श्रीकृष्ण और निष्काम कर्मयोग की श्रेष्ठता

श्रीकृष्ण और निष्काम कर्मयोग की श्रेष्ठता
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-कर्मयोग के आदर्श प्रतिष्ठापक-सर्वेश्वर श्रीकृष्ण

मधुकर चतुर्वेदी/आगरा। भारतभूमि अनन्तानन्त तीर्थो की भूमि, मनुष्यों की कर्मभूमि, ऋषि-मुनियों की तपोभूमि, धर्माचार्यों की साधनभूमि एवं भगवान श्रीहरि की अवतारलीलाभूमि है। दिव्य लोकों में अवस्थित देववृंद भी भारत की महिमा गाते हैं। 'गायन्ति देवाः किल गीतकानि' इत्यादि। यहां भगवान के विविध अवतारों में से श्रीकृष्णावतार परिपूर्णतम अवतार माना गया है। जैसे एक दीपक से दूसरे दीपक को प्रज्वलित करने पर उसके प्रकाश में किसी प्रकार का न्यूनाधिक्य नहीं रहता, उसी प्रकार नित्यविभूति से लीलाविभूति में अवतीर्ण होने पर प्रभू की समस्त गुणशक्तियां यथावत रहती हैं। श्रीकृष्ण की लीलाओं को सुनना, गाना और वर्णन करना एक उत्सव, ससत अनुभूति है। इसलिए श्रीकृष्ण स्वयं ही नित्य उत्सवरूप हैं। तभी को जब भक्त प्रभू के दर्शन करता है तो उसे धारावाहिक, एक जैसी अनुभूति नहीं होती। भक्त को रसस्वरूप प्रभू प्रतिक्षण अपने आलौकिक सौंदर्य का, दिव्यातिदिव्य भावों और अर्थों का नया-नया बोध करवाते रहते हैं।

श्रीमद् बल्लभाचार्य जी ने कहा कि 'उत्सवों नाम मनसः सर्वविस्मारक आल्हादः' श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव इतना अधिक रसमय है कि हमारा तन और मन रसमय हो जाता है और हम सबकुछ भूल जाते हैं। श्रीकृष्ण चरित्र के प्रति भारत की नहीं अपितु विश्वभर इतनी अधिक ररमय आत्मीयता इसलिए भी है क्योंकि श्रीकृष्ण ने अपने जन्म से लेकर महाभारत की युद्धभूमि तक केवल और केवल निष्कामकर्म योग के रूपरूप और इसके दर्शन का प्रतिपादन किया। अर्जुन को उपदेश देते हुए उन्होंने कहा था कि प्रकृति ने प्रत्येक मनुष्य को कर्म करने में स्वतंत्र बना रखा है। अतएव उसके कार्य की जिम्मेदारी उसी पर है। वह कर्म करने में स्वतंत्र है, किंतु फलभोग में परतंत्र है। मनुष्य के अन्तःकरण में बसने वाले दो प्रधान शत्रु हैं-काम और कोध्र। ये ही सारे अनर्थो की जड़ हैं। इन्हीं की प्रेरणा से मनुष्य पापकर्म की ओर प्रेरित होता है। ये दोनों शत्रु हमारे मन में रहते हैं और हम ही इनको प्रोत्साहन देते हैं। अतः इनके द्वारा होने वाले कर्म भी हमारे ही दिए हुए समझे जाते हैं। अतः कोई भी मनुष्य, जो राग-द्वेष या कामना के वशीभूत होकर कर्म करता है, अपने किए हुए कर्मो के उत्त्रदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता। उसे उनका फल अवश्य भोगना पडे़गा।

महाभारत की युद्धभूमि से निकले इस सूत्रवाक्य का गंभीरता से अगर हम विवेचन करें तो स्पष्ट है कि यदि ऐसा मान लिया जाए कि सब कुछ ईश्वर ही करते हैं, तब तो परमात्मा को विषम दृष्टि रखने वाला और निष्ठुर मानना पड़ेगा। क्योंकि उन्होंने सबको एक सा नहीं बनाया है। किसी को सुंदर बनाया तो किसी को असुंदर, किसी को काना या कुबड़ा कर दिया। कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई धनी, कोई दरिद्र-ऐसी विषमता या निर्दयता क्या कभी ईश्वर करते या कर सकते हैं। नहीं, अतः यह मानना पड़ेगा कि जीवों को अपने किए कर्मो का ही दंड या पुरस्कार मिलता है। भगवान तो शक्तिदाता, नियामक और साक्षी मात्र है। यद्यपि यह ठीक है कि भगवान सर्वज्ञ हैं, यह भी सत्य है कि वे भविष्य में होने वाली सभी बातों को जानते हैं। अतः जो भी उनके ज्ञान या निश्चय में है, वही होगा। तथापि मनुष्य को सदा शुभ कर्म ही करने चाहिए और अशुभ से बचना चाहिए। इसलिए आजतक केवल और केवल श्रीकृष्ण को ही पूर्ण अवतार मानते हुए उनके चरित्र का अनुसरण गीता के कर्मयोग के आधार पर करने के व्याख्यान हमें प्रतिदिन सुनने को मिलते हैं।

