वंशवाद : किसका नाम लिया जाए और किसका छोड़ा जाए...

जयंत तोमर
अजित पवार अपने चाचा शरद पवार से पूछ रहे हैं - क्या यह मेरी गलती है कि किसी और का बेटा हूँ? आप तिरासी साल के हो गये हैं, (कब तक सारे निर्णय खुद करेंगे?), मैं पांच बार उपमुख्यमंत्री रहा, अब मुख्यमंत्री भी बनना चाहता हूँ।
उधर शरद पवार कह रहे हैं - आपका काम मेरे फोटो और चुनाव चिन्ह के बिना नहीं चलेगा।
भारतीय राजनीति का यह प्रहसन देश में गहरी जड़ें जमा चुके परिवारवाद को ही बयान नहीं करता, वल्कि वंशवाद के प्रति विकट मोह को भी दर्शाता है। देश की राजनीति से लेकर प्रांत, और प्रांत से लेकर जिले तक परिवार और वंशवाद की राजनीति का बोलबाला है।
जिन नायकों ने इस मिथक को तोड़ा था वे भी अंत में वहीं पहुंचे।
कुछ अपवाद छोड़ भी दें तो ऐसा लगता है कि देश की जनता में भी जाति के साथ-साथ परिवार और वंशवाद के प्रति गहरा लगाव और झुकाव है।
राजनीतिज्ञों के बेटा- बेटियों को भी बहुत कम उमर में यह समझ में आ जाता है कि अंत में तो सब कुछ उन्हीं को बिरासत में मिलना है, बाकी सब तो फर्श बिछाने वाले हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के रहते लालबहादुर शास्त्री से पूछा गया था कि नेहरूजी के बाद प्रधानमंत्री कौन बन सकता है। शास्त्री जी ने जवाब दिया था - योग्य लोगों की कमी नहीं है, लेकिन पंडितजी के मन में तो उनकी बेटी ही है। हाल में जब प्रियंका गाँधी जबलपुर आयीं तो जनसभा में 'नेहरू, इंदिरा, राजीवÓ तक सीमित रहीं।
प्रणब मुखर्जी जब राष्ट्रपति बने तब उन्होंने भी यही किया था। जैसे देश में और कोई नायक ही न हुए हों। दर- असल स्वतंत्र भारत के नागरिक के रूप में हम सब बेहद डरपोक लोग हैं। किनके सामने किनका नाम लेना है और किनका नहीं लेना है, इस बारे में बेहद सचेत रहते हैं। धारा के प्रतिकूल चल रहे लोगों के साथ बहुत बाद में खड़े होते हैं जब उनके पराक्रम की पूरी परीक्षा हो जाती है।
विश्लेषण का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि अजित पवार और प्रफुल्ल पटेल ने जो किया उसका समर्थन किया जाये। बल्कि प्रश्न यह है कि शरद पवार को अपनी बेटी सुप्रिया सुले के अलावा किसमें सम्भावना नजर आती है।
पूरे देश का यही हाल है। किसका नाम लिया जाये और किसका छोड़ा जाये।
राजनीति में जाति चलेगी, पैसा चलेगा, परिवारवाद चलेगा, वंशवाद चलेगा।
वैकल्पिक राजनीति करने वाले फिर भी आते रहेंगे। वे चाहे अंदर से आयें या बाहर से। हाँ, वे भागवत कथा, भंडारा करते या रथयात्रा निकालते नहीं दिखाई देंगे। वे सड़कों पर देश की साधारण जनता की लड़ाई अपनी सामर्थ्य से लड़ते दिखाई देंगे। नागरिक समुदाय की दृष्टि उन पर जाये या न जाये।
