आपातकाल की आपबीती: न्यायाधीश ने सैल्यूट कर कहा-यह अपराधी नहीं, देशभक्त है

आपातकाल के काले दौर में जब सत्ता ने नागरिक अधिकारों को कुचल दिया था, तब भी व्यवस्था के भीतर ऐसे लोग थे जो दिल से राष्ट्रभक्तों के साथ खड़े रहे। न्यायालय की चौखट पर एक न्यायाधीश का सम्मानपूर्ण सल्यूट उन दिनों की आतंरिक संघर्षशीलता और साहस का अनूठा प्रतीक बन गया। 70 वर्षीय अभिभाषक अश्विनी कुमार यादव उस दौर को याद करते हैं तो आंखों में चमक और आवाज में वही अडिग हिम्मत लौट आती है।
संस्मरणः इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल ने देश को दमन के अंधेरे में ढकेल दिया था। लेकिन इसी अंधेरे में कुछ छोटी, पर गहरी रोशनियां थीं, जो लोकतंत्र की लौ को जलाए रखने में मदद कर रही थीं। अश्विनी कुमार यादव बताते हैं कि गिरफ्तारियां करने वाले कई पुलिसकर्मी और अधिकारी खुद मजबूरी में काम कर रहे थे, लेकिन मन से वे आंदोलनकारियों का सम्मान करते थे।
अगस्त 1975 में जब वे दौलतराम भारानी, दिलीप शर्मा, ओपी शर्मा, कामेश्वर सिंह और तपन भौमिक समेत नौ साथियों के साथ गिरफ्तार होकर न्यायालय पहुंचे, तो एक अनोखा दृश्य देखने को मिला। न्यायाधीश पटेल अपनी कुर्सी छोड़कर खड़े हो गए और सभी आंदोलनकारियों को सल्यूट किया। आदेश में लिखा गया था कि इन्हें हथकडी न लगाई जाए क्योंकि यह अपराधी नहीं, राष्ट्रभक्त हैं। यह सम्मान उस समय किसी पदक से भी बड़ा था और सभी के मन में असाधारण साहस भर गया। गिरफ्तारी के बाद एक रात थाने में रखा गया। दो साथियों को पुलिस ने पीट भी दिया, लेकिन जैसे ही यह बात थाना प्रभारी सबलोक खन्ना तक पहुंची, उन्होंने पुलिसकर्मियों को सख्त फटकार लगाते हुए स्पष्ट कहा कि यह देशभक्ति का काम कर रहे हैं, इन्हें हाथ न लगाया जाए। सुबह न्यायालय में पेश किया गया और फिर भोपाल केंद्रीय जेल भेज दिया गया।
जेल का पहला दिन बेहद कठिन रहा क्योंकि उन्हें डकैत और बदमाशों के बैरक में डाल दिया गया था। लेकिन अगले ही दिन उत्तमचंद इसरानी आए और उन्हें 6 नंबर ब्लाक में ले गए। इसके बाद जेल की दिनचर्या अनुशासन और व्यवस्था के साथ आगे बढ़ने लगी। सुबह चार बजे उठना, शाखा, पाठन, भोजन, सामूहिक गतिविधियां, सबने जेल के माहौल को एक प्रकार के तप में बदल दिया। 21 मार्च 1977 को सत्ता परिवर्तन के बाद ही वे रिहा हुए। बीएचईएल बरखेड़ा में जनता ने भव्य स्वागत किया। जेल से आने के बाद पार्टी ने उन्हें जिला उपाध्यक्ष बनाया।
जब मीसा में बंद हुए उस समय उनकी उम्र सिर्फ 20 वर्ष थी। 12वीं पास थे। जेल से रिहा अश्विनी कुमार यादव होने के बाद उन्होंने बीए और एलएलबी किया और फिर अधिवक्ता के रूप में कार्य शुरू किया। अविवाहित होने के कारण पारिवारिक जिम्मेदारियां कम थीं। पिता शालीग्राम बीएचईएल में सुरक्षा अधिकारी थे इसलिए आर्थिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। हालांकि गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने घर की तलाशी ली और माता पिता को डराया भी। वे बताते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक होना और आपातकाल का विरोध करना ही उनका अपराध लिखा गया था। जेल में रहते हुए कलेक्टर दातार सिंह ने तीन बार पिताजी के माध्यम से माफीनामा भिजवाया, लेकिन उन्होंने हर बार उसे ठुकरा दिया।
1992 के रामजन्मभूमि आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे और तब पुलिस ने उन्हें बुरी तरह पीटा था। अश्विनी कुमार यादव आज भी वही ऊर्जा लेकर कहते हैं कि सलाखों के पीछे बिताए वे 19 महीने डर की नहीं, बल्कि लोकतंत्र के लिए जीने और खड़े रहने की प्रेरणा थे। उस दौर के न्यायाधीश का सल्यूट आज भी उनके मन में उतनी ही चमक से दर्ज है।
