आपातकाल की आपबीती श्रृंखला-20: मीसा की काल कोठरी के बाहर भी था अंधेरा

आपातकाल की आपबीती श्रृंखला-20: मीसा की काल कोठरी के बाहर भी था अंधेरा
X
विनोद दुबे

आपातकाल का अर्थ केवल गिरफ्तारी, मीसा और जेल की सलाखें नहीं था, बल्कि उन परिवारों का संघर्ष भी था, जिन्हें बिना अपराध केवल राष्ट्रभक्ति और संघ के प्रति समर्पण की कीमत चुकानी पड़ी। भोपाल के स्व. भालचंद्र विष्णु खांडेकर और उनके पिता विष्णु खांडेकर की गिरफ्तारी इसका करुण उदाहरण है। एक साथ पिता और पुत्र दोनों जेल में थे और घर पर बूढ़ी दादी, मां, दो भाई-बहन और नाबालिग स्मिता के कांपते हुए दिन आज भी उनकी स्मृतियों को भीतर तक भेद जाते हैं।

संस्मरण में आपातकाल के दिनों को याद करते हुए स्व. भालचंद्र विष्णु खांडेकर की छोटी बहन श्रीमती स्मिता खांडेकर शर्मा आज भी सिहर उठती हैं। वे बताती हैं कि पुलिस की बर्बरता चरम पर थी। संघ का स्वयंसेवक होना ही भालू का अपराध माना गया और मीसा की धाराओं में उन्हें जेल भेज दिया गया।

स्व. भालचंद्र विष्णु खांडेकर कम उम्र से ही संघ के समर्पित कार्यकर्ता थे। महज 12–13 वर्ष की आयु में वे श्रीराम शाखा का संचालन करने लगे थे। वे अपने लोकप्रिय नाम प्रदीपजी से अधिक जाने जाते थे। संघ के शारीरिक प्रमुख, विस्तारक, प्रचारक और बाद में सरस्वती शिशु मंदिर के आचार्य के रूप में वे लगातार सक्रिय रहे।

इतिहास संकलन समिति, सेवा भारती, बौद्धिक प्रमुख, क्षेत्र सेवा प्रमुख सहित अनेक दायित्वों का उन्होंने निर्वहन किया। वे सेवा भारती के मध्य भारत प्रांत के सचिव भी रहे। श्री खांडेकर वंचित एवं उपेक्षित वर्ग के लोगों की सीधी पहुंच रखते थे। झुग्गी-बस्तियों में लोकप्रिय थे तथा 100 से अधिक बस्तियों में उन्होंने स्वयं प्रवास किया।

पेशे से वे दवा कंपनी में चिकित्सा प्रतिनिधि और फिर क्षेत्रीय प्रबंधक थे, पर जीवन का बड़ा हिस्सा उन्होंने संघ कार्य को समर्पित कर दिया। संघ उनकी आत्मा में और उनकी आत्मा संघ में बसती थी। वे कहते थे, “संघ अपने खून में होना चाहिए।”

आपातकाल लगते ही पुलिस प्रदीपजी को लगातार तलाश रही थी। एक दिन घर पर नहीं मिलने पर पुलिस उनके पिता स्व. विष्णु महादेव खांडेकर को पकड़कर थाने ले गई। सरकारी सेवक होने के कारण पिता के प्रति पुलिस का व्यवहार और भी कठोर था। पिता को छुड़ाने के लिए प्रदीपजी स्वयं थाने पहुंचे और गिरफ्तारी दी। पुलिस ने उस समय पिता स्व. विष्णु जी को छोड़ तो दिया, पर कुछ ही दिन बाद उन्हें फिर से थाने बुलवाया और तीन दिन तक पूछताछ के बाद उन्हें भी मीसा में जेल भेज दिया। पिता-पुत्र दोनों की गिरफ्तारी के बीच का यह समय परिवार के लिए जानलेवा तनाव का दौर था।

श्रीमती स्मिता बताती हैं कि पिता की गिरफ्तारी की रात वे थर-थर कांप रही थीं। पुलिस का व्यवहार ऐसा था कि कोई भी बच्चा डर से सुन्न हो जाए। घर पर दादी, मां, दो बहनें और छोटे भाई थे। मां सरकारी शिक्षिका थीं, इसलिए आर्थिक संकट नहीं आया, पर मानसिक और सामाजिक यातनाएं बेहद भारी थीं। पुलिस बार-बार घर आती, सवाल करती और घर का वातावरण भय, चिंता और अपमान से भर जाता।

जेल में बंद भालचंद्र जी को विष्णु जी की गिरफ्तारी का पता तब चला जब परिवार मुलाकात के लिए जेल पिता पहुँचा। दोनों एक ही जेल में थे, पर अलग बैरकों में। परिजनों को दोनों से मिलने के लिए कई दिनों तक कलेक्ट्रेट के चक्कर लगाने पड़े। कई बार अनुमति मिलने की उम्मीद में पूरा परिवार घंटों खड़ा रहता था।

इन कठिन दिनों में संघ के पदाधिकारी भी घर पर सहयोग के लिए पहुंचे। पर मां ने विनम्रता से कहा कि हमारे यहां चिंता की जरूरत नहीं है। आप उन परिवारों की मदद करें जिनके घरों में आर्थिक तंगी है। यह ममतामयी परंतु दृढ़ उत्तर परिवार के संस्कारों का प्रमाण था।

आखिरकार चुनावों की घोषणा के बाद आपातकाल समाप्त हुआ और पिता-पुत्र दोनों जेल से रिहा हुए। पर स्मिता आज भी कहती हैं कि मीसा की जेल की सलाखों से ज्यादा कष्ट परिवार ने जेल के बाहर झेले। यह कथा केवल मीसा बंदी की नहीं, बल्कि उन अनगिनत परिवारों की है जिन्होंने लोकतंत्र बचाने की कीमत अपने आंसुओं और साहस से चुकाई।

Next Story