वैश्विक पुरस्कार: सम्मान या कूटनीतिक उपकरण

सम्मान या कूटनीतिक उपकरण
X

लेखक — शिवेश प्रताप। “वैश्विक धारणा-युद्ध(perception warfare) के बदलते परिदृश्य में पुरस्कार रणनीतिक प्रभाव के नियोजित उपकरण बन चुके हैं। जब मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत सांस्कृतिक पहचान को पुनः स्थापित कर रहा है और स्वतंत्र विकास मॉडल को अपनाने की ओर अग्रसर है, तब उसे पुरस्कारों की इस रणनीतिक शस्त्रीकरण प्रक्रिया के प्रति सजग रहना होगा। चुनौती यह समझना है कि कब कोई सम्मान योग्यता का नहीं, बल्कि एक एजेंडे का उपकरण बन रहा है जो आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर करने के लिए प्रयुक्त हो रहा है।“

डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हाल ही में नोबेल शांति पुरस्कार पाने की उत्सुकता, उनके द्वारा की गई लॉबिंग की खबरें और यहां तक कि पाकिस्तान जैसे देशों से मिली सिफारिशें, यह घटनाएँ दर्शाती हैं कि वैश्विक सम्मान उपलब्धियों से अधिक राजनीतिक छवि निर्माण के औजार बन चुके हैं। जिस तरह से ट्रंप ने अब्राहम समझौते को ऐतिहासिक बताते हुए अपने सहयोगियों को नामांकन के लिए प्रोत्साहित किया, यह स्पष्ट संकेत है कि प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार लगातार प्रतीकात्मक पूंजी बनता जा रहा है, जिनका उपयोग वैश्विक प्रभाव और धारणा-युद्ध (perception warfare) में किया जा रहा है।

नोबेल के अलावा, सखारोव पुरस्कार (यूरोपीय संघ), यूनेस्को गिलेरमो कैनो प्रेस स्वतंत्रता पुरस्कार तथा राइट लाइवलीहुड अवार्ड (स्वीडन), रेमन मैग्सेसे पुरस्कार जैसे अन्य वैश्विक सम्मान भी आलोचना के घेरे में हैं, क्योंकि इनकी चयन प्रक्रियाएं बार-बार पश्चिमी शासन व्यवस्था की वैचारिक प्राथमिकताओं को दर्शाती हैं।

ये पुरस्कार अक्सर दोहरी भूमिका निभाते हैं, अपने वैचारिक समर्थकों को पुरस्कृत करते हैं और किसी देश की राष्ट्रीय स्वायत्तता के अधिकारों-आकांक्षाओं को हतोत्साहित करते हैं। वैश्विक कूटनीति के रंगमंच में नोबेल शांति पुरस्कार और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार जैसे सम्मान अब अन्य देशों में राजनीति विरोधी समर्थन की सीमाएं लांघ चुके हैं। ये पुरस्कार अब वैचारिक इंजीनियरिंग, सॉफ्ट पावर प्रोजेक्शन और भू-राजनीतिक संकेतों के शक्तिशाली उपकरण बन चुके हैं। कभी किसी देश में विरोध को बढ़ावा देने, कभी शासन-सत्ता के बदलाव को समर्थन देने और कभी प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों के “सुधारवादियों” को शांति का प्रतीक बताने के रूप में ये पुरस्कार अब वैश्विक नैरेटिव युद्ध के हथियार बन चुके हैं, जिन्हें शांति, मानवाधिकार और मानवीय मूल्यों की चासनी में लपेट कर परोसा जाता है।

इन पुरस्कारों के सिद्धांत प्रशंसनीय हो सकते हैं, लेकिन जब ये चयन में पक्षपात, पश्चिमी देशों की आंतरिक विसंगतियों की अनदेखी, और विरोधियों के असंतोष को महिमामंडित करते हैं जबकि मित्र देशों की खामियों पर चुप्पी साधते हैं, तब इनकी वैधता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठते हैं। यह एक सुसंगत पश्चिमी सॉफ्ट पावर रणनीति को दर्शाता है, जिसमें “सम्मान” को वैश्विक नैतिक दबाव के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।खासकर उन राष्ट्रों के खिलाफ जो राष्ट्रवादी, बहुध्रुवीय या सांस्कृतिक रूप से आत्मनिर्भर रास्ता चुनते हैं, जैसे कि भारत।

