संविधान बनाम मनुस्मृति: राजनीतिक विमर्श और भारत की धार्मिक परंपराएँ …

प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल: बिहार चुनाव के ठीक पहले संविधान बनाम मनुस्मृति का मुद्दा एक गरमाने की कोशिश की गई है। वस्तुतः यह कोई वास्तविक मुद्दा है ही नहीं; मनुस्मृति कालबाह्य है और इसे लागू करने के बारे में केवल वही सोच सकता है जो सनातन धर्म व्यवस्था को नहीं जानता। वास्तविक मुद्दा तो यह है कि 1975 में जबरदस्ती संविधान में "सेकुलरिज्म" और "सोशलिस्ट" शब्द जोड़े गए और इस की याद दिलाते ही राहुल गांधी सहित समूची कांग्रेस तिलमिला गई है।
संविधान के शिल्पी बाबासाहेब डॉक्टर आंबेडकर को लोकजीवन के नियमन के लिए धर्म या धम्म अत्यंत प्रिय था, और उन्होंने धम्मदीक्षा ग्रहण करने के बाद यह कहा भी था कि "मेरा समस्त जीवन धम्म देशना के लिए है।" जहाँ तक भारत की सनातन धर्म परंपरा में संविधान की स्वीकृति की बात है, बहुसंख्यक हिंदू ने संविधान का न केवल आत्मार्पण किया है, बल्कि आत्मसात भी किया है। यह देश न तो कभी मनुस्मृति से चला था और न शरिया की मनोवृत्ति से चलेगा।
किन्तु यह भी सच है कि "सेकुलरिज्म" और "सोशलिस्ट" जैसे शब्द संविधान की प्रस्तावना में डालकर संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ की गई, और यह सब अभारतीय वामपंथ के दबाव में हुआ। संविधान और मनुस्मृति के बीच की बहस व्यर्थ का वितंडा है। एक ऐसा परिदृश्य निर्मित करने की कोशिश की जा रही है कि यदि "सेकुलर" और "सोशलिस्ट" शब्द हटा दिए गए तो भारत में पांथिक राज्य की स्थापना हो जाएगी।
यह सब 1975 में हुए उस असंवैधानिक संविधान संशोधन के बचाव में है जिसने संविधान की प्रस्तावना ही बदल डाली। बाबा साहब ने "सेकुलर" और "सोशलिस्ट" दोनों शब्द संविधान में नहीं रखे थे क्योंकि ये दोनों अवधारणाएँ धर्म विरोधी हैं और धर्मविहीन भौतिकवादी जीवन दृष्टि का प्रतिपादन करती हैं। भारत का मूल स्वभाव "सर्वधर्म समभाव" और धार्मिक सहिष्णुता है जो भारत की धर्म परंपरा में विविध स्मृतियों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
धार्मिक बहुलता को स्वीकार करते हुए मनुष्य की रुचि के अनुसार अपना धर्म चुनने की स्वतंत्रता भारत का ऐतिहासिक सत्य है। यह वेदों में प्राप्त होता है, तो अशोक के शिलालेखों में भी। महान गुप्त साम्राज्य भी अपनी धार्मिक सहिष्णुता और "सर्वधर्म समभाव" की राजकीय दृष्टिका का प्रतिपादक रहा है। भारत के दक्षिणी भाग में संगम साहित्य के काल से लेकर विजयनगर साम्राज्य तक सर्वत्र यह देखा गया है कि "सर्वधर्म सम्भाव" और सहिष्णुता राज्य का मौलिक सिद्धांत रहा है।
स्वयं गांधी "हिंद स्वराज" में भारत को एक धर्माधारित राष्ट्र के रूप में देखते हैं। धर्म कोई एक उपासना पद्धति नहीं है; धर्म में विभिन्न प्रकार की उपासना पद्धतियाँ संभव हैं, परंतु मूल में धर्म केवल और केवल मानव मूल्य, लोककल्याण, सत्य और करुणा पर आधारित जीवन प्रणाली है। इंग्लैंड में "सेकुलर" और रूस में "सोशलिस्ट" शब्द का प्रयोग राष्ट्र और समाज दोनों को भौतिकवादी बनाने के लिए किया गया था, जो वस्तुतः धर्म विरोधी अधार्मिक इहलौकिकता है।
मनुस्मृति भारत में लिखी गई सैकड़ों स्मृतियों में से केवल एक स्मृति मात्र है, जो हजारों वर्ष से हिंदू धर्म परंपरा में अप्रभावी है। इसलिए मनुस्मृति को लेकर की जा रही बयानबाजी तुष्टीकरण को बढ़ाने और समान नागरिक व्यवस्था के निर्माण के प्रयासों को बाधा पहुँचाने की कोशिश है।
लेखक तुलनात्मक धर्म दर्शन के आचार्य और पूर्व कुलपत
