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राजनीति के बदलते दौर में भ्रष्टाचार बना राजयोग

राजनीति के बदलते दौर में भ्रष्टाचार बना राजयोग
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गिरीश्वर मिश्र

भारत की जनता में सहते रहने की अदम्य शक्ति है और वह सबको अवसर देती है कि वे अपने वादों और दायित्वों के प्रति सजग रहें परंतु जनप्रतिनिधि होने पर भी ज्यादातर राजनेता जन-प्रतिनिधित्व के असली काम को संजीदगी से नहीं लेते हैं । चुनावी सफलता पाने के बाद वे यथाशीघ्र और यथासंभव सत्ता भोगने के नुस्खे आजमाने लगते हैं । ऐसे में जन-सेवा का वह संकल्प और जज़्बा एक ओर धरा रह जाता है जो धूमिल रूप में ही सही उनके मन कभी तैर रहा होता था । दर असल वे एक व्यापारी की तरह सोचने और काम करने लगते हैं । बिगड़ैल काल देवता से भयभीत वे राजनीति के व्यवसाय से (अपने लिए) समयबद्ध ढंग से अधिकाधिक धन-धान्य या समृद्धि उगाहने में दत्तचित्त जुट जाते हैं । पर आगे क्या हो सकता है इसका दर्दनाक उदाहरण पश्चिम बंगाल में जेलबंद शिक्षा मंत्री और उनके सहयोगियों से मिलता है।

