राष्ट्र और संस्कृति रक्षा का अद्भुत संघर्ष

राष्ट्र और संस्कृति रक्षा का अद्भुत संघर्ष
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बलिदान दिवस पर विशेष

रमेश शर्मा

स्वाभिमान, स्वाधीनता और संस्कृति रक्षा के लिये भारत में असंख्य बलिदान हुये है तब जाकर हमने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता का सूर्योदय देखा । इन बलिदानों में अनूठा बलिदान रानी लक्ष्मीबाई का भी है जिन्होंने अपनी अंतिम श्वाँस तक संघर्ष किया। महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को बनारस में हुआ था। बचपन से बहुत ऊर्जावान तथा सबसे अलग थीं। इसीलिए उनका नाम मणि कर्णिका रखा गया। उनके पिता मोरोपंत तांबे वीर और साहसी थे। मणिकर्णिका को वीरता, साहस और राष्ट्र संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव परिवार के संस्कारों से मिला था।

समय के साथ बड़ी हुईं और 1842 में उनका विवाह झाँसी के महाराज गंगाधर राव से हो गया। विवाह के बाद नाम लक्ष्मी बाई हुआ। उन्हें एक पुत्र तो हुआ लेकिन उस बालक की मृत्यु मात्र चार माह में ही हो गयी। आगे महाराज भी बीमार रहने लगे। इससे राज्य संचालन के लगभग सभी कार्य रानी लक्ष्मीबाई ही देखने लगीं। 1853 में महाराज का स्वास्थ्य बहुत गिर गया। तब उन्होंने कोई बालक गोद लेने का निर्णय लिया। एक बालक गोद लिया गया उसका नाम दामोदर राव रखा गया। महाराज के निधन के बाद इस बालक का औपचारिक राज्याभिषेक करके महारानी पूर्व की भांति राजकाज चलाने लगीं। लेकिन अंग्रेजों को यह नागवार लगा। अंग्रेजों ने बालक को गोद लेने और उसे शासन का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया। तथा झाँसी राज्य को ब्रिटिश राज्य का अंग बनाने की घोषणा कर दी अंग्रेजों ने सेना भेजकर बल पूर्वक झाँसी नगर और किले पर कब्जा कर लिया। विवश होकर रानी को अपने परिवार सहित झाँसी का किला छोड़कर झाँसी के ही रानी महल में आना पड़ा। वे परिस्थिति देखकर किले से महल में रहने तो आ गयीं पर उन्हें अपने स्वाभिमान और पूर्वजों की परंपरा पर आघात लगा। उन्होंने नाना साहब पेशवा से संपर्क किया और अपना राज्य वापस लेने की योजना बनाई। सेना की भर्ती करती तो अंग्रेजों को शक होता। इसलिए उन्होंने महिला ब्रिगेड बनाना शुरू की। जिसका नेतृत्व झलकारी बाई को दिया। 1857 में अवसर देख उन्होंने धावा बोल दिया और किले पर अधिकार कर लिया। रानी के द्वारा दोबारा सत्ता में आता देख झाँसी के पुराने सैनिक भी आ जुटे । रानी ने अपना झंडा फहराया और राजकाज आरंभ कर दिया। उन्होंने राज्य संचालन की वही प्रक्रिया घोषित की जो शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के समय की थी। इसके साथ महारानी ने सेना की भरती भी आरंभ कर दी ।

जिन दिनों वे स्वयं को सशक्त और सुरक्षित कर ही रहीं थी कि उनके दो पड़ौसी राज्यों ओरछा और दतिया के राजाओं ने झाँसी पर एक साथ हमला कर दिया। यह हमला सितंबर 1957 के अंत में हुआ जो अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक चला। इतिहासकारों का मानना है कि इन दोनों राजाओं ने अंग्रेजों के इशारे पर हमला किया था ताकि रानी की शक्ति को कमजोर किया जा सके । रानी ने इस आक्रमण का डटकर मुकाबला किया और इस दो तरफा हमले को विफल कर दिया। हमलावर दोनों सेनाओं को लौटना पड़ा । इस युद्ध में रानी को विजय तो मिली पर वे आंतरिक रूप से बहुत कमजोर हो गयीं थीं। यह नुकसान उन्हें दोनों ओर हुआ। आर्थिक भी और सैन्य शक्ति का भी । उन्होंने फिर धन और सेना जुटाना आरंभ किया । इसके लिये उन्हे अधिक समय नहीं मिला । जनवरी 1958 में अंग्रेजों ने झाँसी पर घेरा बनाना आरंभ कर दिया था। रानी ने इससे सामना करने के लिये सेना की भर्ती तेज की। इसमें अनेक विश्वासघाती भी भरती हो गये। अपने जासूसों की किले में जमावट करके अंग्रेजों ने मार्च 1858 के आरंभ में झाँसी पर जोरदार हमला बोला। रानी ने वीरता से सामना किया। किंतु एक रात एक विश्वासघाती दूल्हा जू ने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। अंग्रेजी फौज भीतर आ गयी। अंग्रेजों ने नगर, किले तथा रानी महल पर पुन: कब्जा कर लिया। परिस्थिति को देख वीराँगना झलकारी ने घेरा बनाकर रानी को उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ सुरक्षित बाहर निकाला। झलकारी की कद काठी रानी लक्ष्मीबाई से बहुत मिलती थी। इसलिए झलकारी बाई ने रानी का ध्वज लिया और उनकी शैली में ही युद्ध करने लगीं। इससे अंग्रेजों की सेना भ्रमित हुई और झलकारीबाई को ही रानी समझकर घेरा बनाने लगी । इसका लाभ रानी को मिला और वे झाँसी से सुरक्षित निकल गईं।

झाँसी से निकल कर रानी कालपी आईं। यहां तात्या टोपे के मार्ग दर्शन में पुन: सेना गठित करना आरंभ किया । वे अपनी झाँसी को मुक्त कराने के अभियान में लग गईं । काल्पी क्राँतिकारियों का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। झाँसी में क्राँति का पूरी तरह दमन करके अंग्रेजों ने मई 1858 में काल्पी पर घेरा आरंभ किया और जून 1858 के प्रथम सप्ताह में धावा बोल दिया । अंग्रेजों के पास नौ तोपखाने के साथ ओरछा, दतिया तथा भोपाल की सेनाओं का भी सहयोग था। कालपी का किला तोपखाने की मार को न सह सका। और रानी युद्ध करते हुये बाहर निकलीं तथा ग्वालियर पहुँची। ग्वालियर की सेना उनके साथ आ गई। महाराज ग्वालियर खुलकर तो सामने न आये पर उन्होंने किला खाली कर दिया। ग्वालियर की सेना भी रानी की कमान में आ गयी। अंग्रेजों ने ग्वालियर पर धावा बोला। रानी 18 जून 1858 को ग्वालियर में कोटा की सराय क्षेत्र में लड़ते हुये बलिदान हो गयीं। उनका अंतिम संस्कार पुजारी की मदद से नवाब बाँदा ने किया। यहाँ आज भी उनकी समाधि बनी है। वीराँगना रानी के चरणों में कोटिश: नमन्

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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