निष्ठा खोते नेता, "अवसरनीति" में बदली "राजनीति"

राजनीति में बढ़ते जा रहे स्वार्थ के कारण जिस प्रकार से धुर विरोधी दल एक- दूसरे के समीप आ रहे हैं, उसे देखकर यही लगता है कि यह सभी सत्ता के लिए ही अपनी राजनीति करते हैं। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में भी चुने हुए कुछ विधायक केवल अपने लिए मंत्री पद पाने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। मंत्री पद नहीं मिलने के कारण सरकार के सामने पेचीदगी भी स्थापित कर रहे हैं। ऐसे में सवाल यह आता है कि क्या यह जन प्रतिनिधि सत्ता सुख पाने के लिए ही विधायक बने हैं? यह जन प्रतिनिधि विधायक या मंत्री पद की शपथ लेते समय ऐसा प्रदर्शित करते हैं, जैसे इनसे बड़ा जनप्रतिनिधि कोई दूसरा है ही नहीं, लेकिन सवाल यह है कि जनसेवा करने के लिए किसी पद की आवश्यकता नहीं होती, केवल भावना होना चाहिए।
राजशाही के दौर में जन्म लिए राजनीति शब्द का चलन भले ही आज भी है, लेकिन प्रजातंत्र के दौर में आते-आते इसका अर्थ बदल गया है, अब इसमें ना तो राजा द्वारा जनता के लिए बनाई गई नीतियों वाले भाव हैं और ना ही प्रजा के लिए विकसित किये जाने वाले तंत्र की इच्छाशक्ति। अब ये राजनीति से बदल कर अवसरनीति हो गई है। ताजा उदाहरण कर्नाटक और उत्तरप्रदेश का राजनैतिक परिदृश्य है। कर्नाटक में जहाँ सरकार बनने के लगभग सात महीने बाद ही कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच राजनीतिक नूराकुश्ती चल रही है वहीं उत्तरप्रदेश में एक- दूसरे के धुर विरोधी और विधानसभा चुनावों में एक- दूसरे को पटखनी देने के लिए तरह तरह के पेंतरे अपनाने वाली सपा-बसपा लोकसभा चुनाव के लिए साथ हो गए हैं।
कर्नाटक में दो निर्दलीय विधायकों द्वारा अचानक सरकार से समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा के बाद राजनीतिक हलचल तेज हो गई, इसी बीच अब खबर है कि कांग्रेस के सात विधायक भी पार्टी और विधायकी दोनों छोड़ सकते हैं। इन असंतुष्ट विधायकों में से तीन मुंबई के रेनिसन्स होटल में रुके होने और भाजपा के संपर्क में होने की खबर आई, हालाँकि मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी का कहना है कि हमारे सभी विधायक हमारे संपर्क में हैं और हमारी सरकार को किसी तरह का खतरा नहीं है। उधर गुरुग्राम (गुङगांव) के एक रिसोर्ट में भाजपा के सभी 104 विधायकों को लेकर मुख्यमंत्री पद के दावेदार बीएस येदियुरप्पा पहुँच गए। कुल मिलकर कर्नाटक की राजनीति के अब तीन ध्रुव बन गए हैं, एक राजधानी बेंगलुरु, दूसरा मुंबई और तीसरा गुरुग्राम। अब इस परिदृश्य को समझा जाये तो विधायकों की नाराजगी का मुख्य रूप से एक ही कारण हो सकता है वो ये कि उनको मंत्री क्यों नहीं बनाया गया। अर्थात विधायक बनने के बाद, सदन में शपथ लेने के बाद अपने विधानसभा क्षेत्र की जनता की चिंता छोड़कर मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जागृत हो गई है। अब यदि ये विधायक अपनी पार्टी छोड़ते हैं तो उस मतदाता से कौन माफी मांगेगा जिसने सिर्फ चुनाव चिन्ह देखकर पार्टी को वोट दिया होगा चुनाव लड़ रहे व्यक्ति को नहीं। सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा स्थिति पर नजर जमाये हुए है उसके नेता वामन आचार्य का दावा है कि कुछ कांग्रेस विधायक हमारे पार्टी के नेता सीएन अश्वथनारायण के संपर्क में हैं यदि सरकार गिरती है तो जनादेश के अनुसार हम सरकार बनाएंगे और यदि कर्नाटक में ऐसा हो जाता है तो 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका बहुत लाभ मिलेगा। अभी कर्नाटक में भाजपा के पास 104 विधायक हैं लेकिन 224 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण सरकार नहीं बना पाई। उधर 80 सीटों वाली कांग्रेस ने 37 सीट लाने वाली जेडीएस से हाथ मिलाकर उनके नेता एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया। जो अब हिल रही है और उसे बचाने के लिए पार्टी के नेता जी-जान से जुटे हैं।
उधर उत्तरप्रदेश के राजनैतिक समीकरण भी समझने की जरुरत है। पिछले विधानसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन कर चुकी भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनावों में रोकने के लिए एक-दूसरे के धुरु विरोधी बुआ-भतीजे मायावती और अखिलेश ने हाथ मिला लिया है और 38-38 सीटों पर समझौता कर लिया है। इसमें कांग्रेस के हाथ को छिटककर दूर कर दिया है। हालाँकि कांग्रेस ने यहाँ सभी सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा कर भाजपा सहित बुआ-भतीजे को भी चुनौती पेश कर दी है। अब इसे राजनीति की जगह अवसरनीति नहीं कहा जाये तो और क्या कहा जाये? बहरहाल कर्नाटक हो या उत्तरप्रदेश या अन्य कोई राज्य, देश के सभी राज्यों के नेताओं ने जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन की प्रजातंत्र की परिभाषा को बदलकर अपने द्वारा, अपने लिए, अपना शासन बना दिया है।
