'आत्मनिर्भर भारत' की अवधारणा एवं गांधी की विचारधारा

आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा एवं गांधी की विचारधारा
यह आत्म निर्भरता ही है जो राष्ट्र को सर्वोपरि बना सकता है। सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास, आत्मनिर्भरता का मूल मंत्र है।

आत्मनिर्भरता से अभिप्राय है स्वयं पर निर्भर होना। देश में अपने संसाधनों से हर वस्तु का निर्माण करना और उन्हें उपयोग में लाना। आत्मनिर्भर भारत के पांच आधार स्तम्भ हैं-अर्थव्यवस्था में उत्तरोत्तर वृद्धि, इंफ्रास्ट्रक्चर जो आधुनिक भारत की पहचान बने, तकनीक संचालित अर्थव्यवस्था, प्रजातांत्रिक रूप से सबको समान लाभ तथा मांग और पूर्ति में संतुलित सम्बन्ध रहे। आत्मनिर्भर भारत आज न सिर्फ चर्चा का विषय बना हुआ है, बल्कि इस दिशा में सरकारी और निजी स्तर पर व्यापक प्रयास भी किए जा रहे हैं। आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य है अपने यहां उद्योगों का विकास कर युवा वर्ग के लिए रोज़गार और गरीबों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराना।

आत्मनिर्भर होना हर व्यक्ति समाज और राष्ट्र का स्वप्न होता है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि राष्ट्र की शक्ति उसकी आत्मनिर्भरता में है दूसरों से काम लेकर काम चलाने में नहीं यह आत्म निर्भरता ही है जो राष्ट्र को सर्वोपरि बना सकता है। सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास, आत्मनिर्भरता का मूल मंत्र है। सभी को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना आत्मनिर्भरता का प्रमुख उद्देश्य है। आत्मनिर्भरता से आशय आत्म केंद्रित होना कदापि नहीं है आत्मनिर्भरता वैश्वीकरण से संयुक्त विचार है, जिसका अर्थ है भारत अपनी घरेलू जरूरतें स्वयं पूरी कर सकने के साथ साथ अपने उत्पादों का विदेशों में भी निर्यात कर सके।

आत्मनिर्भर भारत का निर्माण करने के लिए अर्थव्यवस्था को आधुनिक तकनीक से युक्त करने के लिए वृहद स्तर पर युवक और युवक-युवतियों को तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता होती है, जिससे वह अपनी क्षमता और कुशलता के आधार पर प्रशिक्षण लेकर रोजगार प्राप्त कर सकें। अथवा स्वयं के उद्यम स्थापित कर सकें। इसी क्रम में युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना संचालित है, जो जिला स्तर पर युवाओं को उनके हुनर व कार्य क्षमता के आधार पर प्रशिक्षित करके स्वरोजगार के लिए तैयार करती है।

इसी के साथ 2015 में स्किल इंडिया मिशन भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आरंभ किया गया था। इसका उद्देश्य युवाओं का कौशल विकास कर उन्हें रोजगार के स्थाई अवसर प्रदान करना था। इस मिशन का उद्देश्य युवाओं को नवीन तकनीकों पर आधारित कौशल का प्रशिक्षण देकर रोजगार के योग्य बनाना था। इसके अंतर्गत अब तक एक करोड़ से अधिक युवाओं को कौशल प्रशिक्षण दिया जा चुका है, और लाखों लोगों को रोजगार के अवसर दिए गए हैं। आत्मनिर्भरता की दिशा में यह सराहनीय प्रयास है।महिलाओं को सशक्त आत्मनिर्भर बनाने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन संचालित है। इस मिशन से विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण एवं ऋण प्राप्त करके महिलाएं स्वयं सहायता समूह का निर्माण कर, स्वयं भी रोजगार प्राप्त कर रही है साथ ही अन्य महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मार्ग निर्देशन दे रही हैं।

कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है और यही आवश्यकता आत्मनिर्भरता का मार्ग प्रशस्त करती है। वर्ष भर पूर्व समस्त विश्व को संक्रमित करने वाले कोविड-19 वायरस के भय से विश्व भर की गतिशीलता स्थिर हो गई। वायरस का संक्रमण इतना बढ़ा कि बीमारों के लिए अस्पताल कम पड़ गए। ऐसे समय में रेल पथ पर खड़ी रेल अस्पताल बन गई। पीपीई किट, वेंटिलेटर, सैनिटाइजर, केएन 95 मास्क का निर्माण अपने देश में आरंभ हो गया। जिस वैक्सीन की खोज में कई साल लग जाते उसे सीरम इंडिया एवं भारत बायोटेक द्वारा कोविड-19 से दो-दो हाथ करने के लिए मात्र 10 महीने में न सिर्फ खोज लिया गया अपितु इस स्वदेशी वैक्सीन का वृहद स्तर पर उत्पादन करके विदेशों को भी भेजा गया।

