अंग्रेजी शासन की जड़ें हिलाने वाले अद्भुत योद्धा चन्द्रशेखर आजाद

रमेश शर्मा
चंद्र शेखर आजाद महान क्राँतिकारी एक ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे कि उन्होंने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारत के संपूर्ण क्राँतिकारी आँदोलन कारियों को एकजुट किया तथा बंगाल से पंजाब तक अंग्रेजी शासन की जड़ें हिला दीं। उनका जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के अंतर्गत ग्राम भावरा में हुआ था। पिता सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी के परिवार ने 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों का दमन झेला था। वह सामूहिक दमन था, गाँव के गाँव फाँसी पर चढ़ाये गये थे। अंग्रेजों के इस दमन की परिवार में अक्सर चर्चा होती थी। बालक चन्द्रशेखर ने इस दमन की कहानियाँ बचपन से सुनी थीं। इस कारण उनके मन में अंग्रेजी शासन के प्रति एक वितृष्णा का भाव जागा था, उन्हें गुस्सा आता था अंग्रेजों पर। भावरा गाँव वनवासी बाहुल्य प्रक्षेत्र था। अन्य परिवार गिने चुने ही थे। ये परिवार वही थे जो आजीविका या नौकरी के लिये यहां से आकर बसे थे। इस कारण बालक चन्द्र शेखर की टीम में सभी वनवासी बालक ही जुटे। इसका लाभ यह हुआ कि बालक चन्द्र शेखर ने धनुष बाण चलाना, निशाना लगाना और कुश्ती लड़ना बचपन में ही सीख लिया था। यह 1920 की घटना है। वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। आयु बमुश्किल चौदह वर्ष की रही होगी। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनने लगा था। गाँव-गाँव में बच्चों की प्रभात फेरी निकालने का क्रम चल रहा था। अनेक स्थानों पर प्रशासन ने प्रभात पारियों पर पाबंदी लगा दी थी। पर भावरा गाँव में यह प्रभात फेरी बालक चन्द्र शेखर ने निकाली। प्रभात फेरी में रामधुन के साथ आजादी के नारे भी लगाये । बालक चन्द्र शेखर और कुछ किशोरों को पकड़ लिया गया। बच्चो को चांटे लगाये गये माता-पिता को बुलवाया गया, कान पकड़ कर माफी मांगने को कहा गया। बाकी बच्चो को माफी मांगने पर छोड़ दिया गया। लेकिन चन्द्रेखर ने माफी नहीं माँगी और न अपनी गल्ती स्वीकारी उल्टे भारत माता की जय का नारा लगा दिया। इससे नाराज पुलिस ने उन्हे डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया और पन्द्रह बेंत मारने की सजा सुना दी गयी। उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम 'आजादÓ बताया। पिता का नाम 'स्वतंत्रÓ और घर का पता जेल बताया । यहीं से उनका नाम चंद्र शेखर तिवारी के बजाय चन्द्र शेखर आजाद हो गया । अपनी शालेय शिक्षा पूरी कर चन्द्रशेखर पढ़ने के लिये बनारस आये। उन दिनों बनारस क्राँतिकारियों का एक प्रमुख केन्द्र था। यहां उनका परिचय सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मन्थ नाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी से हुआ और वे सीधे क्राँतिकारी गतिविधियों से जुड़ गये। आंरभ में उन्हे क्राँतिकारियों के लिये धन एकत्र करने का काम मिला। उन्होंने बनारस में कर्मकांड और संस्कृत की शिक्षा ली थी। उन्हें संस्कृत संभाषण का अभ्यास भी खूब था। अतएव अपनी सक्रियता बनाये रखने के लिये उन्होंने अपना नाम हरिशंकर ब्रह्मचारी रख लिया था और झाँसी के पास ओरछा में अपना आश्रम भी बना लिया था। बनारस से लखनऊ कानपुर और झाँसी के बीच के सारे इलाके में उनकी धाक जम गयी थी। वे अपने लक्षित कार्य को पूरा करते और आश्रम लौट आते। क्रांतिकारियों में उनका नाम चन्द्र शेखर आजाद था तो समाज में हरिशंकर ब्रह्मचारी। उनकी रणनीति के अंतर्गत ही सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह अपना अज्ञातवास बिताने कानपुर आये थे। 1922 के असहयोग आन्दोलन में जहाँ उन्होंने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया वही 1927 के काकोरी कांड, 1928 के सेन्डर्स वध, 1929 के दिल्ली विधानसभा बम कांड, और 1929 में दिल्ली वायसराय बम कांड में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। वह 27 फरवरी 1931 का दिन था। पूरा खुफिया तंत्र उनके पीछे लगा था। वे 18 फरवरी को इस पार्क में पहुंचे थे। यद्यपि उनके पार्क में पहुंचने की तिथि पर मतभेद हैं लेकिन वे 19 फरवरी को पं मोतीलाल नेहरु की तेरहवीं में शामिल हुये थे। तेरहवीं के बाद उनकी कमला नेहरू जी से भेंट भी हुईं। कमला जी यह जानती थीं कि पं मोतीलाल नेहरू क्राँतिकारियों को सहयोग करते थे। उनके कहने पर चन्द्र शेखर आजाद 25 फरवरी को आनंद भवन में नेहरु जी से मिलने पहुंचे। इस बातचीत का विवरण कहीं नहीं है। बाद में पं नेहरू ने अपनी आत्मकथा में क्राँतिकारियों की गतिविधियों पर नकारात्मक टिप्पणी की है। और चन्द्र शेखर आजाद को फ़ासीवादी भी लिखा है। जो हो। चन्द्रशेखर आजाद पार्क में ही रहे और 27 फरवरी को पुलिस से बुरी तरह घिर गये। पुलिस द्वारा उन्हे घेरने से पहले सीआईडी ने पूरा जाल बिछा दिया था । मूंगफली बेचने, दाँतून बेचने आदि के बहाने पुलिस पूरे पार्क में तैनात हो गयी थी और 27 फरवरी को सबेरे-सबेरे पुलिस की गाड़ियां तीनों रास्तों से पहुँची । एनकाउन्टर आरंभ हुआ । पर ज्यादा देर न चल सका । यह तब तक ही चला जब तक उनकी पिस्तौल में गोलियाँ रहीं । वे घायल हो गये थे और अंतिम गोली बची तो उन्होंने अपनी कनपटी पर मारली । वे आजाद ही जिये और आजाद ही विदा हुये । (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
