मजहब बदलने से पुरखे, मातृभूमि व संस्कृति नहीं बदलती

प्रणय कुमार
औरंगजेब और टीपू को लेकर महाराष्ट्र में चल रहा तनाव एवं संघर्ष थमने का नाम नहीं ले रहा है। अहमदनगर, कोल्हापुर, नवी मुंबई, बीड़, नासिक के बाद अब लातूर में भी सोशल मीडिया पर औरंगजेब की तस्वीर को स्टेटस में लगाने की बात सामने आई है। कट्टर और मतांध शासकों एवं मजहबी आक्रांताओं पर गर्व करने की बात कोई नई नहीं है, ऐसी सोच समाज के कट्टरपंथी तत्वों में प्राय: देखने को मिलती है। वस्तुत: समस्या के मूल कारणों और उसके पीछे की मानसिकता को समझे बिना उसका समाधान संभव नहीं। पृथक पहचान एवं मज़हबी कट्टरता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल, संगठन एवं कुफ्र-काफिर दर्शन में विश्वास रखने वाले तमाम उलेमा-मौलवी एवं उनके अनुयायी, जहां औरंगजेब, टीपू जैसे शासकों एवं अन्य मजहबी आक्रांताओं को नायक की तरह पेश करते हैं, वहीं दूसरी ओर देश के अधिसंख्य जन इन्हें खलनायक की तरह देखते हैं। अतीत के किसी शासक को नायक या खलनायक मानने के पीछे ऐतिहासिक स्रोतों एवं साक्ष्यों के अलावा जनसाधारण की अपनी भी एक दृष्टि होती है। मजहबी मानसिकता से ग्रसित कट्टरपंथी लोग, क्षद्म पंथ निरपेक्षतावादी, बुद्धिजीवी एवं कथित इतिहासकार मुस्लिम आक्रांताओं, मुगलों या औरंगजेब एवं टीपू जैसे शासकों को लेकर भले ही कुछ भिन्न दावा करें, परंतु आम धारणा यही है कि ये सभी क्रूर, बर्बर, मतांध, अत्याचारी एवं आततायी थे। ऐतिहासिक साक्ष्य एवं विवरण भी इसकी पुष्टि करते हैं।
मुगलों का महिमामंडन एवं यशोगान करने वाले लोग क्या नहीं जानते कि मुहम्मद बिन कासिम, गजनी, गोरी, खिलजी, तैमूर, नादिर, अब्दाली की तरह वे (मुगल) भी विदेशी आक्रांता थे। उन्होंने सदैव भारत से विलग अपनी पृथक पहचान को न केवल जीवित रखा, अपितु बढ़ा-चढ़ाकर उसे प्रस्तुत भी किया? उनका हृदय भारत से अधिक, जहां से वे आए थे, वहां के लिए धड़कता था। उन्होंने भारत से लूटे गए धन का बड़ा हिस्सा समरकंद, खुरासान, दमिश्क, बगदाद, मक्का, मदीना जैसे शहरों एवं वहां के विभिन्न घरानों एवं इस्लामिक खलीफा पर खर्च किया। वे स्वयं को तैमूरी या गुरकानी राजवंश से जोड़कर देखते थे। जिस तैमूर ने तत्कालीन विश्व की लगभग 5 प्रतिशत आबादी का कत्लेआम किया, जिसने दिल्ली में लाखों निर्दोष हिंदुओं का अकारण ख़ून बहाया, वे उससे जुड़ा होने में गौरव का अनुभव करते थे। भारत आने के पीछे भी उनका कोई महान उद्देश्य न होकर लूट-खसोट की भावना ही प्रबल थी। यहां बसने के पीछे भी उनका मकसद ऐशो-आराम की जिंदगी बसर करना और अपनी तिजोरी भरना ही रहा, न कि कतिपय बुद्धिजीवियों-इतिहासकारों, फिल्मकारों के शब्दों में कथित तौर पर भारत का निर्माण करना। बल्कि सच्चाई तो यह है कि बाबर भारत और भारतीयों से इतनी घृणा करता था कि मरने के बाद उसने स्वयं को भारत से बाहर दफनाए जाने की इच्छा प्रकट की थी। अधिकांश मुगल बादशाह अत्यंत व्यसनी, विलासी एवं मतांध रहे। नैतिकता, चारित्रिक शुचिता एवं आदर्श जीवन-मूल्यों के पालन की कसौटी पर वे भारत के परंपरागत राजाओं की तुलना में पासंग बराबर भी नहीं ठहरते। राजकाज, सुशासन एवं सुव्यवस्था से अधिक वे अपने अजब-गजब फैसलों, तानाशाही फरमानों एवं भोग-विलास के अतिरेकी किस्सों के लिए याद किए जाते हैं।