आत्मनिर्भरता वह राष्ट्रीय भाव है, जब व्यक्ति और राष्ट्र वाह्य सहयोग की अपेक्षा किये बिना अपने स्वयं के द्वारा निर्मित उत्पादन का प्रयोग करते हैं। आज जब हमारी नजर आसमान की ओर जाती है तो देश में निर्मित लड़ाकू विमान तेजस को कलाबाजियां करते देखकर हम स्वयं आसमान में उड़ने लगते हैं। भारत में बने टैंक, मिसाइल आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में मेट्रो ट्रेन के कोच और भारत में निर्मित कोविड-19 की वैक्सीन का देशी स्तर पर प्रयोग करने के साथ विदेशों को भेजते समय संपूर्ण देश का मस्तक ऊंचा हो जाता है।

औपनिवेशिक भारत पर दृष्टि डालें तो 1905 में वायसराय कर्जन द्वारा किए गए बंगाल विभाजन के विरोध में संपूर्ण भारत में स्वदेशी आंदोलन ने आत्मनिर्भरता की अलख जगाई। विदेशी वस्तुओं, नौकरियों, पदवियों और शिक्षा को त्यागकर स्वदेशी को अपनाया गया। स्वावलंबन और रचनात्मक कार्यों को प्रोत्साहन दिया गया। स्वदेशी शिक्षा का विकास किया गया। स्वदेशी उद्योग आरंभ किए गए। 8 नवंबर 1905 को बंगाल के प्रथम राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना हुई। 14 अगस्त, 1906 को बंगाल नेशनल स्कूल और कॉलेज स्थापित हुआ 1906 में ही बंगाल टेक्निकल स्कूल खुला।

औद्योगिक क्षेत्र में भारतीय उद्योगों की विकास गति यद्यपि धीमी थी फिर भी कपास और पटसन उद्योग विकसित हुए। 1906 में बंग लक्ष्मी कॉटन मिल और 1906 में टाटा आयरन और स्टील कंपनी का निर्माण भारतीय पूंजी के द्वारा हुआ। 1910 के उत्तरार्ध में टाटा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर सप्लाई कंपनी देशी पूंजी से स्थापित हुई। भारी उद्योगों में लघु उद्योगों में कोलकाता चीनी मिट्टी बर्तन उद्योग, दियासलाई का कारखाना खोला गया। जनसेवा की भावना से प्रेरित युवा जमींदार राजेंद्र नाथ मुखर्जी ने उत्तरपारा में देशी धोती हाट खोला। मार्च 1905 में मझिलपुर जय-नगर हितैषिणी सभा ने महिला स्वदेशी मेला आयोजित किया। समय-समय पर आयोजित होने वाले मेले और प्रदर्शनी से स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की भावना का जन-जन में प्रसार हुआ। गांधी के चरखे और करघे ने स्वावलंबन के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन किया। आज हम लोकल से वोकल या नवाचार, नवप्रवर्तन का प्रयोग कर आत्मनिर्भरता की बात करते हैं, उसका बीज वपन औपनिवेशिक काल में ही खो गया था और प्राचीन काल से ही भारत भारत आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में अग्रणी रहा है।

आत्मनिर्भर भारत के संदर्भ में गांधी के विचारों की वर्तमान में महती प्रासंगिकता है। उन्होंने सर्वोदय के सिद्धांत को विकास का आधार बनाया था। सर्वोदय भारत का प्राचीन आदर्श भी रहा है। जिसका अर्थ है सबका उदय सबका विकास। विनोबा भावे ने कहा है, सर्वोदय का अर्थ है सर्व सेवा के माध्यम से समस्त प्राणियों की उन्नति। इसके व्यावहारिक स्वरूप को हम उनके भूदान आंदोलन में देख सकते हैं। जिसमें उन्होंने अमीर जमींदारों से जमीनों का दान लेकर गरीबों में उनका वितरण करने का अभियान चलाया था इस तरह सभी को स्वाभिमानपूर्वक जीने का मार्ग दिखाया था। गांधी के सर्वोदय आंदोलन के केंद्र में भारतीय ग्राम व्यवस्था थी। वह गांवों के शिल्प और कुटीर उद्योगों का विकास करना चाहते थे। वह इस बात से दुखी थे कि देश की बड़ी जनसंख्या गांवों से नगरों की ओर जा रही है और नगर उद्योग धंधों का केंद्र बनते जा रहे हैं। गांधी इस बात के पक्षधर थे कि गांवों में ही उद्योग धंधों का विकास हो जिससे ग्रामीणों को वहीं पर आवश्यकतानुसार रोजगार मिल सके और गांव आत्मनिर्भरता की दृष्टि से समृद्ध हो जाए।

