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भारत के आदर्श वीर महाराणा प्रताप : 7000 भीलों एवं क्षत्रियों की सेना लेकर मुगलों से किया संघर्ष

पद्मश्री रघुवीर सिंह सिरोही

भारत के आदर्श वीर महाराणा प्रताप : 7000 भीलों एवं क्षत्रियों की सेना लेकर मुगलों से किया संघर्ष
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पांचवी सदी में सूर्यवंशी राजा गुहादित्य वल्लभिपुर छोड़कर राजस्थान की सीमा पर इडर राज्य में आये एंव यज्ञ करवा के अपना राज्य स्थापित किया। फलस्वरूप उनके वंशज गुहादित्य से गुहिलोत कहलाये। 650 ईसवी सन् में शिलाद्वितीय के शासन काल में समुद्री मार्ग से भारत पर प्रथम इस्लामिक आक्रमण वल्लभिपुर पर आया और उस आक्रमण को शिलाद्वितीय ने ऐसा खदेड़ा कि वो आक्रमण 72 वर्षों तक वापस नहीं आया।

भारत के सिंध राज्य पर 712 ईसवी सन् में मोहमद बिन कासिम के नेतृत्व में पुन: इस्लामिक आक्रमण एक लाख थल सेना के साथ आया और वहां के परमार राजा का वध कर सम्पूर्ण सिंध को इस्लाम में परिवर्तित कर दिया। चितौड़ के किले पर 725 ईसवी सन् में सिंध से इस्लामिक आक्रमण हुआ। तब वहां के शासक मानसिंह मोरी (मौर्य) ने अपने पुत्र को अयोग्य समझते हुए, अपने भांजे बप्पा रावल गुहिलोत को युद्ध का सम्पूर्ण दायित्व सौपा और उन्होंने बुरी तरह से उस आक्रमण को खदेड़ दिया। उसके पश्चात चितौड़ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर दिया। 815 ईसवी सन् में मेवाड़ के महारावल खुमान ने सिंध से आये हुए मुस्लिम आक्रमण को पूर्णतया खदेड़ के हिन्दुआ सूरज की उपाधि धारण की। 1303 ईसवी सन् में दिल्ली के सुल्तान अल्लाउदीन खिलजी ने चितौड़ पर आक्रमण किया एंव उसने धोखाधड़ी से किले पर बारूद से भरे गुबारे दागे, जिसके फलस्वरूप मेवाड़ के राणा रतन सिंह की अन्त्येष्टि हुई।

महारानी पद्मिनी के ननिहाल सिरोही राज्य के गौरा व बादल जैसे शूरवीरों ने सुल्तान अल्लाउदीन खिलजी से युद्ध कर वीरगति को प्राप्त हुए। उधर महारानी पद्मिनी ने 26 अगस्त 1303 ईसवी सन् को चितौड़ के किले पर 16,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर किया। राणा रतनसिंह के कोई पुत्र नही था। इसलिए नाथद्वारा के निकट, सिसोदा गाँव से आये हुए उनके उत्तराधिकारी बने, जो बाद में सिसोदिया कहलाये। सुल्तान अल्लाउदीन खिलजी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र खिजड़ा खान को चितौड़ का मुख्य संरक्षक बनाया और दिल्ली लौट गया। खिजड़ा खान को 1316 ईसवी सन् में सुल्तान अल्लाउदीन खिलजी की मृत्यु होने पर दिल्ली जाकर दिल्ली की गद्दी पर बैठना पड़ा एवं जालौर के मालदेव सोनीगरा को चितौड़ का मुख्य संरक्षक बनाकर गया। 1319 ईसवी सन् में महाराणा हमीर ने जो शूरवीरता बताई, जिससे उनको मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया। तब महाराणा के दोनों पुत्र नाराज होकर दक्षिण भारत की ओर चले गये और उनकी 16वी पीढ़ी में 'छात्रपति शिवाजीÓ का जन्म हुआ।

