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दो बातें इन्सान को भीतर-बाहर से पूरी तरह बदल देती हैं, माँ बाप बनना और उन्हें खोना

माँ बाप बनना दुनिया से जोड़ देता है, अभिभावकों को खोना संसार से तोड़ देता है |

दो बातें इन्सान को भीतर-बाहर से पूरी तरह बदल देती हैं, माँ बाप बनना और उन्हें खोना
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वेबडेस्क। व्यक्तिगत रूप से कहूँ तो सकारात्मक, स्थिर और समझ भरी सोच रखती हूँ पर माँ-पापा से जुड़ा कुछ भी आकुल-व्याकुल कर देता है | मेरे अपने बच्चे से जुड़ी परेशानी भी इतना परेशान और आक्रोशित नहीं करती क्योंकि ऐसे समय मैं अपने अभिभावकों से हिम्मत पाती हूँ, पाती रही हूँ ( अब तो पापा ही इस शक्ति का स्रोत हैं :( ) इसलिए एक भरोसा रहता है कि ईश्वर के बाद एक और शक्ति है मेरे पास ...थमा ही लेगी |

माँ- बाप बनना दुनिया से जोड़ देता है। अच्छे खासे लापरवाह रहे इन्सान ( युवा-युवतियां ) पेरेंट्स बनते ही समाज की, परिवार की बातों से जुड़ने लगते हैं | सुरक्षा और सामुदायिक जीवन के उन पहलुओं पर भी सोचने लगते हैं, जो कभी मजाक करने भर का विषय लगते हैं | मन के मोर्चे, जीवन के खांचे में बहुत सहजता से चले आते इस एक बदलाव ने ही दुनिया को थाम रखा हैं | इस एक मोड़ के बाद हर कदम पर कुछ बदलता जाता है | इंसान, हर पड़ाव पर मानवीय भावनाओं से जुड़ता जाता है |

अभिभावकों को खोना संसार से तोड़ देता है। हाँ यह सच है कि जीवन चलता रहता है | सतही तौर पर सब सहज भी लगता है पर भीतर कुछ बदल गया होता है | कुछ ऐसा जो कभी रिवर्स नहीं होता | सारी सुख-सुविधाओं के बीच भी मन के एक कोने से पीड़ा रिसती रहती है | अपनी ही मुस्कुराती तस्वीरों में भी इन्सान को उदासी दिखने लगती है | यह रीतापन कभी भरता नहीं, भरने जैसा है भी तो नहीं |

माँ-बाप में से किसी का भी असमय जाना तो मानों सदा के लिए जिन्दगी की दिशा ही बदल जाता है | हालाँकि यही एक चोट है जीवन की जिसमें उम्र भी मायने नहीं रखती | लगता है जैसे पाँवों के नीचे की धरती खींच ली किसी ने :( और फिर कितने ही प्रयास किए जाएँ अंगुली थाम लेने वाला वैसा सहारा नहीं मिलता कभी | मन को मजबूती देने वाले वे बोल सुनाई नहीं देते कहीं से |

( दो दिन से उन बच्चों का सोच रही हूँ जिनके पिता और एक परिवार से तो माँ-पिता दोनों ही चले गये | उन बुजुर्ग माँ-बाप की पीड़ा भी अकल्पनीय है जिनके बच्चे यूँ अचानक दुनिया छोड़ गये | उनके जीवन का यह रीतापन अब कभी नहीं भरेगा | दुर्घटनाओं में ऐसे बच्चे या माँ-बाप आए दिन यूँ अकेले रह जाते हैं | कोरोना ने तो गिनती के दिनों में जाने कितने ही घरों की किस्मत में यह अधूरापन लिख दिया | ( पर ऐसे हादसे हर घर से जुड़े हैं - जुड़े होने चाहिएं ) पीड़ा किसी की भी हो - मुस्कुराने के लिए नहीं होती समझेंगे हम ? समझना तो चाहिए न ?

Updated : 21 Dec 2021 8:14 AM GMT
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स्वदेश डेस्क

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