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भाग-2/ पितृ-पक्ष विशेष : सप्त ऋषि में प्रथम हैं महर्षि वशिष्ठ

महिमा तारे

भाग-2/ पितृ-पक्ष विशेष : सप्त ऋषि में प्रथम हैं महर्षि वशिष्ठ
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आर्य संस्कृति की मंगलकारी गूंज अखिल विश्व में अनुभूत की जा रही थी। एक ओर प्रतापी सम्राटों का साम्राज्य था तो दूसरी ओर तपोनिष्ठ ऋषियों की धर्म सत्ता भी थी, जिनमें वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम और कण्व के आश्रम बहुत प्रसिद्ध थे।

वशिष्ठ का मेत्रावरुण नाम भी प्रसिद्ध था। इनका जन्म देवभूमि प्रयागराज में हुआ। इनकी माता उर्वशी उन दिनों वरुण और सूर्य दोनों की ही सेवा करती थी, इसीलिए यह निर्णय नहीं हो सकता है कि वह सूर्य के पुत्र हैं या वरुण के। वरुण के सभी पुत्र ऋषि हुए, वशिष्ठ भी ऋषि हुए। वशिष्ठ ने अग्निहोत्र की स्थापना की और यज्ञ को प्रतिष्ठित किया। वशिष्ठ ऋग वैदिक थे। नारद को उनकी यज्ञ विधि स्वीकार नहीं थी। महर्षि वशिष्ठ जो भी पूजन विधि स्थापित करते, नारद उसके विपरीत दूसरी विधि स्थापित करते। यह सनातन संस्कृति का वैशिष्टय था, जिसमें प्रत्येक विचार को मान्यता भी दी गई। इसके चलते वशिष्ठ ने इलावर्त त्याग दिया और कुछ समय के लिए शाक द्वीप चले गए। उन दिनों अरब का नाम शाक द्वीप भी था। शाक द्वीप पर भी वशिष्ठ ने बड़े-बड़े यज्ञ किए। उनके यज्ञों के धुएं और सुगंध से दिशाएं व्याप्त रहती थी। वशिष्ठ फिर भारत चले आएं और सुदास के कुल गुरु और मंत्री बने। बाद में वे सूर्यवंश के कुल गुरु बने। वशिष्ठ एक आसंदी के रूप में भी स्थापित हुई। तुलसीकृत रामायण में तुलसीदास जी द्वारा उनका अयोध्या के राज महल में कितनी विशेष उपस्थिति है, इसका कई प्रसंगों में वर्णन किया है। जिसमें वशिष्ठ जी का भरत जी को बुलाने के लिए दूत भेजना। वशिष्ठ भरत संवाद जिसमें श्रीराम जी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी है। जनक-वशिष्ठ संवाद का विस्तृत वर्णन तुलसीदास जी ने किया है। वशिष्ठ अयोध्या के राजपुरोहित थे। उन्होंने ही दशरथ से पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया। श्रीराम जी का यज्ञोपवीत और विवाह कराया। साथ ही राम की राज्य अभिषेक की पूरी व्यवस्था भी वशिष्ठ जी ने ही की थी।

वही बाल्मीकि रामायण में राजर्षि विश्वामित्र का वशिष्ठ के आश्रम में जाना। महर्षि वशिष्ठ द्वारा विश्वामित्र के सत्कार के लिए कपिला नामक कामधेनु को आदेशित करना, कामधेनु की सहायता से उत्तम अन्न-पान द्वारा सेना सहित विश्वामित्र का आतिथ्य करना। विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ जी से कामधेनु को मांगना। वशिष्ठ जी के मना करने पर विश्वामित्र के सैनिकों द्वारा कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना और गो के अंगों द्वारा शक, यवन वीरों की सृष्टि कर विश्वामित्र को पराजित करना। विश्वामित्र का युद्ध में अपने सौ पुत्रों का विनाश होना और फिर विश्वामित्र का महादेव जी की तपस्या के लिए जाना, इसका विस्तृत वर्णन बाल्मीकि रामायण में किया गया है। वशिष्ठ वंश द्वारा रचित अनेक ग्रंथ उपलब्ध है। जैसे वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति, वशिष्ठ श्राद्ध कल्प। राम राज्य की कल्पना जो आज भी हम सब के लिए आदर्श है, उसके पीछे निश्चित रूप से वशिष्ठ ऋषि का तपोबल भी एक प्रमुख कारक है। यह वशिष्ठ ही थे जिन्होंने अपने ज्ञान एवं परिश्रम की पराकाष्ठा करके धर्म अनुकूल समाज निर्माण के लिए अपना सर्वस्व लगाया। उनके रचित साहित्य आज भी मार्गदर्शक है। वशिष्ठ ऋग्वेद के सातवें मंडल के प्रणेता कहे जाते हैं।