1325 ईसवी सन् में मालदेवजी ने अपनी पुत्री का विवाह महाराणा हमीर के साथ करके चितौड़ का किला दहेज में दे दिया। महाराणा हमीर ने अपने राज्य का विस्तार कर अपनी सीमाए गंगा घटी तक ले गये। महाराणा हमीर के बाद हुए महाराणा लाखा, वो भी बहुत शक्तिशाली राजा हुए। 1433 ईसवी सन् से 1468 ईसवी सन् मेवाड़ पर महाराणा कुम्भा का शक्तिशाली शासन रहा और उनकी एक लाख राजपूत सेना, भारत के तीनों महान मुस्लिम शक्तियों को दिल्ली का सुल्तान, मालवा का सुल्तान एंव गुजरात के सुल्तान को एक साथ परास्त कर के अबू अचलगढ़ के किले में विश्राम करते।

महाराणा कुम्भा के पोते महाराणा सांगा ने 1527 ईसवी सन् में मुगल सम्राट बाबर से खानवा का भयंकर युद्ध किया। जिसमें बाबर ने अपने आधुनिक तोप खाने से 80,000 राजपूत सेना को काफी क्षति पहुचाई। इसका जवाब बीकानेर के महाराजा ने दिया, जब 1532 के राती घाटी युद्ध में बाबर के छोटे पुत्र कामरान के तोप खाने को पूर्णत: विफल कर उसे भागने को मजबूर किया। 1534 ईसवी सन् में गुजरात के बहादुरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया एंव 1510 ईसवी सन् में पुर्तुगाल एंव इजराइल से गोवा पर आक्रमण करने आये हुए विदेशियों को भारी धन राशि देकर, उन्हें उनके आधुनिक हथियारों सहित चितौड़ पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। फलस्वरूप सुल्तान बहादुरशाह की विजय हुई। उधर महारानी कर्णावती को 12,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर करना पड़ा, परन्तु मेवाड़ के राजपूतों ने आक्रोश में आकर बहादुरशाह को ज्यादा देर टिकने नहीं दिया और उसे मजबूरन वहां से भागना पड़ा। 1536 ईसवी सन् में मेवाड़ की गद्दी पर महाराणा उदय सिंह आये। जिनके प्राण बचपन में पन्नाधाय ने बचाए थे। महाराणा उदयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ईसवी सन् में कुंभलगढ़ के किले में महारानी जेवंता बाई, जो पलवी (पाली) की सोनीगरा चौहान राज कन्या थी, की कोख से हुआ। उस शूरवीर माता ने प्रताप को बचपन से ही अंगारों पर चलना सिखाया और मुगलों का सबसे महान सम्राट अकबर का जन्म भी 1540 ईसवी सन् में उमरकोट के राज महल में हुआ। जब उसका पिता हुमायुं, शेरशाह सूरी के डर से भारत छोड़कर भाग रहा था। अकबर के कोई भी पुत्र नहीं हुआ था। तब किसी मुसलमान औलिया ने उसे समझाया कि यदि तुम पैदल यात्रा कर अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी से अजमेर पहुँचकर, ख्वाजा शरीफ से दुआ मांगोगे तो वे तुम्हें अवश्य पुत्र देंगे। जुलाई 1562 ईसवी सन् में अकबर अपनी एक लाख सेना लेकर अपनी राजधानी फतेहपुर सिकरी से अजमेर के लिए पैदल चला, और ख्वाजा से दुआ मांगी। जब अकबर वापस अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी की ओर लौट रहा था, तब राजपूत संगठन का एक मुखिया, जयपुर नरेश भारमल ने अकबर का जयपुर की सीमा पर सांभर में प्रवेश करते ही भारी स्वागत किया और रात्रि भोज के लिए आमंत्रित किया। रात्रि भोज के पश्चात जयपुर नरेश ने उनसे निवेदन किया कि वो उनकी पुत्री जोधा बाई से विवाह करे।