नोबेल शांति पुरस्कार: एक भू-राजनीतिक उपकरण

नोबेल शांति पुरस्कार और इसी प्रकार के अन्य वैश्विक सम्मानों का इतिहास यह दर्शाता है कि ये पुरस्कार केवल शांति प्रयासों की निष्पक्ष मान्यता नहीं रहे, बल्कि पश्चिमी सॉफ्ट पावर का प्रतीक बन चुके हैं, जहाँ पश्चिमी हितों से जुड़े सुधारकों को पुरस्कृत किया जाता है और राष्ट्रवादी आंदोलनों या संप्रभु शासन व्यवस्थाओं को परोक्ष रूप से अवैध ठहराया जाता है।

1973 में, नोबेल शांति पुरस्कार वियतनाम युद्ध के दौरान पेरिस शांति समझौते के लिए हेनरी किसिंजर और ले डक थो को दिया गया। लेकिन यह निर्णय अत्यंत अचंभित करने वाला था क्योंकि किसिंजर को कंबोडिया में गुप्त बमबारी का आदेश देने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी, और ले डक थो ने यह कहते हुए पुरस्कार ठुकरा दिया कि यह शांति 'मिथ्या' है। यह क्षण नोबेल पुरस्कार की राजनीतिक प्रकृति को उजागर करता है की यह नैतिकता का प्रतीक नहीं, बल्कि एक रणनीतिक औजार था।ऐसा ही प्रतीकात्मक रुख 1989 में देखा गया जब दलाई लामा को यह पुरस्कार दिया गया, वह भी ठीक तियानआनमेन स्क्वायर नरसंहार के बाद। यह पुरस्कार चीन की सत्तावादी नीतियों के प्रति एक पश्चिमी विरोध का सीधा संकेत था, जिससे चीनी-पश्चिमी तनाव और तिब्बत मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण बढ़ा।

1990 में मिखाइल गोर्बाचेव को नोबेल पुरस्कार मिला, क्योंकि उन्होंने शीत युद्ध समाप्त किया, लेकिन रूस में इसे पश्चिम द्वारा सोवियत आत्मसमर्पण के उत्सव के रूप में देखा गया। उनकी ग्लासनोस्त और पेरोस्ट्रोइका नीतियों ने जहां पश्चिम को प्रेरित किया, वहीं रूस में आर्थिक और राजनीतिक संकट उत्पन्न किया, और अंततः USSR के विघटन का कारण बना।राजनीतिक शख्सियतों को जल्दी ही "शुद्ध और निर्दोष" घोषित करने की नोबेल की प्रवृत्ति 1991 में फिर दिखी जब आंग सान सू की को म्यांमार के सैन्य शासन के विरोध के लिए सम्मानित किया गया। यह पश्चिमी लोकतांत्रिक मॉडल को थोपने का एक प्रयास था। हालांकि, दशकों बाद जब उन्होंने रोहिंग्या नरसंहार पर चुप्पी साधी, तो उनके पुरस्कार को वापस लेने की मांग उठने लगी जो यह दर्शाता है कि ऐसे पुरस्कार अक्सर जटिल वास्तविकताओं की पूर्व-कल्पना नहीं कर पाते।

