संघ कार्य के 100 वर्षः एक फौजी संघ की अहमियत समझ सकता है- अनिल सहगल

संघ कार्य के 100 वर्षः एक फौजी संघ की अहमियत समझ सकता है- अनिल सहगल
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चौथी कक्षा में गया था मेरठ की शाखा, भाषाई शालीनता और संस्कारों के लिए कृतज्ञ हूँः अनिल सहगल, स्क्वाड्रन लीडर, भारतीय वायु सेना

1960 में मैं दयानंद आर्य विद्या मंदिर डीएवी मेरठ कैन्ट में चौथी कक्षा में पढ़ता था। उन दिनों हमें दो शौक हुआ करते थे। जब भी पढ़ाई लिखाई से फुर्सत मिलती तो हम या तो रेडियो सुन लेते थे और या फिर 'पराग' पत्रिका पढ़ लेते थे। इसी तरह से पढ़ाई लिखाई करने के बाद बचा हुआ समय बिताते थे। हमारा तीसरा शौक था खेलकूद। इसी खेलकूद के सिलसिले में मेरा परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से हुआ। उन दिनों बाम्बे बाजार में पैलेस थियेटर से रेलवे स्टेशन की ओर बहुत नजदीक सर्कुलर रोड का इलाका था, जहां हमारा परिवार रहता था। उसके पास एक मैदान था, जहां शाम को रोज संघ की शाखा लगती थी। मैं उसी शाखा में अपने कुछ मित्रों के साथ पहली बार संघ के साथ जुड़ा। दोस्तों ने संघ से परिचय करवाया। माता-पिता की सहमति से शाखा में जाना प्रारम्भ कर दिया। शाखा के स्वयंसेवक हमें देश और दुनिया की जानकारी के साथ-साथ यह बताते थे कि शरीर को स्वस्थ रखना अति आवश्यक कार्य है। शाखा के परम्परागत खेल मुझे आज भी अच्छे से याद हैं। खेल और स्वस्थ रहने के टिप्स मुझे बचपन में संघ से ही मिल गए थे। एक फौजी के लिए स्वस्थ शरीर का महत्व स्वयंसिद्ध ही है।

दूसरी अच्छी बात यह थी कि शाखा में आने वाले सभी लड़के आपस में एक दूसरे को 'जी' कहकर संबोधित करते थे जो कि दूसरों के प्रति हमारे स्नेह और आदर का घोतक है। मुझे नहीं मालूम कि संघ की शाखा में उस समय आने वाले छात्रों और अन्य स्वयंसेवक की जाति क्या होती थी। सब भाईसाब या नाम के पीछे जी लगाकर आपस में संवाद करते थे। मेरी स्वयं की भाषा भी शाखा के माध्यम से बहुत शालीन हुआ करती थी और आज भी वैसे ही शालीन ही है। इसके लिए मैं संघ की मेरठ और प्रयागराज की उस शाखाओं के योगदान को आज महत्वपूर्ण मानता हूं। जहाँ जाकर हम बगैर भेदभाव के भाषाई शालीनता को सीखते हैं। मैं आज अपने आसपास के सभी लोगों से यही कहता हूं कि कॅरियर अपनी जगह है, लेकिन भारतीय बने रहना है अपनी जड़ों से नहीं जुड़े होने पर पछताना नहीं है तो अपने बच्चों को संघ की शाखा या उनकी दूसरी गतिविधियों से जरूर जोड़ें। संघ भारत और भारतीयता के साथ जोड़ने वाला निर्विवाद सेतु है।

एक फौजी संघ की अहमियत समझ सकता है

एयरफोर्स की सेवा में आने के बाद शारीरिक रूप से मेरा संघ से और संघ की शाखाओं से संबंध भले ही कुछ कमजोर हो गया, लेकिन विचारात्मक स्तर पर मैं हमेशा इस बात का कायल हूं कि यह संस्था देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तियों का एक विशाल समूह है जो हर स्थिति में देश के हित की सोचता है और कभी भी देश के लिए जान न्योछावर करने के लिए तत्पर रहता है। संघ भारत की विरासत का पथ प्रदर्शक है। एक फौजी से बेहतर संघ की महत्ता को कोई कैसे जान और समझ सकता है।

जम्मू की शाखा की स्मृतियां धरोहर हैं

मैंने प्रयागराज से हाई स्कूल की परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई मैंने जम्मू शहर में शुरू की तो वहां भी देखा कि सुबह संघ के कार्यकर्ता बड़े आदर सूचक ढंग से हमारे आसपास के घरों में जाकर युवाओं को शाखा में आने के लिए बुलाते थे। यह शाखा जम्मू के परेड ग्राउंड में नित्य लगती थी। स्वयंसेवकों का आग्रह इतना आत्मीय होता था कि आपको परिवार भाव की झलक मिल जाये। जम्मू परेड ग्राउंड की शाखा में भी मैं कुछ समय तक जाता रहा, लेकिन धीरे-धीरे यह संबंध पढ़ाई खेलकूद, ड्रामा और लिटरेचर में बहुत सारी भागीदारी की वजह से कुछ कम हो गया। इसका मुझे खेद है।

संघ की वैचारिकी भारत की आवश्यकता है

1969 में जब मैं दसवीं की परीक्षा प्रयागराज से पास कर चुका था, तब भी राजनीतिक बातें समाज के मुख्य विमर्श का केंद्र हुआ करती थी, लेकिन वह आज की तरह विकृत नहीं थीं। यह बात यकीनन सत्य है कि उन दिनों संघ की शाखा को ना तो अनादर की दृष्टि से देखा जाता था, ना ही किसी संदेह की दृष्टि से और ना ही कोई आक्षेप राजनीतिक तौर पर लगाया जाता था, जैसा कि आज हम में देखते हैं कि संघ के विरुद्ध एक अभियान सा चलता रहता है। में दावे से कह सकता हूँ कि यह वातावरण संघ को दुराग्रही दृष्टि से देखने के कारण ही है। कोई भी व्यक्ति संघ को अंदर से नहीं जानता है। वह इसकी आलोचनाओं में महज राजनीतिक टूल बनकर प्रतिक्रिया कर रहा है। एक फौजी होने के नाते में इस तथ्य को दावे से कह सकता हूँ कि संघ की वैचारिकी ही भारत की आवश्यकता है।

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