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नवभारत निर्माण के महत्वपूर्ण स्तम्भ डॉ. मुखर्जी

एक प्रखर राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त के रूप में स्मरण किये जाने वाले नवभारत के निर्माताओं में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी महान शिक्षाविद और चिन्तक होने के साथ-साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक भी थे।

नवभारत निर्माण के महत्वपूर्ण स्तम्भ डॉ. मुखर्जी
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-अशोक प्रवृद्ध

एक प्रखर राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त के रूप में स्मरण किये जाने वाले नवभारत के निर्माताओं में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी महान शिक्षाविद और चिन्तक होने के साथ-साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक भी थे। सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतों के पक्के डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है। एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले श्री मुखर्जी अपनी मृत्यु के दशकों बाद भी अनेक भारतवासियों के आदर्श और पथप्रदर्शक हैं। जिस प्रकार हैदराबाद को भारत में विलय करने का श्रेय सरदार पटेल को जाता है, ठीक उसी प्रकार बंगाल, पंजाब और कश्मीर के अधिकांश भागों को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने की सफलता प्राप्ति में डॉ. मुखर्जी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

उनकी राष्ट्रीय निष्ठा इतनी प्रबल थीं कि उन्हें किसी दल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। उन्होंने जो कुछ किया देश के लिए किया और भारतभूमि के लिए अपना बलिदान तक दे दिया। जितना महान उनका जीवन था, उनकी मृत्यु भी उतनी ही महान सिद्ध हुई। यद्यपि उनकी मृत्यु श्रीनगर के किसी अस्पताल में हुई थी, तथापि जिन परिस्थितियों में यह हुई वे बड़ी रहस्यात्मक थीं, और आज तक वह रहस्य उद्घाटित नहीं हुआ है। भविष्य में भी अब इसकी कोई सम्भावना नहीं है, क्योंकि 64 वर्ष की कालावधि व्यतीत होने पर किसी साक्ष्य अथवा प्रमाण के सुरक्षित रहने की किंचित भी सम्भावना नहीं है। विशेषतया उस परिस्थिति में जिसमें से इस अवधि में श्रीनगर सहित समस्त जम्मू और कश्मीर प्रदेश गुजरता रहा है।

एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में अपनी उपलब्धि से निरन्तर आगे बढ़ने वाले ख्याति प्राप्त डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे, किंतु उन्होंने अगले वर्ष इस पद से उस समय त्याग पत्र दे दिया, जब कांग्रेस ने विधान मंडल का बहिष्कार कर दिया। बाद में उन्होंने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए।

मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी डॉ. मुखर्जी ने बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। वर्ष 1937-1941 में कृषक प्रजा पार्टी का गठबन्धन सत्ता में आया। इस समय डॉ. मुखर्जी विरोधी पक्ष के नेता बन गए। वे प्रगतिशील गठबन्धन मंत्रालय में वित्तमंत्री के रूप में शामिल हुए, लेकिन उन्होंने एक वर्ष से कम समय में ही इस पद से त्यागपत्र दे दिया। इसी समय वे सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मिलित हुए। वे हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में उभरे और सन 1944 में वे इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे।

डॉ. मुखर्जी का हृदय सदैव ही इस कारण द्रवित रहता था कि उस समय मुस्लिम लीग की राजनीति से दूषित हो रहे वातावरण से बंगाल में साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी और ब्रिटिश सरकार साम्प्रदायिक लोगों को प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से डॉ. मुखर्जी ने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से विफल कर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में ठूँस दिया। सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पूर्ण भारत के एक होने के प्रबल समर्थक मुखर्जी धर्म के आधार पर विभाजन के कट्टर विरोधी थे। उनका मानना था कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं।

एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। इसके बाद भी लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मार काट मचाई। उनकी इस मार काट से सामूहिक रूप से आतंकित कांग्रेस के नेतृत्व ने उस समय ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षड्यंत्र को अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। उस समय भी डॉ. मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की माँग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया।

भारत विभाजन पश्चात मंत्रिमंडल में शामिल होने की उनकी इच्छा नहीं थी, फिर भी गाँधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे भारत के पहले मंत्रिमण्डल में शामिल हुए और उन्हें उद्योग एवं आपूर्ति मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। शीघ्र ही संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के रूप में उन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के कारण अन्य नेताओं से सदैव ही उनके मतभेद बराबर बने रहे। इस कारण राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने 6 अप्रैल 1950 को मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीतकर आए। भारतीय जनसंघ जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में देश में सबसे बड़ा दल था।

दरअसल डॉ. मुखर्जी की इच्छा जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाये रखने की थी। दूसरी ओर नेहरु ने उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान मान लिया था और वहाँ का मुख्यमंत्री (वजीरे-आजम) अर्थात प्रधानमंत्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। पहली बार डॉ. साहब हिन्दू महासभा के प्रधान निर्मलचन्द्र चटर्जी, रामराज्य परिषद् के मंत्री नन्दलाल शास्त्री व महान साहित्यकार वैद्य गुरुदत्त तथा अन्य आठ व्यक्तियों के साथ 6 मार्च 1953 को पकड़े गए थे।

अनियमित ढंग पर बन्दी रखने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने वैद्य जी सहित चार व्यक्तियों को छोड़ दिया। डॉ. मुखर्जी ने तत्कालीन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। यह खेद की बात है कि उनकी मृत्यु का खुलासा आज तक नहीं हो सका है। भारत की अखण्डता के लिए स्वाधीन कहे जाने वाले भारत में यह पहला बलिदान था। इसका परिणाम यह हुआ कि शेख अब्दुल्ला हटा दिये गए और अलग संविधान, अलग प्रधान एवं अलग झण्डे का प्रावधान निरस्त हो गया। धारा 370 के बावजूद कश्मीर आज भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है। इसका सर्वाधिक श्रेय डॉ. मुखर्जी को ही दिया जाता है।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )


Updated : 23 Jun 2018 12:29 PM GMT
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Swadesh Digital

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