तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को मिला दहेज और मेहर के सामान वापस लेने का अधिकार, इस विषय पर फिर से चुप्पी

भारत में एक बहुत ही बड़ा वर्ग ऐसा है जो लगातार यह कहता है या कहें यह शिकायत करता रहता है कि भारत में मुस्लिम महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा है और उनकी सुनवाई नहीं होती है। भारत में मुस्लिम महिलाओं पर पाबंदियां हैं आदि आदि! मुस्लिम महिलाओं को शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने की आजादी नहीं हैं, जैसी बातों पर तमाम तर्क और बहसें होती रहती हैं। और चर्चाओं में भी यही बातें रहती हैं।
परंतु क्या जिसका शोर मचता है वही सच होता है या फिर जो सच होता है उसका शोर नहीं होता? यह एक और प्रश्न है, क्योंकि पिछले कुछ समय से न केवल केंद्र सरकार बल्कि न्यायालयों से भी मुस्लिम महिलाओं के लिए कई ऐसे आदेश या कहें निर्णय आ रहे हैं, जो मुस्लिम समाज की महिलाओं को सशक्तिकरण प्रदान कर रहे हैं। मगर उनपर चर्चा न के बराबर होती है। उन्हें कहीं न कहीं अंधकार में धकेल दिया जाता है, जैसे अभी तक मुस्लिम महिलाओं को धकेला जा रहा था, क्या इस कारण कि कहीं उनके कारण मुस्लिम महिलाएं सदियों की गुलामी से बाहर न आ जाएं? और सबसे बढ़कर महिला विमर्श के ठेकेदारों की चुप्पी भी इन मामलों में संदेहास्पद रहती है।
ऐसा ही एक निर्णय 2 दिसंबर 2025 को आया। यह निर्णय मुस्लिम महिलाओं के लिए एक मील का पत्थर है और यह उनके तमाम अधिकारों की बात करता है।
क्या है इस निर्णय में?
2 दिसंबर को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए कहा कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) एक्ट, 1986 के तहत शादी के समय अपने पति द्वारा अपने पिता से लिए गए कैश और सोने के गहने वापस पाने की हकदार है। अर्थात जो सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है, वह कानून के अंतर्गत ही दिया है, अर्थात कानून भारत में मौजूद हैं। तो फिर वह कौन लोग हैं, जो मुस्लिम महिलाओं को उनके हकों से मरहूम करते हैं? और जो लोग मुस्लिम महिलाओं को उनके हकों से मरहूम करते हैं, उनके खिलाफ क्या कोई विमर्श तैयार होता है? यदि नहीं तो कथित महिला आजादी की ठेकेदार महिलाएं ऐसा क्यों नहीं करती हैं?
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कलकत्ता उच्च न्यायालय का निर्णय पलट दिया। इस निर्णय में एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के उस दावे को निरस्त कर दिया गया था, जो उसने अपने सात लाख रुपयों और शादी के रजिस्टर (काबिलनामा) में दर्ज किए गए उन गहनों पर किया था, जो उसे उसके मायके से मिले थे। इस मुस्लिम महिला का निकाह वर्ष 2005 में हुआ था। वे लोग वर्ष 2009 में अलग हो गए थे और 2011 में उनका तलाक हुआ था। उसके बाद उसने 1986 एक्ट के अंतर्गत 17.67 लाख रुपए के लगभग राशि वापस मांगी थी। जिसे कलकत्ता हाईकोर्ट ने नहीं माना था। महिला का कहना था कि यह राशि जिसमें गहने और सोना भी शामिल है, उसे तोहफे में मिला है। मगर हाईकोर्ट ने उसके शौहर को कुछ राहत दी थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने कलकत्ता हाईकोर्ट का निर्णय बदल दिया। लाइव लॉ के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय ने 1986 एक्ट की धारा 3 का मतलब बताते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि शादी के समय दी गई प्रॉपर्टी, जैसा कि 1986 एक्ट की धारा 3(1)(d) के तहत सोचा गया, तलाकशुदा महिला के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए है और कोर्ट को ऐसा मतलब निकालना चाहिए, जो इस सुरक्षा के इरादे को पूरा करे। धारा 3(1)(d) के अनुसार, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला "शादी से पहले या शादी के समय या शादी के बाद उसके रिश्तेदारों या दोस्तों या पति या पति के किसी रिश्तेदार या उसके दोस्तों द्वारा दी गई सभी प्रॉपर्टी की हकदार है।"
और न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि अपीलकर्ता महिला के खाते में सीधे ये रकम जमा करे और यदि इसका पालन नहीं किया जाता है तो 9% सालाना ब्याज लगेगा। अर्थात सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम महिलाओं को यह अधिकार दिया कि वह मेहर/दहेज और शादी के बाद मिले हुए तोहफों को तलाक के बाद वापस ले सकती है।
मुस्लिम महिलाओं को लेकर आए कई निर्णयों पर कथित बौद्धिक वर्ग की चुप्पी आश्चर्यजनक
ऐसा नहीं है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में आए हुए इस निर्णय के प्रति ही कथित बौद्धिक विमर्श में चुप्पी पसरी है, ऐसा हर उस मामले में होता है, जिसमें मुस्लिम महिलाओं का कुछ भला शामिल होता है। जैसे कि अभी हाल ही में मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाली सबसे क्रूर प्रक्रिया अर्थात खतना को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और अन्य संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किए। यह याचिका इस समुदाय में प्रचलित महिलाओं के खतने पर प्रतिबंध को लेकर थी।
मगर इस नोटिस पर भी चर्चा न के बराबर हुई है।
ऐसे में प्रश्न कथित बौद्धिक तबके पर उठता है कि आखिर वे मुस्लिम महिलाओं के प्रति इस सीमा तक क्रूर क्यों हैं कि उनके पक्ष में बातें करने से हिचकते हैं, वे उनकी पीड़ाओं की ओर से आँखें तो मूँदते ही हैं, सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि यदि कोई लड़की अपने अधिकार के लिए न्यायालय की सीढ़ियों पर जाती है तो भी वे लोग उस पर लिखने और कहने से बचते हैं। शाहबानो का मामला इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, कि कैसे एक मुस्लिम महिला के अधिकार कट्टरता के अंधकार में तो चले ही गए, शाहबानो की पीड़ा को किसी भी कथित उदारवादी बौद्धिक ने लिखना उचित न समझा!