2001 में, नोबेल संयुक्त राष्ट्र और इसके महासचिव कोफी अन्नान को संयुक्त रूप से दिया गया। यह निर्णय 9/11 के बाद लिया गया, लेकिन 2003 में अमेरिका द्वारा इराक पर किए गए आक्रमण को UN द्वारा न रोक पाने की विफलता ने सवाल खड़े किए कि क्या यह पुरस्कार सिर्फ पश्चिमी हितों के अनुकूल वैश्विक संस्थाओं को वैधता देने का माध्यम बन गया है।हाल के वर्षों में सबसे अधिक आलोचना का शिकार बना नोबेल शांति पुरस्कार 2009 में पदभार ग्रहण किए मात्र 10 महीने के भीतर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को दिया गया सम्मान था। नोबेल समिति ने उनके “परमाणु हथियारों से मुक्त विश्व की कल्पना” का हवाला दिया, लेकिन आलोचकों ने इस तर्क पर गंभीर सवाल उठाए, विशेषकर तब जब ओबामा प्रशासन ने बाद में ड्रोन हमलों, लीबिया में सैन्य हस्तक्षेप और अफगानिस्तान में सैन्य वृद्धि को अंजाम दिया। स्वयं ओबामा ने भी 2020 में स्वीकार किया, “मुझे नहीं लगता कि मैं इसके योग्य था।”

2010 में, जेल में बंद चीनी असंतुष्ट लिउ शियाओबो को नोबेल शांति पुरस्कार मिला, जिससे बीजिंग ने तीखी प्रतिक्रिया दी। चीन ने इसे पश्चिमी वैचारिक हस्तक्षेप के रूप में देखा और नॉर्वे के साथ राजनयिक संबंधों को स्थगित कर दिया तथा पुरस्कार समारोहों पर सार्वजनिक प्रतिबंध लगा दिया।यह नोबेल के इतिहास में एक अभूतपूर्व कूटनीतिक प्रतिक्रिया थी।2014 में यह पुरस्कार मलाला यूसुफजई और कैलाश सत्यार्थी को संयुक्त रूप से दिया गया। इस दौरान मलाला का सम्मान पाकिस्तान में अमेरिका द्वारा किए गए ड्रोन हमलों की आलोचना के बीच “उदारवादी इस्लाम” के चेहरे को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत करने के रूप में देखा गया।

2020 में, डोनाल्ड ट्रंप ने स्वयं को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया, और इजराइल और खाड़ी देशों के बीच हुए अब्राहम समझौते को इसका आधार बताया। यह केवल आत्म-प्रशंसा नहीं थी, बल्कि एक रणनीतिक प्रयास था। आज के दौर में जब वैश्विक पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय वैधता और राजनयिक छवि निर्माण के औजार बन चुके हैं, ट्रंप ने इसे राजनयिक पूंजी और वैश्विक राय को पुनर्गठित करने के प्रयास के रूप में देखा, विशेष रूप से तब जब उन्हें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था। हालांकि यह पुरस्कार उन्हें नहीं मिला, परंतु यह पूरा घटनाक्रम यह स्पष्ट करता है कि आज के नेता वैश्विक सम्मानों को भू-राजनीतिक संपत्ति के रूप में देखते हैं, विशेषकर एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में जहाँ नैरेटिव मान्यता, सैन्य शक्ति जितनी ही अहम हो गई है।

2023 में नोबेल शांति पुरस्कार ईरानी कार्यकर्ता नर्गेस मोहम्मदी को दिया गया, जो ईरान के हिजाब कानूनों का विरोध करने के चलते जेल में हैं। उनकी व्यक्तिगत साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए, लेकिन पुरस्कार दिए जाने की राजनीतिक टाइमिंग ने कई सवाल खड़े किए, खासतौर पर जब ईरान और पश्चिम के बीच नवीन परमाणु वार्ताओं को लेकर तनाव चरम पर था। विश्लेषकों ने कहा कि यह पुरस्कार ईरान के धार्मिक शासन को कमजोर करने और तेहरान की घरेलू नीतियों की पश्चिमी आलोचना को नैतिक बल प्रदान करने की रणनीति का हिस्सा था।

अब पुनः डोनाल्ड ट्रंप की नामांकन की घटना ने अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के राजनीतिकरण को और अधिक उजागर किया। यह पूरा घटनाक्रम दर्शाता है कि वैश्विक सम्मान आज “राजनीतिक ब्रांडिंग” का हथकंडा बन चुके हैं, खासतौर पर लोकतांत्रिक संघर्षों से गुजर रहे देशों में, जहाँ सम्मान नैरेटिव की लड़ाई में निर्णायक हथियार बन जाते हैं।

