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गौरी, ग़जनी की जगह कलाम और हमीद क्यों नही मेरे देश की पहचान !

अयोध्या निर्णय : अवसर है एक भारत, श्रेष्ठ भारत के उद्घोष का

गौरी, ग़जनी की जगह कलाम और हमीद क्यों नही मेरे देश की पहचान !
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- डॉ. अजय खेमरिया

अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय भारत के हिन्दू और मुसलमानों के लिए एक ऐसा अवसर है जहां से वे राम और इमामे हिन्द के समेकन और अद्वैत की उद्घोषणा करके पूरी दुनियां में एक भारत श्रेष्ठ भारत के सन्देश को सुस्थापित कर सकते है।क्षुद्र सियासी निहितार्थ के लिए जो कुछ इस मुल्क में पिछले 70 साल से जारी है उससे आगे का सफर अब एक भारत के विचार में ही निहित है ।यहां अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की प्रयोजित राजनीति का भी पिंडदान करने का बेहतरीन अवसर हिन्दू और मुसलमान दोनों के पास है।जिस अदभुत सयंम का परिचय भारत के 130 करोड़ लोगों ने अयोध्या निर्णय पर प्रदर्शित किया है वह 'भारतीयता' के संकल्प की सिद्धि ही है इसीलिये समेकित रूप से भारत मे इसे न हार के रूप में लिया गया न जीत के रूप में।जिस वामपंथी विचार ने भारत को उसकी मौलिक निधि और सांस्कृतिक अस्मिता से वंचित रहने पर विवश किया आज उस सुविधा परस्त वाम विचार के अस्ताचल ने कुछ विमर्श के बिंदु भी निर्धारित कर दिए है।सबसे बड़ी जिम्मेदारी आज मुल्क के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की है जिन्हें नई सरकार के उद्घोष 'सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास' को लेकर अपनी वचनबद्धता को आगे भी साबित करना है ठीक वैसे ही जैसे उनके सख्त निर्देश का अमल अयोध्या के मामले में हुआ।

हमें इस बात पर सभी कड़वाहटों को भूलाकर यह समझना ही होगा कि भारत के मुसलमान एक सुविचारित,सुगठित और सुनियोजित षडयंत्र के तहत लोकजीवन में संदिग्ध बनाकर रखे और जाहिर किये गए है क्योंकि अल्पसंख्यकबाद की राजनीति से इस मुल्क में 60 साल तक कुछ लोगों की सियासी धमक इसी विभेद से बनती रही है।वामपंथी विचारधारा ने इस देश की स्वाभाविक शासक पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व को पूरी तरह से अपने शिकंजे में कसकर रखा यह दीगर बात है कि स्वयं नेहरु इस जमात के जनक रहे है।

भारत में मुसलमानों को डराने और उन्हें अल्पसंख्यक के रूप में अलग से स्थापित किया जाना ही सम्प्रदायवाद की बुनियाद है। यही काम इस मुल्क में वाम विचारकों ने सफलतापूर्वक किया है। मुसलमानों को यह खुली आंख और उदार मन से सोचना और समझना ही होगा कि कैसे उनका रिश्ता ,मंगोल और तुर्क से लेकर आईएस,तालिबान, पाकिस्तान, याकूब मेनन,अफजल गुरु के साथ सयुंक्त किया गया है। भारत में इस्लाम के प्रतीक बुल्ले शाह,अमीर खुसरो,रसखान, से लेकर अब्दुल हमीद,एपीजे कलाम क्यों नही बन सकें है? हमारे मुस्लिम भाइयों को गहराई से सोचना चाहिये कि जिस समाज में नक्काशी, बुनाई,कडाई, शिल्प,कारीगरी,गायन,अभिनय से लेकर विभिन्न कलाओं की निपुणता है उसे वक्त के साथ की तालीम से महरूम क्यों और किसने किया ?जो लोग अल्पसंख्यक का अहसास कराते रहे वे कभी इस जमात की आधुनिक शिक्षा और हुनर के फिक्रमंद क्यों नही रहे?अगर इन सवालों का जबाब हर मुसलमान अपने आप से भी पूछना शुरू कर दे तो भारत में अलगाव की बात ही खत्म हो चुकी होगी।जिस उदारमन से हर मुसलमान ने अयोध्या के फैसले को स्वीकार किया है वह बताता है कि भारत अंतस से एक है ।

इसी अन्तस् में राम और इमामे हिन्द अद्वेत के रूप में खड़े नजर आते है ।यही भाव हाशिम अंसारी और महंत जी को एक ही रिक्शे की सवारी कर फैजाबाद की अदालत तक ले जाता था।लेकिन समस्या की जड़ असल में कहीं और छिपी है ,जो आजमगढ़ के संजरपुर में सियासी लोगों को आने और फिर आतंकियों के घर बैठकर मातमपुर्सी की राह दिखाता है।लेकिन इसी आजमगढ़ में ब्रिगेडियर मो. उस्मान को याद करने की मनाही करता है जिसने आजाद भारत का पहला गैलेंट्री अवार्ड हासिल किया।क्योंकि ब्रिगेडियर उस्मान से अल्पसंख्यकबाद को कोई फायदा नही होता है वह भारत माता की रक्षा करने का काम कर रहा था।1965 की लड़ाई में पाकिस्तान के छक्के छुड़ाने वाले कैप्टन अब्दुल हमीद के बारे में मेरे मुल्क के मुसलमान कितना जानते है?

औरंगजेब से हम दसवीं कक्षा तक आते बखूबी परिचित हो जाते है उसके युद्ध कौशल,प्रशासन से जुड़ी महानता के बीच उसके क्रूर और धर्मांध चेहरे को हमें कभी नही बताया जाता।कभी इतिहास लिखने वालों ने नही बताया कि "आज होली खेलूंगी मैं रसिया कह बिसिमिल्लाह' लिखने वाले वुल्ले शाह मुसलमान थे.

