पहले मन फिर तन और बाद में धन

विजय त्रिवेदी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गुरू दक्षिणा कार्यक्रम इस साल 3 जुलाई से शुरू हो रहा है, इसमें लाखों स्वयंसेवक और समर्थक हिस्सा लेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शायद अकेला समाजसेवी संगठन होगा जो आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर है और किसी दूसरे से चंदा नहीं लेता। संघ से जुड़े लोग भी साल में केवल एक बार अपनी तरफ से दक्षिणा देते हैं, जिसे गुरु दक्षिणा कहा जाता है।
हिंदू कैंलेडर के हिसाब से व्यास पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक यानी एक महीने तक गुरू दक्षिणा का कार्यक्रम चलता है। इस दौरान स्वयंसेवक संघ में गुरू माने जाने वाले भगवा ध्वज के सामने यह समर्पण राशि रखते हैं। इसे गुप्त रखा जाता है यानी दक्षिणा की राशि और देने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता, लेकिन हर एक पैसे का पूरा हिसाब रखा जाता है।
गुरू पूजा का कार्यक्रम
संघ की स्थापना तो साल 1925 में हुई लेकिन साल 1928 में गुरू पूजा का कार्यक्रम शुरू हुआ और तब से अनवरत चल रहा है। पहली बार हुई गुरू दक्षिणा में तो कुल 84 रुपये और पचास पैसे जमा हुए थे।
संघ में डंडा और झंडा
विदेशों में विश्व हिन्दू परिषद का काम देख रहे स्वामी विज्ञानानंद कहते हैं कि संघ सबसे कम खर्च से चलने वाला समाजसेवी संगठन है, शाखा चलाने के लिए क्या चाहिए सिफ़र् एक डंडा और एक झंडा। डॉ. हेडगेवार ने शाखा के प्रचारकों और पदाधिकारियों के सादगी से चलने पर जोर दिया था।आमतौर पर वे प्रवास के दौरान संघ कार्यालयों या संघ से जुड़े लोगों के घरों पर ही रुकते हैं। किसी भी संगठन के खत्म होने, कमज़ोर होने या भ्रष्ट होने का सबसे बड़ा कारण आर्थिक तौर पर दूसरों या सरकारों पर निर्भर होना होता है, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने संघ को आत्म निर्भर बनाया और इसके लिए गुरू दक्षिणा की परपंरा शुरू की।
भगवा ध्वज को माना गुरू
डॉ. हेडगेवार पर बायोग्राफी लिखने वाले एन एच पल्हीकर के मुताबिक संघ में शुरुआत में सब लोग डॉ. हेडगेवार को गुरू के तौर पर स्वीकार करना चाहते थे, लेकिन डॉ. हेडगेवार ने इससे इनकार करते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता, उसमें दोष होते हैं, चाहे वो गुरू द्रोणाचार्य ही क्यों ना हो और तब हिन्दू धर्म में प्रतिष्ठित भगवा ध्वज को गुरू के तौर पर स्वीकार किया गया। संघ की शाखाएं, सभी कार्यक्रम भगवा ध्वज को प्रणाम से ही शुरू होते हैं और गुरू दक्षिणा भी भगवा ध्वज को ही समर्पित की जाती है। संघ के सरकार्यवाह रहे एच.वी. शेषाद्रि ने अपनी पुस्तक में भगवा ध्वज और हिन्दू धर्म के इतिहास की पूरी व्याख्या की है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि अब संघ में यह समर्पण राशि पहले से बढ़ गई। इसका इस्तेमाल संघ की गतिविधियों, प्रचारकों और पदाधिकारियों के खर्चे के अलावा संघ के विभिन्न कार्यक्रमों में इस्तेमाल होता है।
संघ से जुड़े विविध क्षेत्र के संगठन अपने खर्च के लिए राशि खुद जुटाते हैं, लेकिन संघ की शाखाओं में ब्लॉक से राष्ट्रीय स्तर तक इस राशि का बंटवारा किया जाता है और यह काम संघ का व्यवस्था विभाग देखता है।
संघ को मिलने वाले पैसे और खर्च का हर साल ऑडिट होता है और पूरी राशि बैंकों में जमा होती है।
संघ के विचारक दिलीप देवधर बताते हैं कि गुरू दक्षिणा का समर्पण इस नजरिए से गोपनीय होता है कि उसकी जानकारी किसी दूसरे को नहीं होती, लेकिन संघ में यह समर्पण राशि एक बंद लिफ़ाफ़े में देने वाले के नाम के साथ जमा होती है और उसका पूरा हिसाब व्यवस्था विभाग से जुड़ी कमेटी रखती है, इसलिए उसमें गड़बड़ी की कोई आशंका नहीं है।
देवधर के मुताबिक संघ समर्पण में 'सबसे पहले मन, फिर तन और फिर धन को प्राथमिकताÓ देता है और यही उसके लगातार आगे बढ़ने का रहस्य भी है।
समर्पण राशि करोड़ों में अब संघ की समर्पण राशि का हिसाब समझिए। इस वक्त संघ से जुड़े करीब एक करोड़ स्वयंसेवक हैं और हर साल पचास हज़ार से ज़्यादा स्वयंसेवक नए जुड़ते हैं। आमतौर पर सभी स्वयंसेवक गुरू दक्षिणा देते हैं। समर्पण राशि भगवा ध्वज को भेंट करते हैं। देश के बहुत से उद्योगपति और बिजनेस घरानों के लोग भी गुरू दक्षिणा कार्यक्रम में शामिल होते हैं। संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी भले ही शाखा में सार्वजनिक तौर पर शामिल ना हों, लेकिन गुरू दक्षिणा कार्यक्रम में जरूर हिस्सा लेते हैं।
क़रीब 40 हज़ार शाखाएं
अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आम्बेकर ने बताया कि इस समय देश भर में संघ की 39 हज़ार 454 शाखाएं हैं जिनमें से 27 हज़ार 166 अब खुले मैदान में शुरू हो गई हैं, 12 हज़ार 288 ई-शाखाएं चल रही हैं। 10,130 साप्ताहिक मिलन की बैठकें होती हैं और करीब दस हज़ार कुटुंब मिलन होते हैं। ( लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
