फेरीवाले से लेकर भामाशाह तक का किया सफर, सादा जीवन, उच्च विचार पर किया अमल
-निज प्रतिनिघि-
गुना। प्रतिष्ठित व्यवसायी एवं समाजसेवी गट्टूलाल जैन अब हमारे बीच नहीं है। आज से करीब 12 दिन पूर्व उन्होने पुरानी गल्ला मंडी स्थित निवास पर अपने जीवन की अंतिम सांस ली। कल 22 फरवरी को उनकी तेरहवी है, ठीक उससे पहले 94 वर्ष के उनके लंबे जीवन के संघर्षपूर्ण अनछुए पहलुओं को छूना और उन्हे समाज के समक्ष रखना प्रासंगिक होगा, जिससे वर्तमान और आने वाली पीढ़ी उनके जीवन से प्रेरणा ले सके। वास्तव में जो लोग गट्टूलाल जैन के जीवन से परिचित नहीं है, जिन्होने उनके जीवन के संघर्ष को देखा, समझा नहीं है, स्वाभाविक रुप से वह यह मानते होंगे कि उन्हे यह सब विरासत में मिला है, किन्तु ऐसा है नहीं, गट्टूलाल जैन ने अपने जीवन में जो उल्लेखनीय मुकाम हासिल किया है, वह उन्हे सहजता से नहीं मिला है, बल्कि उसके पीछे मेहनत और संघर्ष की लंबी दास्ता छिपी हुई है। एक फेरी वाले से लेकर उन्होने भामाशाह तक का सफर अपनी मेहनत और संघर्ष से ही हासिल किया है। उनके पास कौड़ी को करोड़ों में बदलने का हुनर था, जिसे उन्होने आजमाया भी, और बहुत हद तक सफल भी हुए। कैंची बीड़ी जैसे बड़े संस्थान को उन्होने खड़ा किया तो कई अन्य संस्थान भी स्थापित किए। बावजूद इसके उन्होने अपना पूरा जीवन साधा जीवन उच्च विचार पर अमल करते हुए बिताया, साथ ही मानव मात्र की पीड़ा उनके ह्दय में समाती थी। यहीं कारण है कि जो जरुरतमंद उनके दर पर आया वह निराश होकर नहीं गया। आज जब वह हमारे बीच नहीं है, तब हम सिर्फ इतना कह सकते है कि गट्टूलाल जी आप बहुत याद आएंगे।
1925 में अशोकनगर में जन्में, लड़ी स्वतंत्रता की लड़ाई
गट्टूलाल जैन का जन्म वर्तमान अशोकनगर जिले में 1925 में हुआ था। पिता दयानंद एवं माताजी श्रीमती सुंदरबाई थीं। तीन भाई, तीन बहनों का भरापूरा परिवार था। प्रारंभिक शिक्षा एबीएम स्कूल अशोकनगर में हुई। पांचवी कक्षा तक अध्ययन करने के बाद स्कूल छोड़ दिया। देशभक्ति और राष्ट्र प्रेम की ललक उनमें बचपन से ही देखने को मिली थी। यहीं कारण रहा कि किशोरवस्था तक आते-आते गट्टूलाल जैन आजादी के दीवाने हो चुके थे और स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े थे। तब उन्हे स्वतंत्रता के लिए चलाई जा रहीं गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी दर्ज कराई। स्वाधीनता संग्राम सेनानी जीवनदास खेरा, दुर्गाप्रसाद गुप्ता, मुलतानमल सुराना, ऊधम सिंह, पं. ओमकारलाल शर्मा आदि के साथ उन्होने न सिर्फ स्वाधीनता की लंबी लड़ाई लड़ी, बल्कि 1942 के स्वाधीनता संग्राम में भी हिस्सा लिया। यह वो समय था जब आजादी पाने के लिए एकजुट हो चुका था।
आर्थिक विपन्नता के कारण छोडऩी पड़ी पढ़ाई