"छाप तिलक सब छोड़ी तुझसे नेन मिलाकर"खुसरों ने किस चेतना के साथ लिखा था ?,गजनी बाबर,अकबर,औरंगजेब सब है स्कूली किताबों में पर जिस दारा शिकोह ने वेदों को फ़ारसी और अरबी में अनुवादित किया उसका जिक्र तक करने का साहस क्यों 70 साल में नही हुआ?क्यों गीता साथ रखने वाले भारत रत्न एपीजे कलाम की अंतिम यात्रा में रामेश्वरम जाने की जगह देश के बड़े सियासी वर्ग ने अफजल की फांसी रुकवाने के लिये दिल्ली में प्रदर्शन करना जरूरी समझा?अमरनाथ की छड़ी मुबारक रस्म में मुस्लिम भागीदारी हो या फिर अयोध्या में मंदिरों के महंत औऱ मस्जिदों के मौलवियों के बीच का सौहार्द।भारत में कभी इस मूलभूत सामाजिक साम्य को नजीर बनाने का काम सियासी दलों ने नही किया।असल में पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही जिस धार्मिक विभाजन की अवधारणा ने जन्म लिया था उसे नया विस्तार देती सियासी सोच ने भारत के लोकजीवन से भारतीयता के तत्व को ही तिरोहित कर दिया।मुसलमानों की पीठ पर बेताल की तरह लदे वामपंथी नेताओं ने उनकी अशिक्षा और पिछड़ेपन का फायदा उठाकर चंगेज खान,तैमूर लंग और बाबर जैसे लुटेरो के साथ उनके रिश्तों को कब चतुराई से कायम कर दिया यह न मुसलमानों को पता चला न हिंदुओ को।आज सुप्रीम कोर्ट ने जब अयोध्या में राम के अस्तित्व को प्रमाणित कर दिया तो इन मिथ्या मिथक गढ़ने वाली सत्ता पोषित जमात की जमीन जलजले की तरह हिल गई है।निर्णय के बाद देश मे जिस सौहार्द और स्वीकार्यता का माहौल बना है उसने तो सेकुलर अल्पसंख्यकवादियों को मानो अरब सागर में डुबो दिया है।वस्तुतः सच यही है कि भारत के हर नागरिक के अवचेतन में राम की मौजूदगी है।राम और इमामे हिन्द में कोई फ़र्ख है ही नही।भला अपने समकालीन 10 फीसदी लोगों का तलवार के जरिये कत्लेआम करने वाली मंगोल विरासत से भारत का क्या रिश्ता हो सकता है?ऐतिहासिक तथ्य है कि मंगोल जिसे

भारत में मुगल कहा गया ने करीब 9 करोड़ लोगों को अपने विजय अभियान में मौत के घाट उतारा था यह सब किसी परमाणु बम्ब या मिसाइल से नही बल्कि सिर्फ तलवार से किया गया।क्या भारत के हजारो साल पुराने लोक जीवन मे इस तरह की हिंसा का कोई अवशेष हमें मिलता है?राम का लोकजीवन आज से 6 हजार साल पहले का माना जाता है और अगर आज भी वह भारत सहित दुनियाभर भर में करोड़ों लोगों के आदर्श है तो समझा जा सकता है कि भारतीय प्रायद्वीप में मंगोलों के साथ कम से कम पिछले 06 हजार साल से तो कोई सांस्कृतिक रिश्ता हो ही नही सकता है।इसी बिना पर राम सबके है और अयोध्या के साथ बाबर जैसे आताताई के रिश्ते को भारत के मुसलमान को भी स्वीकृति नही देनी चाहिये।असल में उपासना पद्धति केवल भारत में ही नही बदली है कम्बोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मॉरीशस, त्रिनिदाद,म्यांमार जैसे अनेक मुल्कों में आज हिन्दू मानबिन्दुओं की प्रभावी उपस्थिति इसलिये है क्योंकि वहां के इतिहासकारों ने राजनीतिक दलों ने कभी अपनी सांस्कृतिक विरासत को तिरोहित नही होने दिया है विदेश मंत्री के रूप में जब अटल जी कम्बोडिया में गए थे वहां रामायण का मंचन देख उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए वहां के राष्ट्रपति ने गर्व से बताया कि राम हमारे पूर्वज है।हमने सिर्फ उपासना पद्धति बदली है पुरखे नही।अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में सबसे बड़ा होटल कनिष्क है और जिस लुटेरे गजनी को हम जानते है उसका वहां के इतिहास में कोई नामोनिशान नही है।गजनी नामक जगह पर धूल के गुबार उड़ते रहते है कोई मजार तक उस लुटेरे ग़जनी की नही है जो सोमनाथ के मंदिर तक लूट मचाता आया था।

बुनियादी समस्या यही है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी एक तरह से अधिमान्य किया है भारत में भारतभूमि के मानबिन्दुओं को प्रतिष्ठित किया जाना चाहिये।यह काम अल्पसंख्यक वर्ग को उदार मन से करना होगा क्योंकि सबको अपने अन्तःकरण की आजादी है पर सांस्कृतिक विरासत की कीमत पर शायद कहीं भी नही।गौरी, ग़जनी, बाबर, अफजल, याकूब,ओसामा नही बुल्ले शाह, खुसरो,रहीम,कलाम,उस्मानी,अब्दुल हमीद,है हमारे गौरव।राम सबको समाहित करते है और राम ही हमारी मौलिक पहचान है।

Updated : 15 Nov 2019 9:44 AM GMT
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