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गंगाराम बांदिल : अपनेपन की शैली के पुरोधा

गंगाराम बांदिल : अपनेपन की शैली के पुरोधा
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अजीत बरैया

भाई साहब यही छोटा सा नाम था स्व. श्री गंगाराम बांदिल जी का। चूंकि यह नाम का पर्यायवाची था, इसलिए सभी चाहे कोई छोटा संरक्षण पाकर, मित्र आत्मीय स्नेह पाकर, साथी या कार्यकर्ता सदैव अपने निकटतम पाकर भाई साहब संबोधन का ही प्रयोग करता था। एक ही नाम या संबोधन से जब कोई व्यक्ति जाना पहचाना जाए जाए तो उस व्यक्तित्व की सर्वसमावेशी होने का संकेत है। भाई साहब ऐसे ही थे।

भाई साहब से परिचय

महाराज बाड़े पर छत्री के चारों ओर ठेले या फड़ लगे थे। बात 1969 की है उन ठेले एवं फड़ों को प्रशासन का साधन नष्ट होते देख ठेला फुटपाथ संघ ने मावराव सिंधिया का पुतला दहन का कार्यक्रम रखा। भारतीय जनसंघ पुतला दहन नहीं चाहता था। किंतु ठेला फुटपाथ संघ के कर्ताधर्ताओं ने मुझे पुतला लेकर अचानक प्रगट हो दहन करने का जिम्मा दिया। मैं स्कूल छात्र अंजान अज्ञानी ठाकुर पान भंडार पर पुतला छिपाकर खड़ा था। जैसे ही संकेत हुआ मैं तुरंत भागा और बीच सड़क पर आकर पुतला दहन कर दिया। अचानक हुई इस क्रिया से पुलिस एवं उपस्थित जन समुदाय आश्चर्य में पड़ गया। भाई साहब की नजर मुझ पड़ी तो मेरे अग्रज एवं पड़ौसी फकीरचंद्र ढींगरा के माध्यम से मुझे बुलाया और परिचय कर क्रमश: अपने निकट कर लिया।

सिर फोड़ राजनीति

वर्ष 1969 से 1990 तक की राजनीति केवल सभा, मंच, भाषण, चुनाव तक ही ही सीमित नहीं थी, वरन प्रत्यक्ष हाथापाई ही नहीं जानलेवा हमले भी हो जाया करती थे। स्मरण आता है हजीरा पर बलराज मधोक की सभा आयोजित होनी थी। मजदूर क्षेत्र होने से कम्युनिस्ट उस पर एकाधिकार जमाए रखना चाहते थे। वे किसी अन्य दल विशेषकर जनसंघ की सभा नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने खुली चेतावनी भी दे रखी थी कि सभा नहीं होने देंगे। तब अनेक कार्यकर्ता सभा की सुरक्षा एवं सफलता के लिए आत्मरक्षा व कुछ लाठियों में झंडे लगाकर सभा को घेर कर खड़े रहे। सभा संपन्न हुई।

किंतु अपनी हार समझ कम्युनिस्टों ने कार्यकर्ताओं पर हमला बोल दिया। दोनों ओर के कार्यकर्ताओं को गंभीर चोटें आईं, पुलिस रिपोर्ट हुई और सब अगली तैयारी में लग गये। ऐसी घटनाओं के पश्चात कार्यकर्ता की चिंता, पुलिस से बचाव तथा उसके मनोबल को उच्च बनाए रखने में भाई साहब अत्यधिक ध्यान रखते थे।

कार्यकर्ता की प्रतिष्ठा

किसी भी संगठन में उसके विस्तार हेतु आवश्यक है कि कार्यकर्ता बने, ढले एवं प्रतिष्ठित हो अर्थात उसकी पहचान स्थापित होनी चाहिए। भाई साहब प्रत्येक पग पर कार्यकर्ता के साथ खड़े रहकर अपने स्नेह से पालते-पोसते थे। एक-एक कर उसमें गुण डालने का प्रयास करते। अच्छे काम की उम्मीद से अधिक सराहना और काम बिगड़ जाने पर मुस्कुरा कर लापरवाही एवं गलतियों को समझा देना, मीठी झड़प लगा देना उनकी आदत थी। वरिष्ठ अधिकारियों से परिचय कराते समय सिर्फ कार्यकर्ता के गुणों का बखान करना जिससे कार्यकर्ता की अच्छी पहचान स्थापित हो एवं समय-समय पर बड़े अधिकारियों की व्यवस्था में रख देना उनकी कार्यकर्ता गढ़ने की तकनीक थी। मुझ जैसे ना जाने कितने कार्यकर्ताओं का फर्श उठाने से लेकर नेतृत्व करने तक में सक्षम बना दिया।

विशिष्ट कार्यशैली

जगह-जगह बैठना, संपर्क करना, घर-घर जाना बातचीत करन, कार्यकर्ताओं की हर जानकारी और इच्छा का ध्यान रखना, परिवार से सदस्य की भांति निकटता होना, भाषण नहीं व्यवहार से शिक्षा देना, स्वयं आगे बढ़कर कार्यकर्ता का संकोच तोड़ना, पीछे खड़े रहकर कार्यकर्ता को आगे बढ़ाना यह विशिष्ट कार्यशैली थी हमारे भाईसाहब की। 36 वर्षों बाद भी जिनका स्मरण आता है और उससे प्रेरणा मिलती है। अपने जीवन कार्य के लिए उस महामना को सादर एवं निनम्र।

(लेखक समाजसेवी हैं)

Updated : 1 Jun 2023 8:09 PM GMT
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