आपातकाल की आपबीती:अंबिकापुर से उठी उम्मीद की मशाल

आपातकाल के उन कठिन दिनों में, जब देशभर में भय का साया गहरा चुका था और सत्ता का दमन लोकतंत्र की आत्मा को झकझोर रहा था, तब कुछ साहसी चेहरे ऐसे भी थे जिन्होंने जेल की अंधेरी कोठरियों में बैठकर जनमानस में उम्मीद की ज्योति जलाए रखी। अंबिकापुर के लोकतंत्र सेनानी असित भट्टाचार्य उन चुनिंदा योद्धाओं में से एक थे जिन्होंने सत्ता के अत्याचार के सामने कभी सिर नहीं झुकाया। उनके लिए राजनीति सत्ता प्राप्ति का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्र और समाज की सेवा का संकल्प थी।
आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का वह काला अध्याय है जिसने जनता की आवाज को दबाने और राष्ट्र को भय की गिरफ्त में लेने का प्रयास किया। इसी संकट के समय अंबिकापुर के युवा असित भट्टाचार्य ने सत्य, स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का संकल्प लेकर संघर्ष की राह चुनी।जेल की यातनाएँ झेलते हुए भी उन्होंने जनता के मन में जल रही उम्मीद की लौ को बुझने नहीं दिया।
असित भट्टाचार्य बताते हैं कि 1974 का छात्र आंदोलन मध्य प्रदेश और गुजरात में नई चेतना का आधार बना। शरद यादव के नेतृत्व में हो रहे इस आंदोलन की लपटें अंबिकापुर तक पहुँचीं। पुतला दहन, “सिंहासन छोड़ो, जनता आती है” जैसे नारों ने युवाओं में राष्ट्रभाव को और प्रबल किया। इसी दौरान गिरफ्तारियाँ शुरू हो गईं और आंदोलनकारियों पर पुलिस दमन बढ़ता चला गया।
उस समय युवा असित भट्टाचार्य शासकीय सेवा में थे, परंतु जब आंदोलन की ज्वाला भड़की तो उन्होंने नौकरी का मोह त्याग दिया और पूर्ण समर्पण के साथ संघर्ष में कूद पड़े। जेल यात्राएँ, पुलिस प्रताड़ना, पूरे परिवार पर संकट, पिता और भाइयों के तबादले-इन सबके बावजूद उनके कदम नहीं डगमगाए।रीवा सेंट्रल जेल और अंबिकापुर जेल में बिताए दिन उनके व्यक्तित्व को और अधिक दृढ़ बनाते गए।
जेपी से मुलाकात बनी जीवन का मोड़
उन्हें विशेष प्रेरणा तब मिली जब जबलपुर में उनकी भेंट जयप्रकाश नारायण से हुई। इस क्षण को वे अपने जीवन का निर्णायक मोड़ मानते हैं।जेपी आंदोलन की यह शपथ सरगुजा और अंबिकापुर में स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई जैसा वातावरण तैयार कर गई। वे बताते हैं कि नानाजी देशमुख, राजमाता विजयराजे सिंधिया, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे राष्ट्रपुरुषों के विचार उनके मन में गहराई तक उतर गए।
उनके राजनीतिक गुरु प्रभु नारायण त्रिपाठी और नानाजी देशमुख ने उनके भीतर जो संस्कार जगाए, उन्होंने संघर्ष को सेवा का स्वरूप दे दिया। लोकतंत्र की रक्षा के लिए शुरू हुआ यह सफर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता सरकार बनने तक जारी रहा।जनता पार्टी शासनकाल में सरगुजा क्षेत्र में संगठनात्मक कार्य और चुनाव संचालन की जिम्मेदारी भट्टाचार्य के कंधों पर रही।
सेवा का संकल्प आज भी अटूट
समय के साथ परिस्थितियाँ बदलीं, लेकिन देशसेवा का उनका संकल्प कभी कमजोर नहीं पड़ा।आज 74 वर्ष की आयु में भी असित भट्टाचार्य पूरी ऊर्जा के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए समर्पित हैं। स्वास्थ्य ने कई बार परीक्षा ली-एक किडनी तक निकालनी पड़ी-पर उनकी निष्ठा कभी नहीं डिगी।
लोकतंत्र सेनानी संघ के प्रदेश महामंत्री के रूप में वे लगातार सक्रिय हैं। सत्य, सेवा और संघर्ष को जन-जन तक पहुँचाने का उनका प्रयास निरंतर जारी है। सच्चिदानंद उपासने के नेतृत्व में लोकतंत्र रक्षक, लोकतंत्र सेनानी संघ छत्तीसगढ़ और लोकतंत्र प्रहरी जैसे संगठनों के माध्यम से वे आज भी लोकतांत्रिक परंपराओं को मजबूत करने में जुटे हुए हैं।
असित भट्टाचार्य का कहना है कि राजनीति का अर्थ अधिकार या सत्ता विस्तार नहीं, बल्कि राष्ट्र और समाज की सेवा है। आपातकाल ने उन्हें सिखाया कि यदि कोई विचार सच्चा हो, तो लोहे की सलाखें भी उसकी रोशनी को रोक नहीं सकतीं।
