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कांग्रेस कहीं भितरघात का शिकार तो नहीं ?

Update: 2019-05-21 10:19 GMT

नई दिल्ली। एक्जिट पोल के परिणामों ने विपक्षी दलों की धड़कनें बढ़ा दी हैं। कांग्रेस जिस आत्मविश्वास के साथ चुनावी मैदान में उतरी थी, चुनाव खत्म होते-होते उसका आत्मविश्वास चुनाव परिणामों से पहले ही डगमगा गया। उसके जिम्मेदार नेता ही प्रधानमंत्री पद की प्राथमिकता से पीछे हटने को तैयार हो गए। कांग्रेस जिन जीते हुए प्रदेशों में बेहतर कर सकती थी, खासकर मध्ध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसके नतीजे क्यों हिचकोले मारते नजर आ रहे हैं? इन राज्यों में खींचतान की खबरें तो बहुत पहले से ही आ रही थीं। लेकिन, चुनावी चक्लस के चलते उन्हें नजरअंदाज किया जाता रहा। इन तीनों राज्यों की 65 सीटों पर वाकई कांग्रेस लड़ी होती तो भाजपा को सीधे टक्कर देते हुए वह अच्छी सीटें प्राप्त कर सकती थी। एक्जिट पोल में इन तीनों राज्यों से केवल 15-16 सीटें मिलती नजर आ रही हैं। फिर उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों की बात करना कांग्रेस के लिए बेमानी होगी। जहां वह लड़ाई में थी ही नहीं।

हालांकि, मतगणना से पहले एक्जिट पोल पर शत-प्रतिशत यकीन कर लेना उचित नहीं कहा जा सकता पर बावजूद इसके जमीन हकीकत यही है कि इन राज्यों में कांग्रेस विभाजित ही नजर आई। चार महीने पहले ये राज्य एकजुटता का प्रतीक थे। ऐसा क्या हुआ कि लोकसभा तक आते-आते ये बिखर गए। राजस्थान में जमीनी सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट एक तरह से अपनी-अपनी जमीन बनाने के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। सचिन पायलट को लगता है कि गहलोत की अगुआई में चुनावा जीत गए तो श्रेय गहलोत को जाने से वे मजबूत होंगे लिहाजा उन्हें कमजोर करने के लिए उनके कोटे के उम्मीदवारों को चुनाव हरवा दो। कमोवेश यही स्थिति मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बनी रही। जहां मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ और सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया में प्रतिद्वंदिता है तो छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के चलते कद्दावर नेता और राज्य में कैबिनेट मंत्री टीएस सिंहदेव लोकसभा चुनाव में वैसी कसरत करते नजर नहीं आए जैसे वे विधनसभा चुनाव में करते नजर आए थे। राजस्थान में प्रचार अभियान के दौरान सचिन पायलट कई बार आलाकमान के आदेशों का उल्लंघन करते नजर आए। बताया जाता है कि इन अवहेलनाओं के चलते एक बार खुद कांग्रेस अध्यक्ष ने पायलट को हरकतों से बाज आने तक की हिदायत दे दी थी। पार्टी में संगठनात्मक दृष्टि से भी अनगिनत गलतियां आलाकमान से हुई हैं तो टिकट वितरणी प्रणाली पर भी सवालिया निशान लगते रहे हैं। कार्यकर्ता सीधे अपने अध्यक्ष से नहीं मिल पाते। उन्हें या तो बहला-फुसलाकर भगा दिया जाता या फिर गुमराह कर दिया जाता। ऐसे में संगठन में राहुल गांधी के नियंत्रण पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष अमितशाह के आत्म्विश्वास की तुलना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से करें तो अमित शाह लगातार तीन सौ से ज्यादा सीटें जीतने की बात करते रहे हैं तो राहुल गांधी ने कभी भी सीटें जीतने के लक्ष्य की बात नहीं की। अब 23 मई को वास्तविक परिणामों पर निगाह टिक गई है तो मुनासिब होगा कि हम धैर्य के साथ इन नतीजों का इंतजार करें तभी हम और आप कुछ कहने की स्थिति में होंगे।

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