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क्या केजरीवाल को रोक पाएगी भाजपा?

भाजपा को दिल्ली में पूर्ण बहुमत का भरोसा

Update: 2020-01-10 16:19 GMT

नई दिल्ली। दिल्ली विधानसभा चुनाव इस बार बेहद दिलचस्प होने जा रहा है। चुनावी बिगुल बज चुका है। प्रमुख पार्टियों के सेनापति अपनी-अपनी सेनाओं के साथ मैदान में उतर चुके हैं। भाजपा चुनाव जीतने के लिए कमर कस चुकी है। वैसे तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सरकार के पांच साल और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज के बीच का चुनाव है लेकिन कांग्रेस पांच राज्यों में कांग्रेस को मिली उम्मीद से अधिक सफलता के बााद उसने भी दिल्ली में अपनी खोई हुई जमीन को पाने की कवायद शुरू कर दी है। भाजपा के पास कोई दमदार चेहरा नहीं होने के कारण उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा आगे कर आम आदमी पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। मोदी का चेहरा सामने आ जाने से देशभर की निगाहें अब दिल्ली चुनाव पर लग गईं हैं।

केजरीवाल भले ही अखिल भारतीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी की तुलना में मतदाताओं को नहीं लुभा सकते लेकिन, दिल्ली में अभी हाल के रूझानों में तो वह बढ़त बनाए हुए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं पिछले दो साल में आम आदमी पार्टी ने उनके नेतृत्व में जितने भी चुनाव लड़े हैं, प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। उनकी पार्टी हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में एक प्रतिशत मत भी हासिल नहीं कर पाई। दिल्ली में भी लोकसभा चुनाव में तीसरे नंबर पर छिटक गई। यहां तक कि मतों के हिसाब से वह कांग्रेस से भी पीछे चली गई। और तो और दिल्ली नगर निगम चुनाव में भी आप पार्टी कहीं की नही रही। लेकिन दिल्ली में विधानसभा चुनाव चुनाव कतई अलग बात है।

मुकाबला मोदी के चेहरे और केजरीवाल के बीच हो जाने से दोनों को लेकर कई तरह की कयासबाजी है। दोनों में अपने-अपने स्तर पर कई असमानताएं भी। प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रीय फलक पर निर्विवाद लोकप्रिय नेता हैं तो दिल्ली में केजरीवाल लोगों से जनसंवाद बनाने की कला में उस्ताद हैं। उनके जैसी कला दिल्ली भाजपा के किसी नेता में नजर नहीं आती। प्रदेश भाजपा एक तरह से नेतृत्व विहीन है। प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी से लेकर केंद्रीय मंत्री डा. हर्षवर्धन, पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल तथा अन्य का केजरीवाल से कोई मुकाबला नहीं। दिल्ली में प्रभावशाली व उच्च वर्ग के लोगों का केजरीवाल और उनकी सरकार से मोह भंग हुआ हो लेकिन, निम्न-मध्यम वर्ग, गरीबों और हाशिए पर रहने वाले लोगों पर केजरीवाल अपनी गहरी छाप छोड़ने में कामयाब जरूर हुए हैं। भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं से उलट केजरीवाल हर समय काम करते रहते हैं। अप्रैल 2017 में दिल्ली नगर निगम का चुनाव हारने के बाद केजरीवाल लगातार दिल्ली के कोने-कोने का दौरा करते रहे हैं। रोजाना छोटी-छोटी रैलियां करते रहे हैं। इस तरह से उन्होंने दिल्ली में फिर से पकड़ बना ली है। इसके इतर, प्रदेश भाजपा पूरे पांच साल मीडिया में ही विरोध करती नजर आई। यही कारण है कि प्रदेश भाजपा की इस मनः स्थिति को भांपकर केंद्रीय नेतृत्व को खुद सड़कों पर संघर्ष के लिए उतरना पड़ा है। वरना, आमतौर राज्यों के चुनाव प्रदेश के नेता ही जितवाते हैं।

बिजली, पानी और महिलाओं की मुफ्त बस सेवा

कांग्रेस के शासन में बिजली व पानी के बिलों से परेशान दिल्ली ने केजरीवाल को विकल्प दिया था, उन्हें साधने के लिए केजरीवाल ने अंतिम समय में चुनावी फायदे को ध्ययान में रखते हुए कदम उठाए। केजरीवाल ने दिल्लीवासियों से बिजली और पानी के बिलों भारी राहत देने की बातें कही थीं। जिन पर वे खरे उतरे हैं। ये बातें उच्च और खास वर्ग के लोगों को भले ही नहीं भा रही हैं, पर निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों व झुग्गीवासियों के बीच केजरीवाल ने खासी पकड़ बनाई है।

गलतियों का अहसास

केजरीवाल ने सत्ता में आकर कई ऐसे काम किए जिनसे वे प्रशासनिक ढ़ांचे में तालमेल नहीं बिठा पाए। वे इस जिद के चलते अलोकप्रिय होने लगे। लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हर मुद्दे पर बात करते नजर आते थे, जिससे एक बड़े वर्ग के बीच यह सोच विकसित हुई कि लोकप्रिय नेता मोदी के खिलाफ केजरीवाल का रवैया ठीक नहीं। इसका एहसास केजरीवाल को हुआ और उन्होंने चुप्पी साध ली। 2020 में उनकी यह चुप्पी 2015 के अराजक केजरीवाल की तुलना में ज्यादा असरदार दिख रही है।  

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