लखनऊ/स्वदेश वेब डेस्क। बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने एक कांग्रेस विरोधी पार्टी के साथ छत्तीसगढ़ चुनाव में समझमहागठबंधन पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। इसका महत्व इसलिए भी है, क्योंकि बसपा ही कांग्रेस के बाद विपक्ष में एक ऐसी पार्टी है, जिसकी पहुंच समूचे देश में है। इसके छह राज्यों की विधानसभाओं में प्रतिनिधि भी हैं। आने वाले सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों में से तीन राज्यों के निचले सदनों में भी इसके प्रतिनिधि है। यही वह पार्टी है जो कि अगर महागठबंधन से अलग हो जाये तो भाजपा का पलड़ा भारी हो जायेगा।
फिलहाल बसपा सुप्रीमो को मनाने का काम जारी है लेकिन अगर वह इसमें विफल होते हैं तो भगवा पार्टी को चुनाव जीतने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी। एनसीपी इसके बाद सबसे बड़ा राष्ट्रीय दल है, जिसके महाराष्ट्र के अलावा अन्य चार राज्यों की विधानसभा में सदस्य हैं। हालांकि वह एक-एक की ही संख्या में है। महागठबंधन में मौजूद बाकी सभी राष्ट्रीय दलों की पहुंच एक या दो राज्यों तक ही सीमित है। तृणमूल कांग्रेस भी एक बड़ी भाजपा विरोधी पार्टी है परन्तु फिलहाल उत्तर-पूर्व भारत में उसकी स्थिति ठीक नहीं है और वह सिमट कर सिर्फ पश्चिम बंगाल तक ही रह गयी है। कांग्रेस को छोड़ विपक्ष की सभी राष्ट्रीय पार्टियां चाहे वह तृणमूल हो एनसीपी, बसपा सीपीएम या सीपीआई, सभी दल एक या दो ही राज्यों में प्रभावशाली हैं।
इनमें से सबसे बड़ी पार्टी बसपा ने आने वाले चुनाव में एक राज्य में कांग्रेस विरोधी पार्टी के साथ व दूसरे राज्य में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। यह फैसला फिलहाल छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के चुनावों के लिए ही है। छत्तीसगढ़ में बसपा ने अजीत जोगी के नेतृत्व वाली जनता कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है। यह वही अजीत जोगी हैं, जो पहले गांधी परिवार के काफी करीबी माने जाते थे। राजस्थान में भी बसपा का कांग्रेस के साथ गठबंधन विफल सा ही लग रहा है, क्योंकि पार्टी ने चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है। कई विपक्षी नेताओं का मानना है कि बसपा एकदम से ही कांग्रेस के खिलाफ नहीं हुई। इसके संकेत उसने बहुत पहले ही दे दिए थे। उसने पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के लिए कांग्रेस के भारत बंद का विरोध भी किया था तथा कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही बढ़ती कीमतों के लिए जिम्मेदार ठहराया था।
नवम्बर व दिसम्बर में होने वाले मतदान के लिए दोनों ही पार्टी के नेता काफी दिनों से गठबंधन पर चर्चा कर रहे थे परन्तु किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाए, क्योंकि बसपा सुप्रीमो ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की मांग कर रही थीं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेता बसपा को सिर्फ 15 से 20 सीट ही लड़ने के लिए दे रहे थे। राजस्थान में यह आंकड़ा और नीचे चला गया। बसपा सुप्रीमो ने काफी कोशिश की कि बीच का रास्ता निकले परन्तु वह इसमें विफल रहीं और उन्होंने छत्तीसगढ़ में जोगी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया। मध्य प्रदेश में भी उन्होंने अकेले ही अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की। बसपी के इस विरोध का कारण सिर्फ इतना ही नहीं है बल्कि इसके पीछे कई अन्य कारण भी हैं। उनमें से एक है नसीमुद्दीन सिद्दीकी का बढ़ता प्रभाव जिन्हें बसपा सुप्रीमो ने भ्रष्टाचार के आरोप में पार्टी से निकाल दिया था। उन्हें हाल ही में उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के साथ मंच साझा करते हुए देखा गया।
मायावती ने सिद्दीकी को इसलिए निकाल दिया था क्योंकि उन्हें लगता था की उत्तर प्रदेश चुनाव में पार्टी की हार का कारण सिद्दीकी ही है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सबसे ज्यादा मुस्लिम उमीदवार मैदान में उतारे थे, जिसे वह ठीक से संभाल नहीं पाए और पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस से बहुजन समाज पार्टी की इस दूरी के और भी कई कारण हो सकते हैं। फिलहाल उसके इस कांग्रेस विरोधी पार्टी के साथ गठबंधन के फैसले से भाजपा को कोई नुक्सान होता नज़र नहीं आ रहा है, जो कि राज्य में 15 साल से सत्ता में है। बसपा ने 2013 विधानसभा चुनाव में एक सीट ही जीती थी और उसके पिछले चुनाव में उसका खाता भी नहीं खुला था। बिलासपुर और रायगढ़ समेत तीन जिलों में दलितों की संख्या अधिक है परन्तु इन ज़िलों में भी ज्यादातर भाजपा समर्थक हैं। वह सरकार द्वारा नक्सलियों के खिलाफ उठाये गए कदम व किसानों के हित की नीतियों से खुश हैं। छत्तीसगढ़ के मुकाबले मध्य प्रदेश में बसपा की स्थिति ठीक है, जहां उसने पिछले वर्ष चार सीटें जीती थीं लेकिन अगर इसकी तुलना 2008 से की जाये तो तब उसने आठ सीटें जीती थीं। जोगी के साथ गठबंधन कर के शायद उसकी स्थिति में कुछ सुधार आये।