सप्त ऋषि में प्रथम हैं महर्षि वशिष्ठ

आर्य संस्कृति की मंगलकारी गूंज अखिल विश्व में अनुभूत की जा रही थी। एक ओर प्रतापी सम्राटों का साम्राज्य था तो दूसरी ओर तपोनिष्ठ ऋषियों की धर्म सत्ता भी थी, जिनमें वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम और कण्व के आश्रम बहुत प्रसिद्ध थे।

वशिष्ठ का मेत्रावरुण नाम भी प्रसिद्ध था। इनका जन्म देवभूमि प्रयागराज में हुआ। इनकी माता उर्वशी उन दिनों वरुण और सूर्य दोनों की ही सेवा करती थी, इसीलिए यह निर्णय नहीं हो सकता है कि वह सूर्य के पुत्र हैं या वरुण के। वरुण के सभी पुत्र ऋषि हुए, वशिष्ठ भी ऋषि हुए। वशिष्ठ ने अग्निहोत्र की स्थापना की और यज्ञ को प्रतिष्ठित किया। वशिष्ठ ऋग वैदिक थे। नारद को उनकी यज्ञ विधि स्वीकार नहीं थी। महर्षि वशिष्ठ जो भी पूजन विधि स्थापित करते, नारद उसके विपरीत दूसरी विधि स्थापित करते। यह सनातन संस्कृति का वैशिष्टय था, जिसमें प्रत्येक विचार को मान्यता भी दी गई। इसके चलते वशिष्ठ ने इलावर्त त्याग दिया और कुछ समय के लिए शाक द्वीप चले गए। उन दिनों अरब का नाम शाक द्वीप भी था। शाक द्वीप पर भी वशिष्ठ ने बड़े-बड़े यज्ञ किए। उनके यज्ञों के धुएं और सुगंध से दिशाएं व्याप्त रहती थी। वशिष्ठ फिर भारत चले आएं और सुदास के कुल गुरु और मंत्री बने। बाद में वे सूर्यवंश के कुल गुरु बने। वशिष्ठ एक आसंदी के रूप में भी स्थापित हुई। तुलसीकृत रामायण में तुलसीदास जी द्वारा उनका अयोध्या के राज महल में कितनी विशेष उपस्थिति है, इसका कई प्रसंगों में वर्णन किया है। जिसमें वशिष्ठ जी का भरत जी को बुलाने के लिए दूत भेजना। वशिष्ठ भरत संवाद जिसमें श्रीराम जी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी है। जनक-वशिष्ठ संवाद का विस्तृत वर्णन तुलसीदास जी ने किया है। वशिष्ठ अयोध्या के राजपुरोहित थे। उन्होंने ही दशरथ से पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया। श्रीराम जी का यज्ञोपवीत और विवाह कराया। साथ ही राम की राज्य अभिषेक की पूरी व्यवस्था भी वशिष्ठ जी ने ही की थी।

वही बाल्मीकि रामायण में राजर्षि विश्वामित्र का वशिष्ठ के आश्रम में जाना। महर्षि वशिष्ठ द्वारा विश्वामित्र के सत्कार के लिए कपिला नामक कामधेनु को आदेशित करना, कामधेनु की सहायता से उत्तम अन्न-पान द्वारा सेना सहित विश्वामित्र का आतिथ्य करना। विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ जी से कामधेनु को मांगना। वशिष्ठ जी के मना करने पर विश्वामित्र के सैनिकों द्वारा कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना और गो के अंगों द्वारा शक, यवन वीरों की सृष्टि कर विश्वामित्र को पराजित करना। विश्वामित्र का युद्ध में अपने सौ पुत्रों का विनाश होना और फिर विश्वामित्र का महादेव जी की तपस्या के लिए जाना, इसका विस्तृत वर्णन बाल्मीकि रामायण में किया गया है। वशिष्ठ वंश द्वारा रचित अनेक ग्रंथ उपलब्ध है। जैसे वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति, वशिष्ठ श्राद्ध कल्प। राम राज्य की कल्पना जो आज भी हम सब के लिए आदर्श है, उसके पीछे निश्चित रूप से वशिष्ठ ऋषि का तपोबल भी एक प्रमुख कारक है। यह वशिष्ठ ही थे जिन्होंने अपने ज्ञान एवं परिश्रम की पराकाष्ठा करके धर्म अनुकूल समाज निर्माण के लिए अपना सर्वस्व लगाया। उनके रचित साहित्य आज भी मार्गदर्शक है। वशिष्ठ ऋग्वेद के सातवें मंडल के प्रणेता कहे जाते हैं।

Updated : 7 Jan 2021 12:03 PM GMT
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