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फिल्म जगत और नैतिकता

शिव कुमार शर्मा

Update: 2020-09-06 01:45 GMT

सिनेमा एक प्रकार से समाज में शिक्षा का कांता सम्मत माध्यम माना जाता है। क्योंकि वह बड़े रहस्यों, समस्याओं और सुझावों को मनोरंजन के साथ परदे के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। अनेक फिल्मों के माध्यम से हमने समाज में परिवर्तन होते अनुभव भी किया है और देश और समाज के प्रति युवाओं को जागरुक भी होते देखा है। दुर्भाग्य से फिल्म जगत जिसमें (अभिनय करने वालों से लेकर निर्माता-निर्देशक आदि सभी आते हैं) कालांतर से अपने लक्ष्य से च्युत होता चला गया है। समाज के प्रति सिनेमा के दायित्व पर व्यवसाय हावी हो गया, परिणाम स्वरूप फिल्म जगत अंडरवल्र्र्ड, आतंकवाद आदि के इशारों पर काम करने लगा। हिंदू मान्यताओं और देवी-देवताओं के माध्यम से फूहड़ हास्य उत्पन्न किया जाने लगा और अत्यंत चालाकी से भारतीय संस्कृति की जड़ों पर प्रहार किया जाने लगा है। फिल्म जगत के लिए नैतिकता का अर्थ अब केवल धन अर्जन रह गया है । इस खेल में भाई -भतीजावाद और काम देने के बहाने शोषण का वातावरण भी खूब फल- फूल रहा है। पहले से इस क्षेत्र में जो क्षत्रप बैठे हैं, वह अपने बेटे -बेटियों को ही अवसर देकर उन्हें बड़ा कलाकार सिद्ध कर देते हैं। इसके विपरीत नवागत वास्तविक कलाकार को बड़ी कठिनाई से अवसर मिलता है, जिसके लिए उसे अपना क्या-क्या देना पड़ता है, यह हम सभी जानते हैं।

इतने के बावजूद भी जब अपने अभिनय के बल पर वह कलाकार प्रसिद्धि पाता है तो इस धूर्त वर्ग को रास नहीं आता और जिसकी परिणति सुशांत सिंह राजपूत जैसे कलाकार की हत्या (जिसे आत्महत्या का रंग भी दिया जाता है) के रूप में हमारे सामने आती है।

एक गंभीर प्रश्न इस फिल्म जगत से जुड़े लोगों के चरित्र और नैतिकता पर भी खड़ा होता है। काव्यशास्त्र में उदात्त की अवधारणा के अनुसार नैतिक और चरित्रवान व्यक्ति ही उत्तम साहित्य की रचना कर सकता है, कोई डाकू या लुटेरा दान पुण्य करने के उपदेश से युक्त साहित्य की रचना नहीं कर सकता। इस अर्थ में फिल्म जगत के निर्माता-निर्देशक आदि के संबंध में जब सुनते हैं कि 62 वर्षीय निर्देशक 26 वर्ष की नायिका के साथ डेट पर है ,डेट पर जाना क्या होता है मुझे आज तक समझ नहीं आया! ऐसा लगता है कि आखिरी डेट आने तक यह डेट पर ही जाते रहेंगे।

कुल मिलाकर यह लोग पर्दे पर तो फिर भी किरदार के रूप में समझदारी और ईमानदारी के पुतले से नजर आ भी सकते हैं असल जिंदगी में तो ये घोर निष्ठुर व्यसनी और विलासी होते हैं। तभी तो कभी सोते हुए लोगों पर गाड़ी चढ़ा देते हैं और कभी किसी वेजुबान की हत्या कर देते हैं! अमर्यादित जीवन शैली , पैसों के लिए कैसा भी विज्ञापन कर देना चाहे वह समाज के लिए कितना भी अहितकर क्यों ना हो, इनको कोई फर्क नहीं पड़ता। हिंदी बोल कर कमाते हैं और जब इनसे कोई बात करना चाहता है तब अंग्रेजी में ही करते हैं। मुझे तो यह फिल्मी दुनिया तुलसी की भाषा में 'विष रस भरा कनक घटÓ जैसी प्रतीत होती हैÓ

तथापि अनेक अच्छे लोग भी इसमें हैं जो लगातार देश और समाज की चिंता करते हुए ऐसे विषयों पर फिल्म बना रहे हैं जिससे देश की युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन हो सके ।

आज सरकारों समाज और प्रशासन सभी को सम्मिलित प्रयास करने होंगे। सभी को समाज की चिंता करनी होगी! सरकारों को चाहिए कि वह सेंसर बोर्ड को अधिक मजबूत और सशक्त बनाए और उसमें यह प्रावधान किए जाएं कि जब तक लोक हित, राष्ट्र हित और भारतीय संस्कृति की मर्यादा संबंधित शर्तों का पालन नहीं किया जाता तब तक उसे पास नहीं किया जाएगा, हम सब का यह दायित्व है कि अपनी संस्कृति और मर्यादा के विरुद्ध आने वाली फिल्मों का बहिष्कार करें और समाज में इनके विरुद्ध जनजागृति फैलाएं ताकि देश, समाज और संस्कृति की रक्षा हो सके। प्रशासन को चाहिए कि किसी भी फिल्म को टैक्स फ्री आदि की सुविधा देने से पूर्व उसके संदेश को देखें कि वह लोकहित में है या नहीं।

राष्ट्र और समाज का उत्थान हम सब की नैतिक जिम्मेवारी है, देश हमें देता है सब कुछ हम भी तो कुछ देना सीखें। जय हिंद

(लेखक भारतीय शिक्षण मंडल मध्य भारत के प्रांत मंत्री हैं)

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