झांसी। सावन के झूलों ने मुझकों बुलाया मैं परदेशी घर वापस आया... सनी देओल पर फिल्माई फिल्म निगाहें का यह चर्चित गीत में 'सावनÓ माह की महीमा को खूब दर्शाया गया है। वॉलीबुड में सावन माह पर खूब सारे गीत लिखे गए। सावन का महत्व सिर्फ गीतों में ही नहीं बल्कि असल जीवन में भी उतना महत्वपूर्ण रहा है।
बुन्देलखंडी जीवन शैली वैसे तो प्रकृति से सामंजस्य की अदभुत जीवन शैली है। यहां का हर त्यौहार, प्रकृति और लोक रंजन से जुड़ा है, पर अब शायद बुंदेलखंड की इस जीवन परम्परा को भी आधुनिकता का ग्रहण लग गया है। सावन की कई परम्पराएं जो कभी लोगों के प्रकृति प्रेम और आपसी समन्वय और प्रेम को दर्शाती थी अब सिर्फ किस्से कहानियों तक सिमट कर रह गई हैं। वर्षा ऋतु में जब चारों और हरियाली व्याप्त हो ऐसे में किसका मन प्रफुल्लित ना होगा। ऐसे में बुंदेलखंड के घर-घर में ऊंचे वृक्ष की डाल पर झूले डाले जाते थे। शहर से गायब होने के बाद धीरे-धीरे ये गांव के झूलों तक पहुंच गए, और अब किसी-किसी गांव में ही ये झूले और झूलों पर झूलते देखने को मिलते हैं। सावन का महीना उल्लास और उमंग का महीना बुंदेलखंड में माना जाता था।
गांव-गांव में महिलाएं और बालिकाए गांव में लगे मेहंदी के पेड़ से मेहंदी तोड़ कर लाती थीं, उसे पीस कर आपस में लगाती थीं, लोक मान्यता थी जिस कन्या के हाथ में जितनी गहरी मेहंदी रचेगी उसे उतना ही सुन्दर पति मिलेगा।
पहले गांव-गांव में बाल-गोपाल चकरी, भौरा (लट्टू) चलाते, तो कोई बांसुरी की धुन छेड़ते मिल जाता था। वहीं बालिकाएं लाख के कंगन और चपेटों से खेलते मिल जाती थी। अब मेहंदी के वृक्ष बचे नहीं तो बाजार से अपनी सामर्थ्य अनुसार मेहंदी ले आती हैं, ना ही वो घूमते लट्टू रहे और ना चपेटे के साथ हंसती खिलखिलाती बालिकाएं। बुंदेलखंड के नगरीय इलाकों से तो परम्पराए काफी पहले लुप्त हो गई थी।
परम्पराओं को छोड़ आधुनिकता के पीछे दौड़ रहे लोग
लोक जीवन की इन परम्पराओं की समाप्ति के पीछे का जो मुख्य कारण है वह आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम सब प्रकृति से अलग हो गए हैं। गांव के घरो में लगे पेड़ कट गए , गांव में लगे कुछेक वृक्ष किसी ना किसी की बपौती हो गए, उस पर उनके घर के लोगों के अलावा दूसरा कोई जा नहीं सकता। इस तरह से झूला की परम्परा समाप्त हो गई। लट्टू और चकरी पहले गांव का बढ़ई बना दिया करता था फिर बाजार में मिलने लगे अब वे भी नहीं मिलते। बांसुरी की तान बांस से बनी बांसुरी से ही आ सकती है , उसका स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है। चपेटा जरूर खेला जाता है पर बहुत कम क्योंकि लोगों को अब टीवी और स्मार्ट फोन से ही फुर्सत नहीं मिलती।