भारत का सिविल सोसाइटी: विचारधारा की लड़ाई का मैदान

भारत में 2021 का एंटी-सीएए(नागरिकता संशोधन कानून विरोधी) आंदोलन यह साबित करने वाला एक अहम मोड़ था कि किस तरह अंतरराष्ट्रीय मंच अब घरेलू राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय हस्तक्षेप कर रहे हैं। शाहीन बाग़ आंदोलन की प्रतीक बनीं बिलकिस दादी को टाइम पत्रिका की ‘विश्व की 100 सबसे प्रभावशाली शख्सियतों’ की सूची में शामिल किया गया और उन्हें अनौपचारिक रूप से नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित करने के प्रयास भी हुए। जहाँ एक ओर समर्थकों ने इसे प्रतिरोध का प्रतीक बताया, वहीं आलोचकों ने इसे विदेशी मीडिया द्वारा सुनियोजित प्रचार अभियान के रूप में देखा, जिसका उद्देश्य भारत के आंतरिक विरोध को वैश्विक नैतिक संघर्ष के रूप में चित्रित करना था।

इसी प्रकार, नोबेल शांति पुरस्कार के लिए कई बार नामांकित हो चुकी पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने भारतीय किसान आंदोलन को समर्थन देते हुए जो ट्वीट किया, उसमें जुड़ा "टूलकिट" लिंक एक विदेशी पीआर नेटवर्क की रणनीति को उजागर कर बैठा। बाद की जांचों में यह स्पष्ट हुआ कि इस टूलकिट से जुड़े लोग और संगठन पार-राष्ट्रीय एक्टिविस्ट नेटवर्क का हिस्सा थे, जिनका उद्देश्य भारत की आंतरिक नीतियों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दुष्प्रचारित करना था।

1957 में रॉकफेलर ब्रदर्स फंड द्वारा स्थापित और फिलीपींस सरकार के सहयोग से प्रशासित रेमन मैगसेसे पुरस्कार, मूलतः कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी विचारधाराओं के प्रभाव को एशिया में संतुलित करने के लिए बनाया गया था। कोल्ड वॉर के दौर में, यह पुरस्कार उदारवादी-लोकतांत्रिक मूल्यों को "निःस्वार्थ सेवा" के नाम पर स्थापित करने का प्रयास था।

भारत में कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों को यह पुरस्कार मिला है, लेकिन समय के साथ देखा गया कि इनमें से कई की सक्रियता धीरे-धीरे विरोधी या राष्ट्र-विरोधी नैरेटिव से मेल खाने लगी। ये सम्मान अराजनीतिक दिखते हुए भी, एक ऐसे पश्चिमी-संरचित सिविल सोसाइटी तंत्र में प्रवेश का माध्यम बन गए, जो खासतौर पर राष्ट्रवादी सरकारों के खिलाफ असहमति को पुरस्कृत करता है, खासकर उन सरकारों के विरुद्ध जो सांस्कृतिक या रणनीतिक संप्रभुता का दावा करती हैं।

2001 में मेधा पाटकर को यह पुरस्कार मिला। उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन का नेतृत्व किया, जो पर्यावरणीय चिंताओं को उजागर करता था, लेकिन यह आंदोलन बड़े बांधों और बुनियादी ढांचे के विकास को रोकने का मंच बन गया। धीरे-धीरे यह एक विकास-विरोधी नैरेटिव में तब्दील हो गया, जिसमें गुजरात की विकास नीतियों को ही कटघरे में खड़ा किया गया। इस आंदोलन का गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल और ऊर्जा क्रांति के लिए बनाए जा रहे बाँध के विरोध में बार-बार उपयोग किया गया। यह नैरेटिव वामपंथी बुद्धिजीवियों, विदेशी फंडिंग प्राप्त NGO और पश्चिमी पर्यावरण समूहों द्वारा बार-बार यह सिद्ध करने के लिए उठाया गया कि भारत में मानवाधिकारों की अनदेखी हो रही है।