गट्टूलाल जी को पढऩे-लिखने का बहुत शौक था। घंटों तक किताबें लेकर बैठे रहा करते थे। बावजूद इसके उन्हे पंाचवी कक्षा तक की अल्प पढ़ाई के बाद किताबों का शौक छोडऩा पड़ गया। कारण था आर्थिक विपन्नता। पढ़ाई छोडक़र गट्टूलाल ने कपड़े के व्यापारी देवीप्रसाद रामनाथ के यहां नौकरी की। वेतन मिलता था मात्र 62 रुपए वार्षिक। भरापूरा परिवार था, इसलिए इतनी कमाई पूरी नहीं पड़ती थी। इसके साथ ही जीवन में कुछ बड़ा करने का सपना भी था, सो अपने इस सपने को पूरा करने और मजबूरी के चलते दुकान की नौकरी छोडक़र स्वयं कपड़े सिलकर बेचना शुरु किया। खुद कपड़े सिलते, उन्हे सलीके के प्रेस करते, फिर गठरी बांधकर उन्हे बेचने के लिए साइकिल पर हाटों, ग्रामों, शहरों में जाने लगे। एक दिन में कई किलोमीटर तक साइकिल चलाते थे। उनका यह काम भी अच्छा चल निकला था। गट्टूलाल फेरी वाले के नाम से वह प्रसिद्ध हो चुके थे।
कलावती से ब्याह होते ही बदल गया जीवन
गट्टूलाल जैन का विवाह 1945 में सेठ हजारी लाल जैन गढ़ा की सुपुत्री कलावती से हुआ। इसके बाद से ही एकदम उनका जीवन बदल गया। कह सकते है कि कलावती से ब्याह गट्टूलाल के जीवन का टर्निग प्वाइंट था। इसके बाद ही उन्होने परिवार के साथ बीड़ी बनाने का कारोबार शुरु किया। यह कारोबार पहले उन्होने अशोकनगर और फिर शिवपुरी में शुरु किया। दिन भर आप स्वयं बीड़ी बनवाते, छांटते और पैकिंग करते। इसके बाद साइकिल उठाकर गांव-गांव जाकर बेचा करते थे। यहीं से आपने कैंची छाप बीड़ी का विधिवत निर्माण शुरु किया। इस ब्रांड नाम की प्रेरणा उन्हे तब के पायल बीड़ी वाले बाबूलाल से मिली, जो गट्टूलाल जी के घनिष्ठ मित्र थे। बता दें कि कैंची बीड़ी को प्रचलन में लाना कठिन कार्य था। कारण पूर्व से ही कई बीड़ी वाले सालों से अपनी बीड़ी बनाकर ग्रामीण सहित पूरे क्षेत्र पर कब्जा जमाए बैठे थे। फिर भी धीरे-धीरे कैंची बीड़ी लोगों के मुँह लगी और दिनों -दिन उसकी मांग बढ़ती चली गई ।
कलावती से ब्याह होते ही बदल गया जीवन
गट्टूलाल जैन का विवाह 1984 में सेठ हजारी लाल जैन गढ़ा की सुपुत्री कलावती से हुआ। इसके बाद से ही एकदम उनका जीवन बदल गया। कह सकते है कि कलावती से ब्याह गट्टूलाल के जीवन का टर्निग प्वाइंट था। इसके बाद ही उन्होने परिवार के साथ बीड़ी बनाने का कारोबार शुरु किया। यह कारोबार पहले उन्होने अशोकनगर और फिर शिवपुरी में शुरु किया। दिन भर आप स्वयं बीड़ी बनवाते, छांटते और पैकिंग करते। इसके बाद साइकिल उठाकर गांव-गांव जाकर बेचा करते थे। यहीं से आपने कैंची छाप बीड़ी का विधिवत निर्माण शुरु किया। इस ब्रांड नाम की प्रेरणा उन्हे तब के पायल बीड़ी वाले बाबूलाल से मिली, जो गट्टूलाल जी के घनिष्ठ मित्र थे। बता दें कि कैंची बीड़ी को प्रचलन में लाना कठिन कार्य था। कारण पूर्व से ही कई बीड़ी वाले सालों से अपनी बीड़ी बनाकर ग्रामीण सहित पूरे क्षेत्र पर कब्जा जमाए बैठे थे। फिर भी धीरे-धीरे कैंची बीड़ी लोगों के मुँह लगी और दिनों -दिन उसकी मांग बढ़ती चली गई ।
सेवा एवं धार्मिक कार्यों की अनवरत चलती श्रंखला