कुछ समय बाद जोधा बाई की कोख से मुगल युवराज जहाँगीर ने जन्म लिया। उधर भारमल के पुत्र भगवानदास महान मुगल सेनापति बने और उनके बाद उनके पुत्र जयपुर के राजा मानसिंह ने मुगल इतिहास में नाम कमाया। 1564 ईसवी सन् में अकबर ने यह सोचा कि यदि राजपूतों के दो महान अगुवाओं मेवाड़ व सिरोही को बुरी तरह से परास्त कर दिया जाये तो समस्त भारत के क्षेत्रीय राजा मुगल शरण में आ जायेंगे। अकबर ने दो लाख विदेशी सेना बुलाकर, तीन लाख सेना का नेतृत्व करते हुए चितौड़ पर आक्रमण किया। जिससे 254 ईसा से पूर्व चितंरजन मौर्य द्वारा निर्मित चितरंजन दुर्ग (चितौड़ का किला) जो 6 मील लम्बा और 2 मील चौड़ा है, वो घेरे में आ गया। चितौड़ के सेनापति जयमल राठौर ने महाराणा उदयसिंहजी से विनती की कि दुश्मन तीन लाख सेना लेकर आ रहा है, इसलिए इतनी बड़ी सेना से तो चितौड़ का किला घेरे में आना सम्भव है। अत: आप से निवेदन है कि आप यहाँ से सुरक्षित स्थान पर चले जायें, तब महाराणा उदयसिंह चितौड़ छोड़ कर कुम्भलगढ़ जाने के लिए तैयार हो गये, परन्तु युवराज प्रताप अड़ गये, वे अपनी राजधानी चितौड़ को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। तब उनके शस्त्र विद्या के गुरु जयमल ने युवराज प्रताप को शांति से समझाने के बाद, युवराज प्रताप जाने को तैयार हुए व धीमी गति से किले को छोड़ते हुए बाहर निकल गये। अकबर ने सम्पूर्ण चितौड़ किले पर घेरा डाल दिया। मेवाड़ की सेना बड़ी बहादुर थी, परन्तु आधुनिक हथियारों में निपूर्ण नहीं थी, इसलिए जयमल ने बड़ी बुद्धिमता से अकबर के जानी दुश्मन नागौर के सुबा को 1000 बंदूकधारियों के साथ किले पर बुलाया। सुबा अपनी सेना लेकर रात्रि के अँधेरे में चितौड़ पहुंचा। चितौड़ के किले के हर बुर्ज पर अपने गोलंदाजों को जमा दिया। तब अकबर भी विचार में पड़ गया। अकबर ने सोचा कि अब चितौड़ को जीतने का एक ही तरीका है, चितौड़ किले के एक बुर्ज के नीचे तक एक लम्बी सुरुंग खुदवाई जाये और उसे तोड़कर किले में प्रवेश किया जावे। सुबह 11 बजे जब अकबर सुरंग के निरीक्षण को गया, उसी समय किले के ऊपर निरीक्षण कर रहे सेनापति जयमल की निगाह अकबर पर पड़ी और सेनापति जयमल ने नागौर के सुबा को आदेश दिया कि तुम अपनी लामछड़ बन्दूक को किले की दीवार पर जमाकर अकबर को उड़ा दो, जो पहाड़ ने नीचे जमीन पर खड़ा है। नागौर के सुबा ने बराबर निशाना तान कर बन्दूक चलाई, परन्तु अकबर अपने जेबी रुमाल को नीचे गिरने से बचाने के कारण वे निशाना चूक गये और गोली जाकर लगी अकबर के सुरक्षा प्रहरी को और उसकी मृत्यु हो गयी।