जिस तरह शिक्षक नियुक्ति के मामले में करोड़ों रुपयों के गम्भीर आर्थिक घोटालों का पता चल रहा है और हजारों की संख्या में नियुक्ति पा चुके शिक्षकों को उच्च न्यायालय के आदेश द्वारा नौकरी से मुक्त किया जा रहा है वह स्वतंत्र भारत के राजनैतिक और शैक्षिक इतिहास में नायाब है । तेजतर्रार, लोकप्रिय और खुद को लोकसंग्रह को समर्पित कहने वाली मुख्यमंत्री की नाक तले इतना कुछ विधिवत अनियमितता के साथ कैसे होता रहा यह घोर आश्चर्य का विषय है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि राजनीति के खिलाड़ी अहंकार में डूब कर कुछ भी करने को स्वतंत्र मान बैठते हैं । वे यह भूल जाते हैं कि समाज के स्तर पर इसके कितने दूरगामी परिणाम होंगे। वे जाने-अनजाने अच्छे-बुरे विचारों, व्यवहारों और मूल्यों के बीज बोते चलते हैं। वे आचरण और सफलता के न केवल मानक स्थापित करते हैं बल्कि उसका अपने उदाहरण के साथ उसका निदर्शन भी जनता के सामने पेश करते चलते हैं । छोटे बड़े नेता समाज के सामने एक माडल के रूप में आते हैं । प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की बेहद प्रभावी उपस्थिति से वे समाज के बड़े हिस्से को अपने असर में ले लेते हैं । वे अपनी चाल-ढाल, वेश-भूषा और बात-व्यवहार से सफलता की मंजिल तक रहे (बेहिसाब) बेरोजगार भारतीय युवा वर्ग (ब्रिगेड) को जायज नाजायज किसी भी तरह से काम कराने के लिए संदेश देते हैं । उपाय (साधन) कुछ भी हो चलेगा, शर्त इतनी होती है कि उससे मनोवांछित लक्ष्य (साध्य) की प्राप्ति (सिद्धि) किसी भी तरह जरूर सुनिश्चित हो सके। इस क्रम में परिवार, क्षेत्र, जाति, धर्म और भाषा जैसे सरोकार भी दावेदार होते हैं । इनमें से किसका कितना जोर चलेगा यह उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करता है । यह बड़ा ही दुखद है कि सेवा-धर्म के साथ शुरू हुई राजनीति ने जो अपना कलेवर बदलना शुरू किया तो अब उसका कोई अंत ही दृष्टि में नहीं आता । बाहु-बल, अपराध और धन-बल के बढ़ते गंठजोड के फलस्वरूप माफिया भी सांसद हो जाते हैं और सरकारें भी उन पर मेहरबान रहती हैं । आज राजनीति में योग्यता और सेवा का प्रश्न गौण हो रहा है। इसकी जगह जन-संबंध, लोकप्रियता और सम्पर्क-शक्ति को तरजीह दी जाती है। इनसे भी ज्यादा पारिवारिक पृष्ठभूमि और आर्थिक औकात को महत्व मिलता है । ऐसा आदमी ठीक नेता कहा जाता है जो जनता में अपना दबदबा बनाए रखे। यह याद रखना होगा कि स्वास्थ्य, कानून, प्रौद्योगिकी और शिक्षा जैसे तकनीकी क्षेत्रों में ज्ञान तथा कौशल की विशेषज्ञता का कोई विकल्प नहीं होता है। राजनैतिक दबाव में इसकी भी बुरी तरह उपेक्षा होने लगने लगी है। कोशिश यही रहती है कि यथाशक्ति अपना, अपने भरोसे का, अपनी जाति बिरादरी का, अपनी विचारधारा का या फिर किसी तरह से (आर्थिक या अन्य) लाभ पहुंचाने वाले आदमी को मौका दिया जाए। बिहार और बंगाल में सरकारी भर्तियों में 'कैश या काइंडÓ में लाभ लेकर नौकरी देने की सरकारी नीति के उपयोग के जो मामले उभर कर सामने आ रहे हैं वे आंख खोल देने वाले हैं। इन सब में सत्ता का जबर्दस्त दुरुपयोग किया गया है और आंख मूंद कर अवैध कमाई की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता । अपने आदमियों को (ही) भरने के दुराग्रह के तात्कालिक लाभ दिखते हैं और कुछ (अवांछित) लोगों को नौकरी और अन्य लाभ भी मिल जाते हैं । उन लोगों से दल विशेष को लाभ भी मिल सकता है परन्तु अंतत: उस तरह का निवेश सामाजिक अन्याय का ही रूप लेगा । यदि और जगहों की खोज खबर ली जाए तो इस तरह की और गड़बड़ियां भी ज़रूर मिलेंगी जहां विभिन्न पदों पर धन ले कर नियुक्तियां हुई हैं। राजनैतिक संस्कृति का अनिवार्य अंश बनता जा रहा सीमित स्वार्थ का विषाणु राजरोग की तरह जीवन के अनेक क्षेत्रों को बुरी तरह संक्रमित करता जा रहा है और कार्य संस्कृति को बाधित कर रहा है । लोगों को लग रहा है कि राजनीति की इस टेढ़ी चाल से शिक्षा की व्यवस्था और प्रशासन की प्रणाली ध्वस्त होती जा रही है । आमजनों का विशेष कर युवा वर्ग का अपनी योग्यता, क्षमता, परिश्रम और ईमानदारी पर से भरोसा उठता जा रहा है। ऐसा करते हुए नेतागण यह भूल जा रहे हैं कि पूर्वाग्रह के आधार पर भेद-भाव की नीति के साथ प्रजातंत्र की गाड़ी ज्यादा आगे नहीं जा सकती। इस तरह की असमानताओं को प्रकट और प्रच्छन्न रूप से लागू करना समाज के प्रति अक्षम्य अपराध होगा जिसका लाभ किसी को नहीं होने वाला है । सत्ता में आने के पहले राजनेता चुनावी दंगल में एक व्यापक दृष्टि के साथ सामने आते हैं और अचानक जादू का पिटारा खुलने लगता है । एक के बाद एक वायदे किए जाते हैं। मतदाता को संतुष्ट करने का कोई दांव नहीं छोड़ा जाता है। ऐसा करते हुए अक्सर सरकारी खजाने की हालत को नजरअन्दाज करने से किसी को कोई गुरेज नहीं होती है। कर्नाटक के हालिया चुनाव में मतदाताओं के विभिन्न वर्गों को संतुष्ट करना सफलता पाने की मुख्य युक्ति थी। यह करने के लिए सिलेंडर देवता का पूजन, पुरानी पेंशन योजना को लागू करना और अनेक स्थानीय मुद्दों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता से मतदाता को रिझाया गया। साथ ही जाति, धर्म और क्षेत्र की सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ लगाव भी मतदान पर हावी रहा। उल्लेखनीय है कि पुराने मंत्रिमंडल के एक दर्जन मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा। यह तथ्य उनकी कार्य-निपुणताओं को प्रश्नांकित करता है । चुनाव परिणामों द्वारा जनता ने यह संदेश भी दिया है कि उसकी सहनशीलता की भी सीमा होती है और बहुत समय तक परीक्षा लेते रहना ना इंसाफी है। आम जनता के सुख दु:ख, समस्य-समाधान के मसले, आम तौर पर, सिर्फ सतही ढंग से ही राज नेताओं के ध्यान में आ पाते हैं । अक्सर बड़े नेताओं के सहयोगी दलाल या प्रतिनिधि जनता की मनस्थिति की उभरने वाली समझ की मध्यस्थता करते हैं । जनता से सीधा सम्पर्क न होने से यह समझ आधी-अधूरी ही नहीं होती अपितु तथ्यों को भी तोड़-मरोड़ कर पेश करती है ।

(लेखक शिक्षाविद हैं)

Updated : 24 May 2023 8:44 PM GMT
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City Desk

Web Journalist www.swadeshnews.in


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