PM Kamla Persad: त्रिनिदाद और टोबैगो कैसे बना 'मिनी बिहार'? जानिए 180 साल पुरानी गिरमिटिया कहानी

- भारत से पहला गिरमिटिया समूह फातेल रज़्ज़ाक जहाज से त्रिनिदाद पहुंचा था।
- 225 भारतीय मजदूर ब्रिटिश उपनिवेशों में गन्ना खेतों में काम करने भेजे गए थे।
- ‘गिरमिट’ शब्द लेबर एग्रीमेंट (Labour Agreement) से निकला।
- इन मजदूरों को 'गिरमिटिया' कहा जाने लगा।
Who is Trinidad and Tobago PM Kamla Persad: त्रिनिदाद और टोबैगो की प्रधानमंत्री कमला प्रसाद बिसेसर भारतीय मूल की हैं। उनके पूर्वज लगभग 1880 के दशक में गिरमिटिया मजदूर के रूप में बिहार से त्रिनिदाद पहुंचे थे। सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षिका के रूप में अपने करियर की शुरुआत करने वाली बिसेसर ने 1987 में राजनीति में कदम रखा। उनकी मेहनत और नेतृत्व क्षमता के दम पर वह 1995 में सांसद बनीं और 2010 में त्रिनिदाद और टोबैगो की पहली महिला प्रधानमंत्री बनकर इतिहास रच दिया।
भारत और त्रिनिदाद का रिश्ता केवल नेताओं या सरकारों तक नहीं जुड़ा। यह भावनात्मक जुड़ाव 1845 में शुरू हुआ, जब पहले गिरमिटिया मजदूर भारत से त्रिनिदाद पहुंचे। अब जब यह संबंध 180 साल का सफर पूरा कर रहा है।
त्रिनिदाद में बसती है भारत की मिट्टी की खुशबू
आज त्रिनिदाद एंड टोबैगो की लगभग 40% आबादी भारतीय मूल की है। इन लोगों के पूर्वज कभी बिहार और उत्तर प्रदेश से गन्ने के खेतों में काम करने के लिए यहां आए थे। प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा उन लाखों प्रवासियों के संघर्ष और योगदान को सम्मान देने का एक अवसर है। यह वही कहानी है, जो आज त्रिनिदाद को 'मिनी बिहार' की पहचान दिलाती है।
‘फातेल रज्जाक’ से शुरू हुआ हजारों सपनों का सफर
30 मई 1845 को त्रिनिदाद और टोबैगो के तट पर एक जहाज ‘फातेल रज्जाक’ पहुंचा, जिसमें 225 भारतीय मजदूर सवार थे। ये सभी मजदूर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से लाए गए थे। उनकी मंज़िल थी गन्ने के खेत, और रास्ता था 13,000 किलोमीटर लंबा सफर। इन्हें 5 से 7 साल के अनुबंध पर ले जाया गया था, जिसे 'गिरमिट' कहा जाता था। इसी से इन्हें 'गिरमिटिया मजदूर' कहा जाने लगा।
‘गिरमिटिया’ शब्द की शुरुआत
वरिष्ठ स्तंभकार प्रमोद जोशी के अनुसार, 17वीं सदी में अंग्रेजों ने भारत से मजदूरों को विदेशों में काम के लिए भेजना शुरू किया। इन मजदूरों को 'गिरमिटिया' कहा गया। यह शब्द अंग्रेजी के 'एग्रीमेंट' से निकला, क्योंकि मजदूरों से एक कागज़ पर अंगूठा लगवाकर अनुबंध करवाया जाता था, जिसे लोग बोलचाल में 'गिरमिट' कहने लगे। हर साल करीब 10 से 15 हजार मजदूर फिजी, त्रिनिदाद, टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका और कई दूसरे देशों में भेजे जाते थे। यह प्रथा 1834 में शुरू हुई और 1917 में जाकर खत्म हुई।
गिरमिटिया प्रवास की बड़ी कहानी
डॉ. सारिका जगताप ( गिरमिटिया मजदूरों पर शोध कर चुकी हैं) बताती हैं कि 1834 में जब ब्रिटेन ने गुलामी प्रथा को खत्म किया तब यूरोपीय उपनिवेशों में खासकर गन्ने के खेतों में काम करने वाले मजदूरों की भारी कमी हो गई। इस जरूरत को पूरा करने के लिए भारत से मजदूरों को अनुबंध (गिरमिट) के तहत वेस्टइंडीज, फिजी और अन्य देशों में भेजा जाने लगा। यह सिलसिला कई सालों तक चला और लाखों भारतीय गांवों से निकलकर इन दूर देशों में पहुंच गए।
लाखों भारतीयों ने छोड़ा घर
