्थिति को इसी मानव शरीर और जीवन में प्राप्त किया जा सकता है, न कि मरणोपरांत किसी अन्य लोक में।