नतीजतन, यह आंदोलन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को निशाना बनाने का औजार बना, खासकर तब जब वह राष्ट्रीय राजनीति में उभार पर थे। घरेलू और वैश्विक मंचों पर इस आंदोलन का प्रयोग उनके खिलाफ माहौल बनाने में किया गया।

अरविंद केजरीवाल, जिन्हें 2006 में RTI (सूचना के अधिकार) के क्षेत्र में कार्य के लिए रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, 2011 में अन्ना हज़ारे द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एक प्रमुख चेहरा बने। हालांकि बाद में वे राजनीति में उतरकर आम आदमी पार्टी (AAP) के माध्यम से सक्रिय हो गए, जो अब कई भ्रष्टाचार के विवादों से फंसी है। 2011 का आंदोलन एक ओर जहाँ नागरिक चेतना के रूप में देखा गया, वहीं पर्दे के पीछे विदेशी फंडिंग प्राप्त NGO और वैश्विक सिविल सोसाइटी प्लेटफॉर्म इस आंदोलन को संचालित करने में लगे हुए थे।

इसमें केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा संचालित NGO 'कबीर' प्रमुख था, जिसे Ford Foundation से आर्थिक सहायता मिली थी। यह संस्था लंबे समय से अमेरिकी सॉफ्ट पावर रणनीति से जुड़ी मानी जाती है। इसी प्रकार, कई अन्य संगठनों को जॉर्ज सोरोस की Open Society Foundations से समर्थन मिला, यह एक ऐसी संस्था जो गैर-पश्चिमी देशों में उदारवादी लोकतांत्रिक परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिए जानी जाती है। इस प्रकार की वित्तीय और वैचारिक संलिप्तता ने यह वाजिब चिंता पैदा की कि कहीं ये वास्तविक जन आंदोलनों को बाहरी हितों द्वारा नियंत्रित राजनीतिक अभियानों में परिवर्तित करने का प्रयास तो नहीं है।

सबसे गंभीर चिंता यह रही कि AAP ने कई आंदोलनों और चुनाव अभियानों के दौरान उग्रपंथी तत्वों को परोक्ष समर्थन दिया। पंजाब में, पार्टी के कई नेताओं पर खालिस्तानी अलगाववादियों के प्रति सहानुभूति रखने और मंच साझा करने के आरोप लगे, विशेषकर 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों के दौरान। स्वयं केजरीवाल को शाहीन बाग़ आंदोलन में आंदोलनकारियों का पक्ष लेने और CAA व NRC पर अस्पष्ट रुख अपनाने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी, जिससे कई लोगों को लगा कि उन्होंने पहचान आधारित अलगाववाद की राजनीति को बढ़ावा दिया।

अन्य पुरस्कार विजेता जैसे हर्ष मंदर (2002) और संदीप पांडे (2002) भी चर्चा में रहे हैं। हर्ष मंदर ने बार-बार अंतरराष्ट्रीय मंचों का उपयोग भारत की संवैधानिक संस्थाओं और न्यायपालिका की आलोचना के लिए किया है। वे अक्सर भारतीय कानून व्यवस्था को "फासीवादी" या "बहुसंख्यकवादी" करार देते हैं। ऐसी भाषा जो पश्चिमी मानवाधिकार रिपोर्टों में भी दोहराई जाती है। संदीप पांडे को बाद में IIT-BHU से निष्कासित कर दिया गया, जब उन पर राष्ट्रविरोधी शिक्षण सामग्री और उत्तेजक सार्वजनिक वक्तव्यों के आरोप लगे, जिन्हें राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल माना गया।

