प्रेमचंद की प्रासंगिकता का मूल यथार्थवादी लेखन

प्रेमचंद की प्रासंगिकता का मूल यथार्थवादी लेखन
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डॉ.बचन सिंह सिकरवार

अपने लेखन की विशेषताओं के चलते उनके प्रशंसक मुंशी प्रेमचन्द को 'जन-जीवन का अमर चितेराÓ तो कोई उन्हें 'कलम का जादूगर तो कुछ लोग उन्हें 'कलम का सिपाहीÓ तो बंगला के प्रख्यात उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपध्याय ने उन्हें 'उपन्यास सम्राटÓकी उपाधि दी, तो कुछ ने उन्हें 'हिन्दी कहानी का पितामहÓकहा। यूँ तो प्रेमचन्द ने साहित्य की कई विधाओं यथा-कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध आदि का लेखन किया है, पर उन्हें विशेष सफलता और लोकप्रियता कहानी तथा उपन्यास लेखन में ही मिली। प्रेमचन्द की हर रचना अनमोल है, जो अपने काल का यथार्थ वर्णन आमजन की भाषा-बोली में करती है। उनके लेखन की यही विशेषता उसे आज भी प्रसांगिक बनाए हुए हैं। प्रेमचन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार थे।

उन्होंने अपने जीवन काल में न केवल आम आदमी के जीवन संघर्ष, स्त्रियों की समस्याएँ, गाँवों, किसानों, मजदूरों,निम्न जातियों की दशा, शोषण तथा उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार, माध्यम वर्ग की समस्याएँ और उसकी आकांक्षाएँ, मानवीय जीवन के विविध पक्षों, सामन्तों, जमींदार का जीवन और दूसरे लोगों के प्रति उनका नजरिया, स्वतंत्रता आन्दोलन, नौकरशाहों, शासकों के आचार-व्यवहार को सटीक एवं जीवन्त चित्रण किया, बल्कि उसमें तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीति और उनमें बदलावों को लेकर हो रहे गुलामी के विरोधी, जातिभेद, छुआछत, दहेजा प्रथा, विधवा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, लगान, आधुनिकता स्त्री-पुरुष समानता, प्रगतिवादी आदि आन्दोलन ं का भी विशद् उल्लेख है। उनका लेखन कोरी कल्पना की उड़ान न होकर स्वयं भोगे। इसलिए उनके लेखन को यथार्थवादी कहा जाता है। मुंशी प्रेमचन्द की लोकप्रिय कहानियाँ साहित्य जगत् में ऐसा नश्तर है, जिसकी चुभन से आपकी अन्तर्रात्मा तक चीत्कार उठेगी। उनका लेखन प्रेमचन्द काल का दस्तावेज है। प्रेमचन्द ने अपनी कहानियाँ और उपन्यासों के माध्यम से एक नयी परम्परा की शुरुआत की थी, जिसे भावी पीढ़ियों के लेखकों, कथाकारों और उपन्यासकारों का पथ प्रदर्शन किया। वैसे तो प्रेमचन्द ने कोई तीन सौ से अधिक कहानियाँ और करीब डेढ़ दर्जन उपन्यास लिख हैं। इनमें 'सेवासदनÓ, 'प्रेमाश्रमÓ, 'रंगभूमिÓ, 'निर्मलाÓ, 'गबनÓ, 'कर्मभूमिÓ, 'गोदानÓ आदि उपन्यास तथा 'कफनÓ,'पूस की रातÓ, 'पंचपरमेश्वरÓ, 'बड़े घर की बेटीÓ,'ईदगाहÓ 'बूढ़ी काकीÓआदि कहानियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से अधिकांश हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। प्रेमचन्द की रचनाएँ उनके दौर की सभी प्रमुख उर्दू तथा हिन्दी पत्रिकाओं 'जमानाÓ, 'सरस्वतीÓ,'माधुरीÓ, 'मर्यादाÓ, 'चाँदÓ ,'सुधाÓइत्यादि में प्रकाशित हुई थीं। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र 'जागरणÓ और साहित्यिक पत्रिका ' हंसÓ का सम्पादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा, जो घाटे में रहा और बन्द करनी पड़ी। प्रेमचन्द हिन्दी फिल्मों की पटकथा लिखने मुम्बई गए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में सन् 1918 से 1936 तक तीस वर्ष के कालखण्ड को 'प्रेमचन्द युगÓ कहा जाता है। मुंशी प्रेमचन्द हिन्दी और उर्दू के महानतम थे । प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई, सन् 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नामक एक गाँव में हुआ था। प्रेमचन्द इनका असली नाम नहीं था। इनका वास्तविक नाम 'धनपतरायÓ था। प्रेमचन्द का पहला कहानी संग्रह 'सोजे वतनÓ(राष्ट्र का विलाप) सन् 1908 में प्रकाशित हुआ था,जो 'नवाब रायÓ नाम से प्रकाशित हुआ था। इसी संग्रह की कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रत्नÓ सामान्यत: उनकी पहली कहानी बतायी जाती है। लेकिन शोध करने वाले डॉ.कमलकिशोर गोयनका के अनुसार उनकी प्रथम कहानी कानपुर से उर्दू मासिक 'जमानाÓके अप्रैल अंक में प्रकाशित 'सांसारिक प्रेम ओर देशप्रेमÓ (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) थी। इस संग्रह की सभी प्रतियाँ अँग्रेज सरकार ने जब्त कर ली। तब कलेक्टर ने उन्हें हिदायत दी कि अब नवाबराय के नाम से कुछ भी नहीं लिखेंगे। यदि लिखेंगे, तो जेल भेज दिया जाएगा। तब उनके घनिष्ठ मित्र और उर्दू मासिक पात्रिका 'जमानाÓ के सम्पादक दयानारायण निगम उन्हें 'प्रेमचन्दÓ के नाम से लिखने का सुझाव दिया। प्रेमचन्द अपने जीवन के अन्तिम दिनों 8 अक्टूबर,1936 निधन तक साहित्य सृजन में जुटे रहे। (लेखक स्तंभकार हैं)

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