संघ कार्य के 100 वर्ष: एक जीवन, एक झंडा, एक प्रेरणा

संघ कार्य के 100 वर्ष: एक जीवन, एक झंडा, एक प्रेरणा
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बी.आर. नायडू

तिरुपति की शाखा में खेलने गया था, जब मैं 9वीं कक्षा में पढ़ता था- बी.आर. नायडू, पूर्व अतरिक्त मुख्य सचिव (आईएएस) मप्र

मेरी चालीस वर्षों की सार्वजनिक सेवा में कभी किसी ने मुझे किसी विचारधारा का प्रचारक नहीं कहा। क्योंकि संघ ने मुझे किसी का अनुकरण नहीं, बल्कि कर्तव्य के प्रति सच्चाई सिखाई। भगवा चाज, जिसे मैंने तिरुपति के मैदान में एक बालक के रूप में पहली बार प्रणाम किया था, आज भी मेरे भीतर ताहरा रहा है-अनुशासन, आत्मबल और करुणा का प्रतीक बनकर।

सेवा से नेतृत्व का पाठ

संघ में कोई ‘टीचर’ या ‘गुरुजी’ वेतन नहीं लेते थे। हर कार्यकर्ता सेवा-भाव से जुड़ा होता था। यहीं मेरा पहला जीवन-पाठ था कि सच्चा नेतृत्व अधिकार से नहीं, सेवा से जन्म लेता है। जब आप दूसरों को प्रेरित करते हैं, उनके साथ खड़े रहते हैं, तभी वे आपका अनुसरण करते हैं।

संघ की सबसे बड़ी सीख यही है: सुधार करो, पर गर्व के साथ अपनी जड़ों से जुड़े रहो।

हर इंसान का जीवन केवल उसके अपने निर्णयों से नहीं, बल्कि उन संस्कारों और संस्थाओं से आकार लेता है जो उसे दिशा देती हैं। मेरे जीवन में ऐसी ही एक प्रेरणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रही है। यह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक विचार और जीवन-शैली है। जब भारत के प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से संघ के योगदान का उल्लेख किया, तो मुझे अपने किशोर दिनों की यादें ताजा हो गईं।

पहली मुलाकात: एक झंडा, एक मुस्कान और एक नई राह

सपति की एक साधारण शाम थी। मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था और स्कूल से लौटते हुए पास के मैदान में बच्चों को खेलते देख रहा था। उनके बीच एक ध्वज लहरा रहा था। एक युवक सफेद कमीज और खाकी निकर में बड़े अनुशासित ढंग से नेतृत्व कर रहा था। उसने मुस्कराकर पूछा, “आओगे?” मैंने उसे प्रणाम किया और अनजाने में एक ऐसी यात्रा शुरू कर दी, जो जीवनभर चलती रही।

उस समय यह सिर्फ खेल जैसा लगता था, पर आज समझता हूँ कि वह ‘खेल’ नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण की प्रयोगशाला थी। वहीं मैंने पहली बार भारत की सांस्कृतिक परंपराओं, महान व्यक्तित्वों और नागरिक कर्तव्यों के बारे में सीखा। यह संतुलन-शरीर, मन और चरित्र-मेरे जीवन की असली पूँजी बन गया।

जीवन में संघ की भूमिका

1986 में प्रशासनिक सेवा में चयन के बाद शाखा का सक्रिय जीवन पीछे छूट गया, लेकिन आत्मिक जुड़ाव कभी नहीं टूटा। संघ में कोई सदस्यता पत्र नहीं होता, कोई रजिस्टर नहीं। यह हृदय का बंधन है। आप जहाँ हों, जो भी करें, अपेक्षा बस इतनी होती है कि आप सजग, ईमानदार और देशभक्त नागरिक बनें।

विवादों के बीच मुझे अक्सर दुख होता है कि संघ को लेकर कई गलतफहमियाँ फैली हैं। गांधीजी की हत्या का आरोप, स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी पर सवाल और अल्पसंख्यक विरोध जैसी बातें समय-समय पर इतिहास ने झुठलाया है। मेरे अनुभव में संघ ने कभी किसी धर्म के प्रति द्वेष नहीं सिखाया। बल्कि यह सिखाता है कि समाज के हर वर्ग में समानता, आत्मगौरव और सेवा-भाव कैसे जगाया जाए। संघ की सबसे बड़ी सीख यही है: सुधार करो, पर गर्व के साथ अपनी जड़ों से जुड़े रहो।

संघ के प्रचारकों ने जीवन को प्रेरणा दी

संघ में प्रचारकों में पहला सत्र भी शाखा के माध्यम से ही हुआ। मेरे जीवन में जिन लोगों ने सबसे अधिक प्रभाव छोड़ा, वे प्रचारक ही थे जो तिरुपति में काम करते थे। ये गृहत्यागी साधु की तरह समाज में घूमते, सामान्य परिवारों में रहते और हर मिलने वाले से आत्मीयता का रिश्ता बनाते। उनका अनुशासन, सादगी और आत्मसंयम देखकर मैंने समझा-आदर्श केवल बोलने से नहीं, जीने से प्रकट होता है।

गंगाजलि फंड के प्रमुख का काम

हर वर्ष गुरुपूजा दिवस संघ का एक विशेष अवसर होता है। उस दिन स्वयंसेवक अपनी क्षमता अनुसार कुछ अर्पित करते। मैंने कई वर्षों तक गंगाजलि प्रमुख के रूप में यह जिम्मेदारी निभाई। यह केवल धन संग्रह नहीं था, बल्कि आम निर्भरता, उत्तरदायित्व और विनम्र दान का संस्कार था।

संघ का एक घण्टा: जीवन की निधि

उस समय शाखा का एक घटा बस खेल जैसा लगता था, पर आज समझता हूँ कि वह ‘खेल’ नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण की प्रयोगशाला थी। वहीं मैंने पहली बार भारत की सांस्कृतिक परंपराओं, महान व्यक्तित्वों और नागरिक कर्तव्यों के बारे में सीखा। यह संतुलन मेरे जीवन की असली पूँजी बन गया।

अनजान शहर और संघ कार्यालय से मिलने वाली चिट्ठी

घर से दूर एक घर जैसा अपनापन चाहिए तो संघ से संपर्क अनिवार्य है। यह मेरा निजी अनुभव है। मेरी पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं के दौरान कभी मैं यह अनुभव नहीं भूलता। जब भी मैं किसी नए शहर में परीक्षा देने जाता, तो शाखा के एक परिचित से एक छोटा सा पत्र लेकर संघ के कार्यालय पहुँच जाता। यहाँ न कोई औपचारिकता, न पहचान की जरूरत-बस दरवाजा खुलता और आवाज आती, “आओ भाई, भोजन कर लो।” यह अनुभव मुझे सिखाता गया कि संगठन की असली ताकत भाईचारा और विश्वास है।

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