अकबर ने अपनी रणनीति से खोदी गई सुरुंग में भारी बारूद बिछा कर विस्फोट किया और किले का उतरी हिस्सा गिरा दिया। जब रात्रि के समय जयमल अपनी पूरी सेना को लगाकर उस टूटे हुए किले की दीवार की मरम्मत करवा रहा था। तब रात्रि के अँधेरे में अकबर ने गोली चलाई, जिससे जयमल की दोनों टांगे टूट गयीं। दूसरे दिन सुबह फत्ता के कंधे पर बैठकर भारी युद्ध किया और वीरगति को दोनों प्राप्त हुए। उधर फुलकंवर के नेतृत्व में 8000 क्षत्राणियों ने जौहर किया। मेवाड़ की सेना बहुत बहादुरी से लड़ी, परन्तु अकबर की सेना बहुत बड़ी होने से अकबर का आधिपत्य चितौड़ एवं मांडलगढ़ के किले पर स्थापित हो गया। महाराणा उदयसिंह ने 1569 ईसवी सन् में अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। जो आज विश्व विख्यात शहर है। 1570 ईसवी सन् में अकबर ने पूर्ण तैयारी करके सिरोही राज्य पर आक्रमण किया। तब सिरोही नरेश महाराव मान द्वितीय के आदेश से उन्हीं के परिवार के ग्यारह वर्षीय बालक सुरत्राण ने तीर चलाया, जिससे अकबर बुरी तरह घायल होकर हाथी से गिर पड़ा और दिल्ली की ओर भागा और जीवन पर्यन्त कभी सिरोही राज्य में प्रवेश नहीं किया। 28-02-1572 ईसवी सन् को महाराणा उदयसिंह की आकस्मिक मृत्यु गोगुन्दा के किले में हुई। तदुपरान्त महाराणा उदयसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र महाराणा प्रताप का राज तिलक गोगुन्दा में हुआ। यह सूचना अकबर को मिलते ही वह समझ गया कि नया महाराणा बहुत टेड़ी खीर है, और उसने मेवाड़ पर आक्रमणों की झड़ी लगा दी। अंत में अपने महान सेनापति मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना भेजी और 18-6-1576 को हल्दी घटी का निर्णायक युद्ध हुआ। महाराणा प्रताप के पास 7000 आदिवासी भीलों एवं क्षत्रियों की सेना थी। मुगल सेनापति मानसिंह के पास 30,000 मुगल सहशस्त्र सेना थी। महाराणा प्रताप ने अपनी होशियारी करके अपनी सम्पूर्ण सेना को ऊँची पहाड़ी की चोटी पर जमा दिया। परन्तु मुगल सेनापति मानसिंह समझ गया, और उसने एक विशाल टुकड़ी को ञ्जद्गड्डह्यद्गह्म् रूश1द्गद्वद्गठ्ठह्ल के तौर पर पहाड़ी की चोटी पर भेजा। जब घमासान युद्ध शुरू हुआ।

