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क्या चुनाव से पहले ही विपक्ष ने हथियार डाल दिए?

महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में विपक्ष मुक्त भारत

क्या चुनाव से पहले ही विपक्ष ने हथियार डाल दिए?
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नई दिल्ली। सप्ताह की इस बार राजनीति की सबसे बड़ी खबर है तो वो है तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव। महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की बिगुल बज चुकी है। इंतजार है तो वश चुनाव आयोग के चुनावी तारीखों की घोषणा का। लेकिन, ऐसा लगता है कि इन राज्यों के चुनावों से पहले ही विपक्ष ने मानो हथियार डाल दिए हैं। तीनों ही राज्यों में भाजपा के मुकाबले समूचा विपक्ष न तो खड़ा ही नजर आ रहा है और न ही टक्कर दे पा रहा है। हरियाणा को छोड़ महाराष्ट्र और झारखंड की सरकारों ने कामयाबी का ऐसा कोई तीर भी नहीं मार लिया कि विपक्ष के पास जनता को कहने-सुनाने के लिए मुद्दे ही न हों। फिर क्यों विपक्ष को सांप सूंघ गया है ?

विपक्ष पर आखिर ऐसी शामत आई ही क्यों, यह जरूर चर्चा का विषय बना हुआ है। 2014 में सत्ता में आने की आहट दे रहे नरेंद्र मोदी ने आम चुनावों के दौरान कांग्रेस मुक्त भारत की बात की थी तब समूचे विपक्ष ने इस पर आपत्ति जताई थी। और मोदी की कड़े शब्दों में आलोचना की थी। लेकिन अब इन तीनों राज्यों में विपक्ष मुक्त भारत बनता नजर आ रहा है। विपक्ष में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिख ही नहीं रही है। वे जनता के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं।

महाराष्ट्र कांग्रेस के बड़े नेता माने जाने वाले मिलिंद देवड़ा इन दिनों संजय निरूपम के साथ स्थ्ज्ञानीय विवादों के चलते आपसी कलह में उलझे हुए हैं। हाल ही में फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर ने कांग्रेस से छुटकारा पा लिया है। पार्टी में अंदरूनी लड़ाई को वे कांग्रेस छोड़ने का प्रमुख कारण बता रही हैं, फिर वजह चाहे जो भी हो। कहा जा रहा है कि वे भाजपा के पाले में जाने को तैयार हैं। मातोंडकर ने कांग्रेस पार्टी से लोकसभा चुनाव लड़ा था और हार गईं थीं। इसके अलावा राधाकृष्ण वीके पाटिल प्रतिपक्ष के नेता हुआ करते थे, उन्होंने भी कांग्रेस छोड़ दी है। कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाकर महाराष्ट्र की राजनीति में प्रभाव छोड़ने वाले कद्दावर नेता शरद पवार भी राज्य में कुछ कर नहीं पा रहे हैं। उनके खिलाफ भी सीबीआई जांच के बाद मामले खुल रहे हैं। उनके भतीजे अजीत पवार तो पहले से ही जांच के घेरे में हैं। विपक्ष के और कई नेता जिन पर जांच की आंच नहीं है, वे या तो अंदरूनी घमासान में व्यस्त हैें या एक-दूसरे को किनारे करने में लगे हैं। उनके पास न मुद्दे हैं और न ही कोई कार्ययोजना।

झारखंड का हाल देखिए, वहां कांग्रेस में लंबे समय से अजय कुमार प्रदेश की बागडोर संभालते आ रहे थे। अजय कुमार नौकरशाही से राजनीति में आए थे और उन्होंने दस जनपथ की गणेश परिक्रमा के दमपर ही प्रदेश संगठन पर कब्जा जमाया था। लेकिन वे संगठन को वो धार नहीं दे पाए। नतीजा यह रहा कि कांग्रेस वहां खड़ा होने से पहले ही बिखर गई। झारखंड में दूसरी ताकतवर पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के जमीनी नेता शिबू सोरेन का असर जरूर जनता के बीच है। लेकिन, वो इसे राज्यव्यापी संगठन की दिशा में ले जाने में नाकाम रहे। अच्छा होता अगर वे जनता के बीच जाते। लोगों की समस्या सुनते और निराकरण करने की दिशा में निर्णायक कदम उठाते। झामुमो बड़े संघर्ष और आंदोलन के बाद उभर कर आई थी। लेकिन टिकाउ नीतियों के अभाव में बिखरी हुई नजर आ रही है।

हरियाणा में अशोक तंवर ने न जाने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को क्या घुट्टी पिलाई कि वे बिना किसी नतीजे के छह साल तक अध्यक्ष बने रहे। हाल ही में वहां कुमारी सैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। कयासबाजी थी पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के कांग्रस छोड़कर अलग पार्टी बनाने की। उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा ने कश्मीर पर अपना रूख साफ भी कर दिया था। लेकिन कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पिछले कुछ अनुभवो ंसे सबक लेते हुए हुड्डा को महत्वपूर्ण पद देकर उन्हें बगावत करने से रोक लिया। चुनाव की तारीख घोषित होने से कुछ ही दिन पहले प्रदेश की बागडोर सौंपना किस तरह की रणनीति कही जाएगी? क्या आठ-दस दिन में सैलजा पहाड़ खड़ा कर लेंगी? आखिर जनता को बिना समय दिए रातोंरात वे कैसे संगठन में जान डाल पाएंगी? कैसे कायापलट कर पाएंगी? वहां पिछले पांच साल से जमीजमाई मजबूत खट्टर सरकार का वे कैसे सामना कर पाएंगी?

अब अगर भाजपा के मुकाबले समूचे विपक्ष की बात करें तो विपक्ष का सबसे बड़ा कुनबा ही बिखराव की मुद्रा में पहुंच चुका है तो वह दूसरे अन्य दलों को क्या संदेश दे सकता है। यही कारण है कि विपक्ष सजोने के बजाए बिखर गया है। और इस बिखराव के चलते उसे कोई ताकत भी नहीं मिल पा रही है।

Updated : 15 Sep 2019 3:02 AM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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