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बड़ी राजनीतिक क्रांति के लिए याद किया जाएगा 2019

राज्य नेतृत्व को आत्मविश्लेषण की जरूरत

Update: 2019-12-28 17:00 GMT

नई दिल्ली। कोई भी राजनीतिक दल जब स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाता है तो उसकी यह बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, खासकर भारत जैसे देश में तो इसे बड़ा चमत्कार माना जाता है। इस लिहाज से साल 2019 भाजपा और उसके सुदृढ़ नेतृत्व नरेंद्र मोदी के लिए शानदार उपलब्धि के तौर पर याद किया जाएगा। लेकिन, हरियाणा और महाराष्ट्र और अब झारखंड के नतीजों को लेकर क्या कहा जाए? क्या यह नहीं कि भाजपा से कहीं न कहीं चुनावी प्रबंधन में रणनीतिक रूप से चूक हुई? क्या भाजपा इन राज्यों में अपने सहयोगियों को साधने में नाकाम रही? या इसके इतर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अति आत्मविश्वास का शिकार हो गया? जो भी हो पर चुनावी राज्यों में जिस तरह के नतीजे आए हैं, वे आत्मचिंतन के पर्याय अवश्य हैं। गुजरता साल भारत की राजनीति में एक नए युग की आहट लेकर आया और जाते-जाते राष्ट्रभक्ति के ऐसे पद चिन्ह छोड़ गया जो मिटाए न मिटेंगे। यही कारण है कि वर्तमान कालखंड में नेता लोग अब राष्ट्रभक्ति की बात करने लगे हैं।

इतिहास बनाने और बदलने में बड़ी क्रांति की जरूरत होती है। वह क्रांति नरेंद्र मोदी ने देश में ला दी है। क्रांति बिना अदम्य इच्छाशक्ति के संभव नहीं। नरेंद्र मोदी ने इसी अदम्य इच्छा शक्ति के दम पर न केवल विरोधियों को सदमे में डाला बल्कि समूचे विश्वभर में अपनी राजनीतिक प्रबंधन क्षमता का लोहा मनवाया। आम तौर पर किसी पार्टी के लिए अपनी जीत को दोहराना बेहद कठिन होता है और उसकी सीटें घट जाती हैं लेकिन, 2019 के चुनाव में 'अबकी बार तीन सौ के पार' का नारा न केवल रंग लाया बल्कि परिणाम भी उसके अनुरूप थे।

2014 में भाजपा के खाते में 282 सीटें थीं तो 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 303 तक जा पहुंचा। वहीं राजगा का आंकड़ा 356 पर पहुंच गया। मजबूत सरकार बनने के बाद भाजपा ने एक-एक करके अपने घोषणा पत्र में किए वायदों को धरातल पर उतारा। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 व 35ए का खात्मा। लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाना, नागरिकता संशोधन कानून प्रमुख हैं। कहना न होगा, नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में देश की जनता के प्रति अपना भरोसा और राजनीतिक दबदबा कायम कर रखा है। लेकिन, राज्यों में यह बात लागू नहीं होती, जहां एक-एक करके भाजपा ने लगातार अपनी जमीन खोई है।

हालांकि यह बात हर राज्य में लागू नहीं होती। भाजपा ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लगातार पद्रह साल शासन किया। वहां पंद्रह साल का लंबा शासन एंटीइनकंबेंसी फेक्टर भी एक बड़ा कारण हो सकता है पर महाराष्ट्र और हरियाणा या झारखंड में तो ये कारण नहीं थे। फिर क्यों इन राज्यों में भाजपा वापसी नहीं कर पाई? इन सरकारों के कई मंत्रियों का हारना क्या आत्मविश्लेषण का विषय नहीं होना चाहिए? ऐसा नहीं है कि भाजपा रणनीतिकारों को इन मंत्रियों के कार्याें की फीडबैक का पता नहीं हो। लेकिन जिस तरह फीडबैक का नजरअंदाज किया गया वही अंत में घातक सिद्ध हुआ। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भाजपा के पतन का कुछ राजनीतिक विश्लेषक अलग कारण मान रहे हैं। इन तीनों राज्यों में भाजपा ने पांच साल पहले परंपरागत तरीके से समीकरण बिठाए, वे सफल नहीं पाए। मसलन, महाराष्ट्र में गैर मराठा नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाना। हरियाणा में गैर जाट नेता मनोहरलाल खट्टर तथा झारखंड में गैर आदिवासी नेता रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाना।

पिछले साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान और इस साल हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों के चुनाव के बाद जो परिणाम आए हैं उससे एक बात तो साफ है कि देश की जनता केंद्र व राज्य में अलग-अलग तरह का जनादेश का पेश कर रही है। केंद्र में राजनीतिक स्थिरता से लेकर सुरक्षा व विकास जैसे मुद्दों को प्रमुखता दे रही है तो वहीं राज्यों के चुनावों में स्थानीय मुद्दों को। इसमें क्षेत्रीय जमावट और स्थानीय नेतृत्व अपना अस्तित्व बनाते नजर आए। तभी बड़ा सवाल है कि क्या केंद्रीय दल राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की वैशाखी के बिना चुनावी वैतरिणी पार कर पाएंगे? महाराष्ट्र में शरद पवार, हरियाणा में दुष्यंत चैटाला तो झारखंड में हेमंत सोरेन इसका ताजा उदाहरण हैं। समय रहते जनता की नब्ज अगर पढ़ी गई होती और आजसू के साथ गठबंधन बरकरार रहता तो क्या भाजपा आज सत्ता में नहीं होती? या फिर रघुवर दास मंत्रिमंडल के अहम मंत्री सरयू राय अंततः भाजपा के विभीषण साबित हुए। आखिर क्यों?

जहां तक महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था। लेकिन, शिवसेना की महत्वाकांक्षा को बल पड़ गए और उसने गठबंधन तोड़कर राकांपा और कांग्रेस के साथ बेमेल गठबंधन कर सरकार बनाई, जिसकी शायद ही किसी ने कल्पना की हो। क्या चुनाव पूर्व इस बात का अंदाजा भी था कि शिवसेना भाजपा का साथ छोड़ जाएगी है? झारखंड में भी आजसू के साथ छोड़ने से भाजपा को भारी नुकसान हो गया। भाजपा को इस साल मिले तगड़े झटकों से एहसास हुआ होगा कि सहयोगियों का क्या महत्व होता है? इससे यह भी माना जा रहा है कि आगे के दौर में भाजपा के सहयोगी कहीं उस पर हावी न हो जाएं। तो क्या गुजरता साल यह संकेत नहीं दे गया कि राजनीति में कोई किसी का विरोधी नहीं होता। राजनीतिक फायदे के लिए कोई, कभी भी किसी से हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करता। भाजपा इस नफा-नुकसान पर जरूर आत्मचिंतन कर रही होगी। अगले साल दिल्ली और बिहार उसके समक्ष बड़ी चुनौती है, अगर अपनी गल्तियों पर वह आत्म विश्लेषण करे तो उसके लिए ये दोनों राज्य जीतना कोई असंभव कार्य नहीं है। क्योंकि आज भी चुनाव प्रबंधन में भाजपा का कोई विकल्प नहीं है।

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