ब्रिटिश दौर में भारत, खासकर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में मजदूरों को अनुबंध (गिरमिट) पर विदेश भेजा गया। शुरुआत मॉरीशस से हुई। इसके बाद सूरीनाम, फिजी और त्रिनिदाद एंड टोबैगो जैसे देशों में मजदूर पहुंचने लगे। 1834 से 1920 तक करीब 15 लाख भारतीय मजदूर इस व्यवस्था के तहत बाहर गए। अकेले त्रिनिदाद और टोबैगो में ही 1845 से 1917 के बीच 1.43 लाख से अधिक मजदूरों को ले जाया गया।
भारतीयों ने रचा त्रिनिदाद में इतिहास
1902 तक आते-आते त्रिनिदाद में आधे से ज्यादा गन्ने की खेती भारतीयों के नियंत्रण में आ गई थी। इन लोगों ने बेहद कठिन हालातों में भी हार नहीं मानी और धीरे-धीरे अपनी एक मजबूत पहचान बनाई। यही मजदूर और उनके वंशज बाद में देश के विकास की रीढ़ साबित हुए। आज 2025 में त्रिनिदाद और टोबैगो की कुल आबादी में करीब 42% लोग भारतीय मूल के हैं। यानी हर दूसरा शख्स भारत से किसी न किसी तरह जुड़ा है। इसी वजह से इस देश को अक्सर 'मिनी बिहार' कहा जाता है।
त्रिनिदाद में गूंजती है भोजपुरी
त्रिनिदाद में रहने वाले ज़्यादातर भारतीय मूल के लोग बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी क्षेत्रों से हैं, जैसे छपरा, आरा, बलिया, सिवान, गोपालगंज, बनारस और आजमगढ़। यहां आज भी रामचरितमानस का पाठ होता है, लोकगीत गूंजते हैं, चौती नाच और रामलीला होती है। होली और दीवाली जैसे त्योहार उसी उमंग से मनाए जाते हैं। गिरमिटिया लोग अपने साथ अपनी भाषा, परंपरा और संस्कृति को भी इस धरती पर जीवित कर गए। त्रिनिदाद के कुछ स्कूलों में आज भी भोजपुरी बोली जाती है।
दिल से जुड़े हैं भारत और त्रिनिदाद
त्रिनिदाद और टोबैगो को 1962 में भले ही आजादी मिली हो, लेकिन भारत के साथ उसका जुड़ाव 1845 से ही शुरू हो चुका था, जब जहाज ‘फातेल रजाक’ पहली बार भारतीयों को लेकर वहां पहुंचा। भारत ने त्रिनिदाद की आजादी के तुरंत बाद ही उससे राजनयिक संबंध बनाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी साल 2000 में त्रिनिदाद जा चुके हैं, जब वे बीजेपी के महासचिव थे। विश्व हिंदू सम्मेलन में हिस्सा लेने पहुंचे थे।
'मिनी बिहार' की पहचान आज भी ज़िंदा
13,800 किलोमीटर दूर बसा त्रिनिदाद आज भी भारत की संस्कृति और परंपराओं का प्रतिबिंब है। जिन गिरमिटिया मजदूरों ने कभी खेतों में पसीना बहाया, उनकी अगली पीढ़ियां आज डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक और नेता बन चुकी हैं। उनका दिल आज भी आरा, बक्सर और छपरा की मिट्टी से जुड़ा हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल में कहा था कि गिरमिटिया चाहे जहां भी गए, उन्होंने अपनी संस्कृति नहीं छोड़ी। यही संस्कृति आज भारत और त्रिनिदाद के बीच सेतु की तरह काम कर रही है।
भारतीय मूल की कमला प्रसाद-बिसेसर बनीं त्रिनिदाद की पहली महिला प्रधानमंत्री
कमला प्रसाद-बिसेसर का जन्म 1952 में त्रिनिदाद के ग्रामीण इलाके सिपारिया में हुआ था। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरीन उपलब्धियां हासिल कीं। कानून की पढ़ाई में उन्होंने ऑनर्स के साथ अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके बाद उन्होंने वेस्ट इंडीज़ विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी। उनकी राजनीतिक यात्रा 1987 में एक स्थानीय पार्षद के रूप में शुरू हुई। वे 1995 में त्रिनिदाद की पहली महिला अटॉर्नी जनरल बनीं और 2006 में विपक्ष की पहली महिला नेता के रूप में उभरीं। 2010 में उन्होंने देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनकर इतिहास रच दिया।