समग्र रूप से, ये सभी व्यक्ति, जिन्हें कभी नागरिक साहस या सुशासन में नवाचार के लिए सम्मानित किया गया था, अब "लोकतांत्रिक जनादेश" के विरोधी नैरेटिव तंत्र में सक्रिय भूमिका निभाते दिखाई देते हैं। ये लोग विदेशी फंडिंग से चलने वाली एक्टिविस्ट नेटवर्क का हिस्सा बन जाते हैं, जहाँ पुरस्कार और मान्यताएं केवल सम्मान नहीं, बल्कि रणनीतिक साधन बन जाते हैं, जो विपक्षी नैरेटिव को अंतरराष्ट्रीय वैधता प्रदान करते हैं। इस कारण ये चेहरे न केवल अपने अतीत के लिए बल्कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती देने की उपयोगिता के लिए मास मोबलाइज़ेशन, मीडिया अभियानों और अंतरराष्ट्रीय लॉबिंग में बार-बार उभारे जाते हैं।

पुरस्कार-आधारित हस्तक्षेप के विरुद्ध मोदी की रणनीति

2014 में सत्ता संभालने के बाद, मोदी सरकार ने यह भली-भांति समझा कि भारत के आंतरिक विमर्श को प्रभावित करने में विदेशी फंडिंग से चलने वाले NGO, पश्चिमी पुरस्कार एवं वैश्विक सिविल सोसाइटी अभियानों की रणनीतिक भूमिका रही है। इस प्रभाव को सीमित करने के लिए सरकार ने बहु-स्तरीय रणनीति अपनाई। इस प्रयास का मुख्य आधार बना Foreign Contribution Regulation Act (FCRA) के अंतर्गत एक व्यापक कार्रवाई। 2014 से 2021 के बीच, 20,000 से अधिक NGO के FCRA लाइसेंस रद्द कर दिए गए, जिनमें या तो उल्लंघन पाए गए या संदिग्ध फंडिंग हुई थी।

2015 में खुफिया ब्यूरो (IB) की रिपोर्ट "Impact of NGOs on Development" में बताया गया कि कई विदेशी-धन प्राप्त संगठन भारत की आर्थिक प्रगति को जानबूझकर धीमा कर रहे थे, विशेषकर बुनियादी ढाँचा, ऊर्जा, खनन और परमाणु विकास जैसे क्षेत्रों में — और यह सब "जन अधिकार" या "पर्यावरणीय न्याय" जैसे नारों के तहत किया जा रहा था।

लेकिन मोदी सरकार ने केवल विरोधी नेटवर्क को नष्ट ही नहीं किया, बल्कि उसने वैकल्पिक नैरेटिव स्ट्रक्चर भी खड़ा किया। रणनीति दो भागों में थी: बाहरी वैधता (external validation) को रोकना और स्वदेशी पहचान प्रणालियों को बढ़ावा देना।

सरकारी-संलग्न संस्थाओं ने 2014 के बाद से पद्म पुरस्कारों को नए रूप में प्रस्तुत किया, जहाँ अब गुमनाम जमीनी कार्यकर्ता, पारंपरिक ज्ञान धारक, जनजातीय नवप्रवर्तक, सामाजिक कार्यकर्ता, और गैर-एलीट योगदानकर्ता सम्मानित होने लगे। इस बदलाव ने न केवल सम्मान को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि विदेशी पुरस्कारों (जैसे रेमन मैगसेसे) की वैचारिक एकाधिकारिता को भी समाप्त किया, जो अक्सर ऐसे सिविल सोसाइटी कार्यकर्ताओं को वैधता प्रदान करते थे जो भारतीय राष्ट्रीय हितों के विरोधी नैरेटिव को बढ़ावा देते थे।

इसके साथ ही, सरकार ने भारतीय मूल्य आधारित NGO, थिंक टैंक और शैक्षणिक संस्थानों को प्रोत्साहन दिया, जो संवैधानिक राष्ट्रवाद, भारतीय ज्ञान परंपराएं और जवाबदेही से युक्त विकास मॉडल को बढ़ावा देते हैं। जैसे कि नीति आयोग, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, IIT गांधीनगर का भारतीय ज्ञान प्रणाली केंद्र और दीनदयाल शोध संस्थान आदि। कई संस्थानों को वैचारिक अनुशासन और सांस्कृतिक विमर्श के पुनर्स्थापन के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।

