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अमितशाह के सामने अहमद पटेल को ढ़ाल बना सकती है कांग्रेस

माहौल बनाने की कवायद ?

Update: 2019-04-04 07:59 GMT

नई दिल्ली। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ मंजे हुए राजनीतिक खिलाड़ी हैं। अगर वे अपने मित्र चतुर दिग्विजय सिंह के लिए यह कहें कि आप कठिन सीट से चुनाव लड़े ंतो निश्चित रूप से इस आशय के गंभीर अर्थ निकलते हैं। कठिन सीट का क्या मतलब? भोपाल से भाजपा लंबे अरसे से जीतती आ रही है। क्या विदिशा भाजपा के लिए अजेय नहीं है? कठिन सीट से मतलब ही मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए चुनावी महौल बनाना है। तभी कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह को आगे करते हुए उन्हें कठिन सीट का आफर दिया है। ताकि उनसे शुरू होकर यह संदेश अन्य प्रदेशों में भी जाए कि कांग्रेस के लिए वापसी का माहौल बने। उसके बड़े नेता कठिन सीटों से ताल ठोक रहे हैं। 2014 में कांग्रेस चुनाव से पहले ही हार मान चुकी थी। लेकिन, इस बार कांग्रेस सारे तुरूप के पत्ते इस्तेमाल करने के मूड में है। ठीक उसी तरह जिस तरह एक सफल कप्तान अपने सामान्य से खिलाड़ी का भी सही तरह इस्तेमाल कर टीम को जिता ले जाता है। याद कीजिए, 2014 में नरेंद्र मोदी की आंधी देख दक्षिण से पी चिदबंरम और उत्तर भारत से मनीष तिवारी ने चुनाव लड़ने से तौबा कर ली थी, तब संदेश यही बना था कि कांग्रेस लड़ाई से बाहर है।

गुजरात में भाजपा अध्यक्ष अमितशाह के गांधी नगर से चुनाव लड़ने और वहां भाजपामय महौल को बनते देख कांग्रेस ने अपने सबसे चतुर सुजान अहमद पटेल पर ध्यान लगाया है। अहमद पटेल ने दो साल पूर्व ही राज्यसभा चुनाव में असंभव को संभव बनाते हुए बाजी अपने नाम की थी। भरूच से अहमद पटेल ने पहला चुनाव 1977 में तब जीता था जब इंदिरा गांधी और संजय गांधी तक चुनाव हार गए थे। आमतौर पर पटेल को लोग नेपथ्य से पार्टी के लिए काम करने वाले नेता के तौर पर जानते हैं। लेकिन, 77 के बाद उन्होंने 1980 और 1984 के चुनाव भी जीते। इस बार पार्टी रणनीतिकार उन्हें भरूच से उतारकर पार्टी के लिए महौल बना देना चाहते हैं ताकि अमितशाह के पसीने छुड़वाए जा सकें। और उन्हें गांधी नगर में घेरा जा सके। हालांकि, घोषणा पत्र जारी होने के दिन उनसे इस तरह का दबाव बनाया जरूर था। तब उन्होंने इस दलील के साथ उक्त प्रस्ताव को खारिज कर दिया था कि उन्हें फील्ड में काम करना है। वे खुद चुनाव न लड़कर, लड़वाएंगे। लेकिन, उनकी दलील पार्टी हित में बेअसर साबित होती जा रही है। माना जा रहा है पार्टी उन पर भरूच से दांव लगा सकती है।

अहमद पटेल की कतार के नेताओं में दिग्विजय सिंह का नाम भी शुमार है जिसने 1977 की कठिन परिस्थितियों में राघौगढ़ से ताल ठोककर दम तोड़ती कांग्रेस का झंडा थामे रखा था। ग्वालियर संभाग से भी कांग्रेस का सफाया हो गया था। उत्तर प्रदेश में कद्दावर नेताओं का चुनाव में उतारा जाना इसी रणनीति का हिस्सा है। इस माहौल को हवा देने में खुद पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी की बड़ी भूमिका है। अयोध्या यात्रा के दौरान भीड़ से उठी आवाज में जब उनसे रायबरेली से चुनाव लड़ने को कहा गया तो उन्होंने कहा कि रायबरेली से ही क्यों ? वाराणसी से न लड़ लूं। तमाम कयासों के बावजूद वाराणसी अभी भी प्रियंका के लिए संभावनाओं के द्वार खोले हुए है ताकि तिलिस्म बरकरार रहे। कभी-कभी भ्रम का जादू विपक्ष के लिए चाबुक की तरह काम कर जाता है। माना जा रहा है कि बसपा प्रमुख मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की पहल हुई तो कांग्रेस वाराणसी से प्रियंका गांधी वाड्रा को चुनाव में उतार सकती है। 

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