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शंकराचार्य जी को थी कटहली चंपा की तलाश

Update: 2018-03-01 00:00 GMT

शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी को मैं लम्बे समय से जानता था। 90 के दशक के शुरुआती सालों की बात है। मैं हरिद्वार में अपने गुरुदेव की समाधि पर आयोजित किसी अनुष्ठान में था। उसी दौरान मुझे जानकारी मिली कि शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी हरिद्वार आये हुए हैं और ललितारौ पुल के पास अपने आश्रम में ठहरे हैं। मैं उनसे मिलने गया।

मुलाकात के वक्त बातचीत के दौरान वे कहने लगे- 'अजीब सी बात है कि पूरे हरिद्वार-कनखल-ऋषिकेश क्षेत्र में कहीं भी कटहली चम्पा (पीले रंग के चम्पा का फूल, जिससे पके कटहल की जैसी सुगंध आती है) मिल ही नहीं रही है। मुझे श्रीयंत्र पर अर्पित करने के लिए कटहली चम्पा चाहिए।' उनकी बात सुनकर मैं मुस्कुराया। मुझे मुस्कुराता देख वे कुछ नाराज से हो गये और पूछा, 'आप हंसे क्यों ?' मैंने कहा, 'मेरे गुरुदेव भी श्री के उपासक थे। हमारे आश्रम आनन्दवन समाधि में कटहली चम्पा का विशाल वृक्ष है, जिसे गुरुजी ने स्वयं लगाया था।' उन्होंने गुरुजी का नाम पूछा। जैसे ही मैंने स्वामी प्रेमानन्द सरस्वती उपाख्य मृत्युंजय महाराज का नाम लिया, वे उठ खड़े हुए और कहा, 'मुझे ले चलिए, वे मेरे गुरुजी (परमाचार्य जगद्गुरु शंकराचार्य चन्द्रशेखरानन्द सरस्वती) के अत्यंत प्रिय थे। मैं उनकी समाधि के दर्शन करूंगा और खुद ही चम्पा के फूल भी ले लूंगा।' 

वे गुरुदेव की समाधि पर आये और लगभग एक घंटे बैठे। आश्रम में लगे चम्पा के विशाल वृक्ष को मुग्ध होकर देर तक देखते रहे। उस वृक्ष की भी पूजा-अर्चना की और फिर बड़े प्यार से कुछ फूल तोड़े और अपने साथ ले गये। वे लगभग दस दिनों तक हरिद्वार में रुके। उस दौरान मैं रोज ही उन्हें उनकी पूजा-अर्चना के लिए चम्पा के फूल भेजता रहा। आज उनके निधन का दुखद समाचार मिला। शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी को मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! 

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