सबसे महत्वपूर्ण यह रहा कि सरकार ने विदेशी हस्तक्षेप पर कूटनीतिक स्तर पर भी जवाब देना शुरू किया। चाहे वह पक्षपाती मानवाधिकार रिपोर्टों को खारिज करना हो, सेलिब्रिटी-समर्थित टूलकिट अभियानों का खंडन करना, या फिर संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं द्वारा घरेलू कानूनों में दखल पर विरोध दर्ज कराना हो, भारत ने अपने आंतरिक मामलों में संप्रभुता का अधिकार पहले से कहीं अधिक दृढ़ता से जताया। कानूनी, सांस्कृतिक और नैरेटिव नियंत्रण तंत्रों के संयोजन के माध्यम से मोदी सरकार ने वैश्विक पुरस्कारों को सॉफ्ट पावर हथियार की तरह प्रयोग करने वाली रणनीति को रोका और भारत की संप्रभुता और आत्मनिर्णय के अधिकार की पुनः स्थापना की।

वैश्विक धारणा-युद्ध(perception warfare)के बदलते परिदृश्य में, नोबेल शांति पुरस्कार, रेमन मैगसेसे पुरस्कार और विभिन्न संयुक्त राष्ट्र समर्थित सम्मान अब केवल योग्यता के प्रतीक नहीं रह गए हैं, ये रणनीतिक प्रभाव के नियोजित उपकरण बन चुके हैं। चाहे यह उदार अंतरराष्ट्रीय विचारधारा से जुड़े सुधारवादियों को वैधता देना हो, राष्ट्रवादी या सांस्कृतिक रूप से समर्पित शासन व्यवस्थाओं को अवैध ठहराना हो, या फिर जलवायु, लैंगिक, या मानवाधिकार जैसे एजेंडा-विशेष नीतिगत हस्तक्षेप को आगे बढ़ाना हो, इन सम्मानों का उपयोग अब एक बड़े भू-राजनीतिक रणनीति के हिस्से के रूप में किया जा रहा है। वैश्विक मीडिया प्लेटफॉर्म भी इस पारिस्थितिकी तंत्र के साथ समन्वय में काम करते हैं, चुनी हुई आवाज़ों को जोर देकर प्रस्तुत करते हैं जबकि अन्य को दबा देते हैं, जिससे एक विकृत नैरेटिव असंतुलन उत्पन्न होता है जो राष्ट्रीय एवं संज्ञात्मक संप्रभुता के खिलाफ वैश्विक मत-निर्माण को आकार देता है।

जब मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत अपनी संप्रभुता एवं सांस्कृतिक पहचान को पुनः स्थापित कर रहा है और स्वतंत्र विकास मॉडल को अपनाने की ओर अग्रसर है, तब उसे पुरस्कारों की इस रणनीतिक शस्त्रीकरण प्रक्रिया के प्रति सजग रहना होगा। चुनौती पुरस्कारों का विरोध करना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि कब कोई सम्मान योग्यता का नहीं, बल्कि एक एजेंडे का उपकरण बन रहा है, जो विरोध को बढ़ावा देने, राजनीतिक असहमति का निर्माण करने, या आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सूक्ष्म रूप से कमजोर करने के लिए प्रयुक्त हो रहा है।

भारत को अपनी नैरेटिव संप्रभुता (narrative sovereignty) को संरक्षित करने के लिए, मोदी सरकार द्वारा अपनाए जा रहे प्रयासों जैसे देशज मान्यता तंत्रों का निर्माण, स्थानीय उपलब्धियों को प्रोत्साहन के साथ विश्व से अपने ही दृष्टिकोण और शर्तों पर संवाद करना होगा, न कि विदेशी प्रभाव से स्थापित मंचों से। यह एक आत्मविश्वासपूर्ण और सचेत राष्ट्रहित, सांस्कृतिक गौरव तथा भू-राजनीतिक स्पष्टता के माध्यम से ही संभव है।

(लेखक एक वरिष्ठ लोकनीति विश्लेषक एवं रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं।)

Tags

Next Story