नवरात्री नौवां दिवस - सीता : स्त्री शक्ति का साक्षात्कार
महिमा तारे
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सीता यानी स्त्री शक्ति का साक्षात्कार। सीता यानी भारतीय संस्कृति का स्वाभिमान। सीता यानी स्वधर्म। सीता यानी भारतीय नारी की मनोवृत्ति। उनके यह गुण समय-समय पर सम्पूर्ण रामायण में प्रगट होते रहे है। स्वयं रामायण के रचियता महार्षि वाल्मीकि जी इसलिए कहते हैं रामायण में भले ही राम का नाम हो पर रामायण मैने देवी सीता के चरित्र का वर्णन करने के लिए ही लिखी है। वह लिखते हैं सीता त्याग प्रसंग से द्रवित हो कर ही भगवती जानकी के निष्कलंक चरित्र का वर्णन के लिए रामकथा लिखी गई। अयोध्या के कतिपय निवासियों ने जहां सीता के चरित्र को कलंकित ठहराया। वहीं वाल्मीकि ने रामायण लिखकर सीता जी को अयोध्या के मानस मंदिर में पुनस्र्थापित कर अपनी प्रतिज्ञा और सीता को दिया आश्वासन पूर्ण किया।
सीता जैसी नारी सदियों में कभी एक बार जन्म लेती है। असाधारण होकर भी साधारण नारी जैसी रहीं। राजा जनक की पुत्री राजा राम की पत्नी होकर भी उन्होंने अपने लिए संघर्षों का मार्ग चुना और चरित्र शक्ति का ऐसा वृत्त निर्मित करती हैं जिसके केंद्र में वे स्वयं है। सीता भारतीय नारियों के लिए जीवन पद्धति बन गई व सदियों से आदर्श दाम्पत्य जीवन का आदर्श आज भी बनीं हुई हैं। पूरी दुनिया में सीता जैसा चरित्र खोजना मुश्किल ही नहीं असंभव है।
हम सब जानते हैं कि रामायण आज भी उतनी ही प्रासंगिक है आज भी वही समस्याएं है और वही चुनौतियां भी। रामायण को लेकर हमारे देश में सालभर कथाएं होती है। रामलीलाओं में रामयण के पात्रों को पुन: पुन: जीवित किया जाता रहा है। पर सीता के मन को कम ही समझा जाता है। सीता स्वयंवर के समय राजा जनक की पीड़ा को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है पर सीता के मानस का विश्लेषण करना कथा वाचक कहीं कहीं भूल जाते है।
राम को पिता द्वारा वनवास भोगने का आदेश सुन सीता कैसे उद्वेलित हुई होगी? कैसे वन्य जीवन के कष्टों को भोगने के लिए अपनी मन: स्थिति बनाई होगी। सीता के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हें कि उन्होंने हमेशा हिंडोले और पालकी में ही अपने पैरों को रखा था। वह स्त्री किस आत्मिक शक्ति के बल पर राम के साथ वन में जाने का दृढ़ निश्चय करती है। यह भी एक पाथेय है। महाग्रंथों में सीता का चित्रण महाशक्ति, जगतजननी के रूप में करके उनकी मानवीय संवेदनाओं को समझने का प्रयास और होना चाहिए साथ ही उन पीड़ाओं को कैसे स्वीकार किया राम के साथ वनगमन तो ठीक है पर रावण द्वारा हरण कर लेने पर लंका के आतंकी और विपरीत परिस्थतियों के बीच अपने सतीत्व की रक्षा के लिए सीता के पास कौन सी आंतरिक शक्ति थी यह भी आज समझने की आवश्यकता है।
रावण वध के उपरांत पति द्वारा ली जाने वाली अग्निपरीक्षा को सीता ने किस मन: स्थिति से स्वीकारा होगा। यह विचारणीय है यही तक नहीं गर्भवती सीता को राजा राम द्वारा निर्वासित किए जाने पर लक्ष्मण द्वारा वाल्मीकि आश्रम के नजदीक छोड़े जाने पर हम पहली बार सीता को उद्वेलित होते देखते है और यह भी देखते हैं कि वे कुछ क्षणों में ही अपनी पूर्ववत मानसिक अवस्था में आ जाती हैं।
अपने पति द्वारा निर्वासित किए जाने पर भी गर्भवती सीता अयोध्या कुल के वंश को जन्म ही नहीं देती बल्कि राम चरित्र के संस्कार बच्चों में डालती है और अंत में पुत्रों को राम को सौंपकर पृथ्वी में समा जाने का निर्णय लेती है। वह कहती हैं राजा राम ने रानी सीता का त्याग किया है। राम ने सीता का नहीं। वन, लंका, अशोक वाटिका या वाल्मीकि आश्रम में स्वयं की पीड़ा का हरण कर परिस्थितियों को उत्सवमय बना लेना सीता के तपमय आत्मिक शक्ति का ही परिचय मिलता है। लोकमत ने सीता को शास्त्रों से अधिक समझा है।
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