मानसिंह के आदेशानुसार मुगल सेना ने युद्ध करते-करते पैर पीछे लिए और मेवाड़ की भोली सेना इस रणनीति को समझ नहीं पाई। वो सोच रही थी कि उनकी जीत हो रही है और लड़ते-लड़ते मैदान तक पहुँच गई। फिर सेनापति मानसिंह ने उन पर जबरदस्त प्रहार किया, जिसके फलस्वरूप रक्त तलाई खून से भर गयी और मेवाड़ की अधिकांश सेना समाप्त हो गयी। महाराणा प्रताप ने चेतक पर सवार होकर, स्वयं ने मानसिंह पर हमला किया और अपना भाला जोर से फेंका, परन्तु मानसिंह झुक जाने से बच गया। इधर मानसिंह जिस हाथी पर सवार था, उसकी सूंड में तलवार थी। जिससे महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की एक टांग कट गई और तीन पैरों पर चेतक, महाराणा प्रताप को सुरक्षित स्थान पर ले गया, और अपने प्राण त्याग दिए। महाराणा प्रताप का छोटा भाई शक्ति सिंह, आकर महाराणा प्रताप को सुरक्षित स्थान पर ले गया और उनकी जान बचाई। हल्दी घाटी के युद्ध में तो महाराणा प्रताप की एक तरह से पराजय हुई, परन्तु उन्होंने एक नई टुकड़ी तैयार कर ऐसी गुरिल्ला रणनीति अपनाई कि 1जुलाई 1576 ईसवी सन् को जीते हुए राजा मानसिंह को मजबूरन पूर्ण सेना के साथ मेवाड़ छोड़कर भागना पड़ा। बरसात समाप्त होते ही अक्टूबर 1576 ईसवी सन् में अकबर ने मेवाड़ पर भारी हमला किया, अपनी जान बचाने के लिए नवम्बर 1576 ईसवी सन् की अमावस्या की रात्रि को एक विशेष टुकड़ी के साथ महाराणा प्रताप अपने ससुराल इडर चले गये। अकबर ने चप्पे-चप्पे पर मुगल थाने स्थापित किये। महाराणा प्रताप को दो महीने तक अकबर मेवाड़ की भूमि पर ढंूढता रहा। कुछ समय बाद किसी गुप्तचर ने सुचना दी कि वो अपने ससुराल इडर में सुरक्षित बैठे हंै। तब अकबर ने इडर राज्य पर आक्रमण कर, वहां का राज छीन लिया और फरवरी 1577 ईसवी सन् में अकबर ने कुम्भलगढ़ का किला भी जीत लिया। तब महाराणा प्रताप विचार में पड़ गये। तब सिरोही के महाराव सुरत्राण ने महाराणा प्रताप को आमंत्रण भेजा कि आप हमारे राज में पधार कर आबू की दुर्गम ऊंचाईयों में सुरक्षित विराजें, महाराणा प्रताप ने आमंत्रण स्वीकार किया एवं आबू पर्वत की दुर्गम ऊंचाईयों पर स्थित शेरगाँव की विशाल भेरू गुफा में विश्राम किया। किसी व्यक्ति ने महाराव सुरत्राण से विनती की, कि महाराणा प्रताप मेवाड़ नरेश है, उनके लिए आपको शेरगाँव में महल बनाना चाहिए। तब महाराव सुरत्राण ने ये कहते हुए नकार दिया, कि अकबर को पता चल जायेगा और वो आक्रमण कर देगा। महाराणा प्रताप ने भगवान शंकर की आराधना के लिए भेरू गुफा से दो तीन मील दूर उतलेश्वर महादेव का मंदिर बनवाया, जो आज भी विद्यमान है। 1579 ईसवी सन् में दोनों राजाओं ने भेरू गुफा में बैठकर यह निर्णय लिया कि यदि मेवाड़ का राज वापस लेना है तो बड़ी धन राशि की आवश्यकता होगी। तब दोनों राजाओं ने मेवाड़ के एक सेनापति भामाशाह के नेतृत्व में मेवाड़ एवं सिरोही की पांच हजार सेना भेजी जो उज्जयन से प्रतिमाह मुगल खजाना दिल्ली भेजा जाता था, एक हजार मुगल सैनिको के साथ, उसको लूटने के लिए। तब भामाशाह ने विनती की, कि मेरा उपसेनापति भी मेरा छोटा भाई होना चाहिए, नहीं तो कोई दूसरा शराब पीकर यह सूचना बाहर पहुंचा सकता है। तब दोनों नरेशों ने इस बात को स्वीकार कर मेवाड़ एंव सिरोही की पांच हजार सेना की टुकड़ी को विदाई दी। भामाशाह अपनी सेना के साथ ऐसे स्थान पर पंहुचा, जहाँ पहाड़ का नाका था। वहां अपनी सेना को जमाया और जब मुगल सेना उज्जयन से खजाना लेकर दिल्ली की ओर जा रही थी। तब नाके को पार करते ही उस पर धावा बोला दिया।