श्रीकृष्ण का चरित्र सर्वज्ञ हैं, वे ही शास्त्रद्वारा मनुष्य को यह पे्ररणा देते हैं कि वह सत्कर्म करे और पाप से बचे। श्रीकृष्ण के चरित्र और दर्शन से स्पष्ट है कि मनुष्य अपनी रूचि के अनुसार कर्म करने में स्वतंत्र है और यह स्वतंत्रता सर्वज्ञ ईश्वर की दृष्टि में पहले से ही मौजूद है। मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र है, इसका अनुमोदन करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो न्यायोचित कर्तव्य है, उसके लिए चेष्टा करना सभी के लिए उचित है। प्रकृति ने स्वयं मनुष्य का स्वभाव ऐसा बना दिया है कि वह कर्म किए बिना रह ही नहीं सकता। गीता में एक वाक्य आया है कि 'न हि कश्चित क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत'। अर्थात मनुष्य का स्वभाव उसे चुपचाप बैठने नहीं देगा। भगवान ने पहले से निश्चय कर रखा है-यह विचार कर कोई भी हाथ-पर-हाथ धरे बैठा रह सके, यह संभव नहीं है। उसकी प्रकृति उसे कर्म में लगा देगी। श्रीकृष्ण कहते हैं जब मनुष्य अपनी रूचि के अनुसार कार्य में लगेगा, बस यहीं से योग का उदय होगा और वह कर्मयोग बन जाएगा।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिपादिक कर्मयोग के सिद्धांत को ही कल्याण का सुगम साधन मानने का एक कारण यह भी है कि मनुष्य में कर्म करने की एक स्वाभाविक रूचि रहती है। वह कुछ-न-कुछ पाना चाहता है। अतः कुछ-न-कुछ पाने के उद्देश्य से वह जन्म से मृत्युपर्यन्त आसक्तिपूर्वक कर्मो में लगा रहता है। कुछ पाने की आशा के कारण कर्मो में उसकी आसक्ति इतनी अधिक रहती है कि जब वृद्वावस्था में उसकी इंन्द्रियां कर्म करने में असमर्थ हो जाती हैं, तब भी वह कर्मो से असंग नहीं हो पाता। इस प्रकार आसक्तिपूर्वक कर्म करते-करते ही वह काल के मुख में चला जाता है। इस दृष्टि से मनुष्य के लिए कर्मयोग का अनुष्ठान ही एक सफल एवं सुगम उपाय है। श्रीमद्भागवत में स्वयं भगवान ने कहा कि 'योगास्त्रयों मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो विधित्सया। ज्ञानं कर्म च भक्तिश्चय नोपायोन्योस्ति कुत्रचित्।।' अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्यों के लिए मैने तीन योग (मार्ग) बताएं हैं। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। तीन तीनों के अतिरिक्त अन्य कोई कल्याण का मार्ग नहीं है। जो अत्यंत वैराग्यमान है, वे ज्ञानयोग के अधिकारी हैं। जो संसार में आसक्त हैं, वे कर्मयोग के अधिकारी हैं और जो न आसक्त हैं और न विरक्त, भक्तिमार्ग के अधिकारी हैं। अगर साधारण भाषा में हम कर्मयोग के सार को समझे तो अर्थ होता है कि अपनी रूचि के कर्म को करते हुए प्रकृति के समीप जाना, परमआनंद को प्राप्त करना।

कर्मयोग को और अधिक साधारण अर्थो में समझें तो इसका अर्थ हुआ 'निर्दोषं हि समं ब्रहम्मा-सभी के प्रति समान भाव रखते हुए कर्म करना ही कर्मयोग है। क्योंकि समता से परमात्मा की स्थिति हमारे मन में उत्पन्न होती है। भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्मयोग का विवेचन गीता के दूसरे, तीसरे एवं अठारहवे अध्यायों में विस्तार से किया है और कहा कि निष्कामभाव से जो कर्म किए जाते हैं, उनके फल का कभी नाश नहीं होता है। अंत में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि श्रेष्ठ पुरूष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरूष भी वैसा ही आचरण करते हैं। अतः श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर हम सभी की श्रेष्ठ साधना इसी में है कि हम फलों की अभिलाषा छोड़कर तथा फलसिद्धि में हर्ष और विफलता में विषाद को त्यागकर श्रीकृष्ण की आराधना करते हुए बुद्धि से कर्म करें और संपूर्ण विश्व को प्रसन्न करने का अनुष्ठान करें।

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