सादर श्रद्धासुमन : शुचिता के एक युग का अवसान
अतुल तारे
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श्री लाल जी टंडन अब स्वर्गीय श्री लाल जी टंडन हैं, यह लिखते हुए एक क पन सा होता है। काल चक्र की अपनी गति है, अमरत्व किसी को नहीं है। पर आज का युग स्खलित होते मूल्यों का युग है। आज का युग कहीं न कहीं भाषा में, व्यवहार में, लोक जीवन में, संवेदनाओं से रीता हो रहा है, इसका अनुभव हम सब करते हैं। ऐसे युग में लालजी टंडन का हम सबके बीच होना एक सुखद आश्वस्ति थी। पर आज वह अब नहीं है तो यह लिखते हुए मन में एक पीड़ा है कि शुचिता के एक युग का अवसान हो गया है।
मेरा आदरणीय बाबूजी (लालजी) से घनिष्ठ परिचय नहीं है, यह लिखते हुए मन में एक डर है, कहीं बाबूजी डांट न दें। पर लोक व्यवहार की बात करें तो मेरी उनसे कुल तीन भेंट हुई हैं, जिनमें से एक मंचीय है। अब इसे आप घनिष्ठ परिचय तो नहीं कह सकते। लेकिन बाबूजी हम सबके बीच उन सौभाग्यशाली व्यक्तित्वों मेें से एक थे, जिन्होंने श्रद्धेय दीनदयालजी उपाध्याय को साक्षात देखा था, जिनका सानिध्य पाया था। दीनदयाल जी का एकात्म मानवदर्शन क्या है? क्यों परमपूजनीय गुरुजी (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक) के विषय में यह संस्मरण हम कार्यकर्ता भाव से बार-बार जब सुनते हैं तो आंखें नम हो जाती हैं कि प्यास गुरुजी को लगी है, पर पास बैठे स्वयंसेवक के पानी पीने से उन्हें तृप्ति हो जाती थी। इसलिए, मैं स्वदेश के एक कार्यकर्ता के नाते उनसे जब-जब मिला, ऐसी अनुभूति हुई कि एक अभिभावक से भेंट हो रही है।
वैचारिक अधिष्ठान को केन्द्र में रखते हुए समाचार पत्र के संचालन की पीड़ा उन्होंने स्वयं पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश के प्रकाशन के प्रारंभिक काल में देखी ही नहीं थी, उसके वह साक्षी भी रहे हैं। यही कारण रहा कि स्वदेश का स्पंदन मैंने हर बार उनके पास बैठकर महसूस किया। एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय के जीवन पर केन्द्रित स्वदेश ने एक ग्रंथ प्रकाशित किया है, भावभूमि। यह ग्रंथ भेंट करने जब हम उनके पास राजभवन गए तो ग्रंथ देखकर वह एक अलग ही भाव विश्व में चले गए। आंखें सजल हो गईं। होंठ कांपने लगे। ''कहां से आएगा, इतना मठा, रहने दो'' यह दीनदयाल जी ने हम जैसे किशोर स्वयंसेवकों से कहा था। वह बताने लगे। दीनदयाल जी तब क्षेत्र प्रचारक थे। पेट की गंभीर बीमारी से त्रस्त। एलोपैथी में इलाज नहीं। आयुर्वेदिक चिकित्सा में बताया गया कि रोज मठा देना है और मात्रा बढ़ती रहेगी। बाबूजी लगभग डबडबाई आंखों के साथ कहने लगे कि दीनदयालजी ने कहा, रहने दो कहां से आएगा, इतना मठा? तब उन्हें हमने बताया कि चिंता न करें, घर में ही गायें हैं।
एक राज्यपाल, अतीत के एक प्रसंग को लेकर इतना भावुक हो सकता है, यह मेरे लिए भी एक भावुक क्षण था। व्यक्तित्व की इसी संवेदना के चलते मध्यप्रदेश का राजभवन हमेशा 24x7 लोकभवन रहा। वे खास से तो मिलते ही थे आम को भी खास होने का एहसास कराते।
वे भाजपा की सरकार रहते राज्यपाल बने और फिर कांग्रेस की सरकार आई। पर राजनीतिक सौहार्द एवं राज्यपाल की गरिमा का उन्होंने हमेशा ध्यान रखा। कमलनाथ सरकार के विश्वास मत के संकट के दौरान तटस्थ राजनीतिक विश्लेषकों ने भी माना कि निष्पक्ष रहे। हां, लेकिन जैसे ही कांग्रेस ने अनावश्यक दबाव बनाया उन्होंने राजभवन की ताकत भी क्या होती है बतला दी। राज्यपाल के नाते उनका दो मिनिट का अभिभाषण आने वाले दशकों के लिए एक मिसाल बनेगा जिसमें संकेत में वह सब कह गए।
वे अवकाश पर लखनऊ गए। वहीं अस्वस्थ हुए और फिर नहीं लौटे। मध्यप्रदेश भी उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। पर यह अब अंतहीन हो गई। काल के क्रूर निर्णय ने उन्हें हमसे छीन लिया। पर वे स्मृतियों में सदैव जीवित रहेंगे। सादर नमन।
Atul Tare
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