एक हजार मुगल सैनिकों को मार डाला, तदुपरांत वो सारी धन राशि लेकर आबू की तलहटी में चुलिया गाँव आया और भामाशाह ने भेरू गुफा में जाकर दोनों राजाओं से निवेदन किया, कि आप नीचे पधार कर धन राशि का निरीक्षण करें, जब दोनों राजा चुलिया गाँव पहुंचे तो उनको चौबीस लाख चांदी के सिक्के और नौ बक्से सोने के आभूषणों से भरे हुए मिले। 23 अगस्त 1579 ईसवी सन् को महाराणा प्रताप ने महाराव सुरत्राण से विदाई ली और मेवाड़ के दक्षिण भाग मंव चावंड को अपनी राजधानी बनाई।

दशहरे के दिन 1581 ईसवी सन् में महाराणा प्रताप एवं मुगल सेना के बीच दिवेर का महान युद्ध हुआ। जिसमें महाराणा प्रताप की तलवार से मुगल सेनापति जलालुदीन का हेलमेट, बक्तर, पूरा शरीर व घोड़े के बक्तर एंव घोड़े के शरीर को काटती हुई तलवार जमीन में धस गयी। मुगल सम्राट अकबर को ये सूचना मिलते ही, उसने डर कर मेवाड़ पर आक्रमण करना बंद कर दिया। ये सोचते हुए कि कभी अपना भी ये हाल हो सकता है। उसके पश्चात कोई भी मुगल आक्रमण मेवाड़ पर नहीं आया एंव चावंड को अपनी राजधानी बनाकर, महाराणा प्रताप सुख और शान्ति से अपना राज करते रहे। 1597 ईसवी सन् के जनवरी महीने में एक विशाल शेर (रूड्डठ्ठ श्वड्डह्लद्गह्म्) रात्रि के समय चावंड शहर में आया। ये सूचना मिलते ही महाराणा प्रताप ने यह निश्चय लिया कि इस शेर को मैं स्वंय कटारी युद्ध कर के मारूँगा। परन्तु मरते-मरते शेर ने एक पंजा मारा, जिससे महाराणा की मृत्यु 19-1-1597 को हो गयी। उस दिन अकबर लाहौर में कैंप कर रहा था। जोधपुर व सिरोही राज्य का राज कवि, दुर्सा आडा भी उसके साथ था। महाराणा प्रताप के मृत्यु की सूचना मिलते ही, राज कवि दुर्सा आडा ने तत्काल कविता रच के सम्राट अकबर को सुनाई -

अश ले गयो, अण दाग पाग, ले गयो अण नामी, मेवाड़ राण जीती गयो

महाराणा प्रताप की अन्त्येष्टि चावंड में हुई, तत्पश्चात महाराणा अमर सिंह गद्दी पर बैठे। महाराणा अमर सिंह शूरवीर थे, परन्तु इनके पिता की तुलना में नहीं आते। अकबर ने अपने विश्वास पात्र सेनापति अब्दुल रहीम खान खानन को विशाल मुगल सेना लेके मेवाड़ भेजा। उस विशाल सेना को देखकर महाराणा अमर सिंह थोड़े से घबरा गये और मुगल सेनापति अब्दुल रहीम खान खानन ने महाराणा अमर सिंह को गुप्त पत्र लिखा।

जिसके शब्द हैं - धर्म रहसी' रहसी धरा, खप जासी खुरासान, अमर विशम्बर उपरां, नैछो राखो राण

जिसका अर्थ होता है ये हिन्दू धर्म भी रहेगा एवं मेवाड़ व भारत की धरती भी रहेगी, और खुरासान से आये हुए मुगल ये देश छोड़कर चले जायेंगे अथवा समाप्त हो जायेंगे। इसलिए हे महाराणा अमर सिंह तू ईश्वर पर भरोसा रख सब कुछ ठीक हो जायेगा। ये तारीफ है अब्दुल रहीम खान खानन की, कि मुगल सम्राज्य का सेनापति होते हुए भी, उसने चाहा कि मेवाड़ और सिरोही दोनों राज्य अमर रहने चाहिए।

(यह आलेख चौहान कुलभूषण पद्मश्री महाराजाधिराज महाराव रघुवीर सिंह जी सिरोही ने लिखा है)

Updated : 12 Jun 2021 11:00 PM GMT
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