बहादुरशाह जफर जैसे चंद अपवादों को छोड़कर अधिकांश मुगल आक्रांता मजहबी कट्टरता में आकंठ डूबे रहे। बहुसंख्यकों पर उन्होंने बहुत ज़ुल्म ढाए। जहां तक औरंगजेब की कट्टरता एवं मतांधता की बात है तो उसे दर्शाने के लिए 9 अप्रैल 1669 को उसके द्वारा जारी राज्यादेश पर्याप्त है, जिसमें उसने सभी हिंदू मंदिरों एवं शिक्षा-केंद्रों को नष्ट करने के आदेश दिए थे। इस आदेश को काशी-मथुरा समेत उसकी सल्तनत के सभी 21 सूबों में लागू किया गया था। औरंगजेब के इस आदेश का जिक्र उसके दरबारी लेखक मुहम्मद साफी मुस्तइद्दखां ने अपनी किताब 'मआसिर-ए-आलमगीरीÓ में भी किया है। 1965 में प्रकाशित वाराणसी गजेटियर के पृष्ठ-संख्या 57 पर भी इस आदेश का उल्लेख है। इतिहासकारों का मानना है कि इस आदेश के बाद गुजरात का सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, अमदाबाद का चिंतामणि मंदिर, बीजापुर का मंदिर, वडनगर का हथेश्वर मंदिर, उदयपुर में झीलों के किनारे बने 3 मंदिर, उज्जैन के आसपास के मंदिर, चित्तौड़ के 63 मंदिर, सवाई माधोपुर में मलारना मंदिर, मथुरा में राजा मानसिंह द्वारा 1590 में निर्माण कराए गए गोविंद देव मंदिर समेत देश भर के सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर ध्वस्त करा दिए गए। मजहबी जिद में उसने हिंदुओं के त्योहारों एवं धार्मिक प्रथाओं को भी प्रतिबंधित कर दिया था। 1679ई. में उसने हिंदुओं पर जजिया लगा, उन्हें दोयम दज़ेर् का नागरिक या प्रजा बनकर जीने को विवश कर दिया। यह अत्यंत अपमानजनक कर होता था, जिसे वे गैर-मुसलमानों से जबरन वसूला करते थे। औरंगज़ेब ने तलवार या शासन का भय दिखाकर बड़े पैमाने पर हिंदुओं का कन्वर्जन करवाया। इस्लाम न स्वीकार करने पर निर्दोष एवं निहत्थे हिंदुओं का क़त्लेआम करवाने में भी कोई संकोच नहीं किया। मजहबी सनक में उसने गुरु तेगबहादुर और उनके तीन अनुयायियों भाई मति दास, सती दास और दयाल दास को अत्यंत क्रूरता एवं निर्दयता के साथ मरवा दिया। गुरुगोविंद सिंह जी के साहबजादों को जिंदा दीवारों में चिनवा दिया, संभाजी को अमानुषिक यातनाएं दीं। इन सबके बावजूद यदि स्वतंत्र भारत में बार-बार औरंगजेब या टीपू सुल्तान को एक समुदाय अपने आदर्श या नायक की तरह प्रस्तुत करेगा तो इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है, जो महाराष्ट्र के अनेक शहरों में अभी हाल ही में देखने को मिला। समरस समाज के लिए 'गजवा-ए-हिंदÓ जैसे काल्पनिक स्वप्न एवं कट्टरपंथी मानसिकता का परित्याग वर्तमान की आवश्यकता है। जिन इस्लामिक शासकों या आक्रांताओं के चरित्र बहुसंख्यक प्रजा पर अन्याय एवं अत्याचार ढाने को लेकर इतिहास में कलंकित रहे हों, उन पर गर्व करने से परस्पर अविश्वास एवं संघर्ष ही उत्पन्न होगा। औरंगजेब और टीपू जैसे कट्टर शासकों को नायक के रूप में स्थापित करने या जोर-जबर्दस्ती से बहुसंख्यकों के गले उतारने की कोशिशों की बजाय मुस्लिम समाज द्वारा रहीम, रसखान, दारा शिकोह, बहादुर शाह जफर, अशफाक उल्ला खां, खान अब्दुल गफ्फार खान, वीर अब्दुल हमीद एवं ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे साझे नायकों और चेहरों को सामने रखा जाए तो समाज में भाईचारा बढ़ेगा और टकराव की संभावना भी कम होगी। इससे सहिष्णुता की साझी संस्कृति विकसित होगी। कट्टर शासकों या आक्रांताओं में नायकत्व देखने व ढूंढने की प्रवृत्ति अंतत: समाज को बांटती है। यह जहां विभाजनकारी विषबेल को सींचती है, वहीं अतीत के घावों को कुरेदकर उन्हें गहरा एवं स्थायी भी बनाती है। अच्छा होता कि भारत का उदार एवं प्रबुद्ध मुस्लिम समाज एवं नेतृत्व ऐसे चरित्रों एवं चेहरों को इतिहास में दफन करके उन पर गर्व करने की मनोवृत्ति एवं मानसिकता पर अंकुश व विराम लगाता। क्योंकि यह सर्वमान्य सत्य है कि भारत में आज जो मुसलमान हैं, उनमें से अधिकांश के पूर्वज भी इन मज़हबी आक्रांताओं, क्रूर एवं कट्टर शासकों के अन्याय-अत्याचार से पीड़ित होकर ही मतांतरित हुए थे। इसे मानने में ही सबकी भलाई है कि मज़हब बदलने से पुरखे, मातृभूमि व संस्कृति नहीं बदलती। (लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार)