उद्योग-धंधों में मशीनों के प्रयोग के संदर्भ में गांधी का कहना है, जहां पर जनसंख्या कम है, वहां मशीन एक आवश्यकता है। परंतु जहां पर काम की तुलना में करने वाले लोग अधिक हैं, वहां पर मशीनों का प्रयोग अनिष्ट कर है। ऐसे स्थानों पर मशीनें बेरोजगारी उत्पन्न करने वाली होती हैं। वह मशीनों का प्रयोग करने के विरोधी नहीं थे। काम के बोझ और परिश्रम को कम करने वाले यंत्रों का उन्होंने समर्थन किया। परंतु यंत्रीकरण को एक सीमा तक ही पसंद किया। मानव उपयोगी श्रम को मशीनों के पास जाने देने के वह प्रबल विरोधी थे। वह नहीं चाहते थे कि यंत्रों का प्रयोग करके उत्पादन और वितरण कुछ हाथों में सीमित हो जाए। वह ऐसे उद्योग धन्धे स्थापित करने के पक्ष में थे, जिसमें काम करने के इक्षुक लोगों को न सिर्फ जीवन निर्वाह के लिए वेतन मिले अपितु स्वाभिमान पूर्वक जीवन जीने का अधिकार मिले।

उन्होंने गांवों में व्याप्त दीर्घकालीन बेगारी या अर्धबेगारी को भारतीय अर्थव्यवस्था की मूल समस्या माना। उन्होंने लिखा था, हमारी समस्या अपने देश के करोड़ों लोगों के लिए खाली समय निकालने की नहीं है, समस्या यह है कि उनके बेकारी के समय का कैसे उपयोग किया जाए जो कि वर्ष में 6 महीने के कार्यकारी दिनों के बराबर होता है। यंत्रों का सही प्रयोग यह है, कि वह मानव श्रम में मदद करें और उसे सरल बनाएं। गांधी का लक्ष्य ग्राम उन्मुख भारत का निर्माण करना था, क्योंकि देश की अधिकांश जनसंख्या ग्रामों में निवास करती थी। नगरीकरण को वह अनिष्ट के रूप में और नगरों को शोषण के ऐसे दलालों के रूप में देखते थे जिन्होंने गांवों का जीवन रक्त चूस लिया था। नगरों के शिल्प उद्योगों, विलासिता युक्त वस्तुओं और निर्यात की जाने वाली के उत्पादन में उन्हें जरा भी रुचि नहीं थी।

ग्राम्य जीवन से प्रेम उनका कोरा आदर्श नहीं था। वह मन से गांवों का उत्थान करना चाहते थे। इसे उन्होंने अपने जीवन में भी अमल किया था। 1936 में 600 आबादी वाले मध्य भारत में अपने मित्र और शिष्य जमनालाल बजाज से प्राप्त भूमि पर, वर्धा के निकट, सेगांव नाम के गांव में उन्होंने अपना आवास बनाया। 1937 तक से गांव आत्मनिर्भर इकाई सेवाग्राम के रूप में स्थापित हो गया। छोटी पूंजी वाले उद्योगों का विकास हुआ। कारीगरों को प्रशिक्षण देने के लिए एक विद्यालय स्थापित किया गया और एक पत्रिका का प्रकाशन किया गया। गांधी भौतिक प्रगति के साथ मानवीय प्रगति को आवश्यक मानते थे। स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ शरीर की आवश्यकता पर बल दिया। इसके लिए हरी सब्जी एवं विटामिन युक्त भोजन को आवश्यक बताया। कुपोषित समाज आत्मनिर्भर नहीं हो सकता अतः उन्होंने ग्रामीण उत्पादों के बाजार, खाद्यान्न, पशुधन पालन, कृषि में देशी खाद का प्रयोग, स्वच्छता का निरंतर संदेश दिया।

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव एवं चेरिटेबल ट्रष्ट आभा फाउंडेशन के अध्यक्ष दीपक सिंघल का मंतव्य है, आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ग्राम्य भारत और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना होगा। आत्मनिर्भर भारत के लोकल से वोकल और लोकल से ग्लोबल के उद्देश्य को भी गांवों को सशक्त करके ही प्राप्त किया जा सकता है। कोविड 19 की अवधि में कृषि और कृषि पर आश्रित उद्योगों ने देश की अर्थव्यवस्था को गतिशील रखा। भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में 46 प्रतिशत का योगदान देती है। तथा लगभग 43 प्रतिशत लोग कृषि कार्यों में संलग्न हैं। सकल घरेलू उत्पाद में 16 प्रतिशत भागीदारी अर्थात देश की 130 करोड़ जनसंख्या में 88 करोड़ आबादी कृषि कार्यों पर आश्रित है।

गांधी पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से सशक्त एवं स्वावलंबी बनाना चाहते थे। उनकी दृष्टि में स्त्रियां, पुरुषों के समान मानसिक क्षमता के साथ पुरुष की साथी हैं। अतः उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके हाथों में चरखा दिया। और सूत कातने के लिए प्रेरित किया। जिससे उनके हाथ में पैसे आएं और वह स्वावलंबी होकर अपने जीवन को बेहतर बना सकें। एक भारतवासी होने के नाते हमारा यह दायित्व है कि हम अधिकाधिक वस्तुओं का उत्पादन अपने देश में करें और उनका उपयोग करें। तथा आत्मनिर्भर भारत अभियान यात्रा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करें।



(लेखिका डॉक्टर कामिनी वर्मा, काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ज्ञानपुर भदोही के इतिहास विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

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