गट्टूलाल जैन के पुत्र संदीप जैन ने बताया कि न्यास द्वारा सेवा एवं धार्मिक कार्यों की अनवरत श्रंखला चल रही है। 1984 में सिद्धचक्र महामण्डल विधान का आयोजन किया गया तो अशोकनगर में सुंदर आश्रम एवं प्याऊ, पिकनिक स्थल का निर्माण अशोकनगर में कराया गया। कैन्ट रोड पर न्यास भवन में ही 1987 को सुंदरबाई दयाचंद जैन एसडी जैन अस्पताल की स्थापना की गई। इसके साथ ही अतिशय क्षेत्र थूबोन जी पर न्यास द्वारा विश्रांति गृह का निर्माण कराया गया, वहीं शिवपुरी में धर्मशाला की स्थापना की गई। सेवा कार्यों को आगे बढ़ाते हुए 1992 में महावीर जिनालय का निर्माण के साथ अतिशय क्षेत्र थूबोन जी में न्यास द्वारा मुख्य द्वार बनवाया गया। इसके साथ ही चिकित्सा शिविरों का सतत आयोजन किया गया। जिनेश मांगलिक भवन में लगे शिविर में तो इंदौर के प्रसिद्ध चिकित्सकों ने अपनी सेवाएं दीं। इसी क्रम में न्यास द्वारा स्थापना से वर्तमान तक अनेकों निर्धन एवं असहाय परिवार के छात्र एवं छात्राओं को समय-समय पर छात्रवृत्ति दी जाती है। साथ ही इलाज के लिए भी सहयोग राशि दी जाती है।
लिखकर व्यक्त करते थे नाराजगी
गट्टूलाल जैन के पुत्र एवं वरिष्ठ कांग्रेस नेता एवं समाजसेवी अनिल जैन ने बताया कि पिताजी हंसमुख भी थे और अंतरमुखी भी। समय के अनुसार व्यवहार करते थे। उनके व्यक्ति की सबसे विशेष बात यह थी कि उन्हे गुस्सा जरुर आता था, किन्तु वह उसे चेहरे पर या शब्दों में जाहिर नहीं करते थे, बल्कि शब्दों में उतारते थे। चाहे व्यक्ति घर का हो या बाहर का, पुत्र हो या पत्नी। सभी से वह नाराजगी पत्र के जरिए व्यक्त करते थे और सुधरने की सलाह भी देते थे।
2011 में मिला गुना रत्न
गट्टूलाल जैन को उनकी उपलब्धियों को लेकर गुना रत्न से सम्मान किया जा चुका है। यह रत्न रोटरी क्लब की ओर से उन्हे 5 दिसंबर 2011 को उन्हे दिया गया था। तब इस उपलब्धि को लेकर काफी चर्चा हुईं थीं।
जैन मातेश्वरी पारमार्थिक न्यास की स्थापना
व्यवसाय में पैर जमाने के बाद गट्टूलाल जैन ने अपना पूरा रुख समाजसेवा की ओर मोड़ दिया। सामाजिक कार्यों में हालांकि वह पहले भी भागीदारी करते रहे थे, किन्तु अब वह पूरी तरह इसके लिए समर्पित हो गए थे। जैन मातेश्वरी पारमार्थिक न्यास की स्थापना उन्होने 1979 में की और सबसे पहले एक मंजिला भवन बनाकर शारदा विद्या निकेतन के नाम से विद्यालय वरिष्ठ अभिभाषक भागचंद सौगानी के माध्यम से शुुरु करवाया। गट्टूलाल मानते थे कि धन की तीन गतियां होती हैं दान, भोग और नाश। उन्होने पहले पर अमल करते हुए खून दान और धर्म किया।
माँ से मिली समर्पण की प्रेरणा
सामाजिक कार्यों में पूर्ण समर्पण की प्रेरणा गट्टूलाल जैन को अपनी माँ से मिली। अनिल जैन ने बताया कि पिताजी जब विदेश यात्राएं कर रहे थे। तब एक दिन उनकी माँ ने कहा कि जितना पैसा तुम इन यात्राओं में खर्च कर रहे हो, उसे समाज को समर्पित करों तो अच्छा होगा। माँ की यह बात गट्टूलाल जैन को छू गई और उन्होने अपना जीवन समाज को समर्पित कर दिया।
श्रेष्ठ दानी की मिली उपाधि
गट्टलाल जैन को श्रेष्ठ दानी एवं सबसे अधिक कर चुकाने वाले व्यवसायी के रुप में भी सम्मानित किया जा चुका है। श्रेष्ठ दानी की उपाधी उन्हे तत्कालीन केन्द्रीय रेल मंत्री माधवराव सिंधिया ने दी तो सबसे अधिक कर चुकाने पर उन्हे भामाशाह पुरस्कार मिला। अनिल जैन के अनुसार इसके साथ ही पिताजी सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में सहयोग करते रहते थे।