केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने जब कर्नाटक के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर राज्य में होने वाले टीपू जयंती से जुड़े कार्यक्रमों में स्वयं से जोड़ने पर आपत्ति ली और पत्र लिखकर कहा कि मुझे एक बर्बर हत्यारे, सनकी और बलात्कारी को महिमामंडित किए जाने वाले किसी भी शर्मनाक कार्यक्रम में न बुलाएं, तब से एक बार फिर इतिहास जिंदा हो उठा है, सेक्युलरों को लगता है कि कैसे कोई टीपू सुल्तान को हिन्दू विरोधी कह सकता है ? वह तो गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल था और वे इस समय टीपू को अपने तर्कों से यह सिद्ध करने में लग गए हैं कि कर्नाटक सरकार ने जो हर साल 10 नवंबर को टीपू जयंती का आयोजन करने का निर्णय लिया है, उसे सभी को बिना अपने विचार रखे चुपचाप स्वीकार्य कर लेना चाहिए। सोशल मीडिया पर कुछ इस प्रकार की टिप्पणियां भी चल पड़ी हैं ‘‘यदि आप ने स्वतंत्रता संग्राम में ज़रा सी भी भूमिका निभाई होती तो अहसास होता कि टीपू क्या है, आपके पास तो सिर्फ राष्ट्रवाद की बपौती है #शारिकजी# ’’
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया 18 वीं सदी में हुए मैसूर के शासक टीपू सुल्तान को एक महान स्वतंत्रता सेनानी बता रहे हैं। उनकी समुची सरकार इस बात को सही ठहराने में लग गई है कि जो निर्णय टीपू जयंती का सरकार के मुखिया ने लिया है वह एकदम सही है। किंतु इसमें जो महत्वपूर्ण बात है, वह यही है कि इतिहास स्वयं सत्यता को बोलता है, आप उसे कितना भी तोड़े-मरोड़े और बदलने का प्रयास करें लेकिन कुछ ऐसा अवश्य ही पीछे छूट जाता है जो कुछ लोगों के न चाहने के बाद भी वक्त के पहिए के आगे बढ़ने के साथ प्रकाशवान होकर उद्घाटित होता है। वस्तुत: यही आज टीपू के साथ हो रहा है, इतिहास उसके उन तमाम दुष्कर्मों को प्रदर्शित कर रहा है, जिनसे पता चलता है कि यह शासक हिन्दुओं के लिए कितना बर्बर, निष्ठुर और धर्मांध था।
नबाब हैदर अली की मृत्यु के बाद जैसे ही उसका पुत्र टीपू मैसूर की गद्दी पर बैठा तो सबसे पहले उसने मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित किया। सेक्युलरों की नजर में टीपू महान और सर्वपंथ के लिए उदार है तो उसे बहुसंख्यक हिन्दू जनसंख्या वाले तत्कालीन मैसूर को मुस्लिम राज्य में घोषित करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी ? इस पर विचार किया जाए तो स्थिति आगे बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। उसने मुस्लिम सुल्तानों की परम्परा के अनुसार अपने आम दरबार में यह घोषणा की थी कि "मै सभी काफिरों को मुसलमान बनाकर रहूंगा।" उसने मैसूर के गाँव- गाँव के मुस्लिम अधिकारियों के पास लिखित सूचना भेजी थी कि, "सभी हिन्दुओं को इस्लामी दीक्षा दो ! जो स्वेच्छा से मुसलमान न बने उसे बलपूर्वक मुसलमान बनाओ और जो पुरूष विरोध करे, उनका कत्ल करवा दो ! उनकी स्त्रियों को पकड़कर उन्हें दासी बनाकर मुसलमानों में बाँट दो। "
एतिहासिक तथ्य हैं कि टीपू सुल्तान ने अपने राज्य में लगभग 5 लाख हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया । कई हजार की संख्या में कत्ल करवाये। इस संबंध में विलियम किर्कपत्रिक ने 1811 में टीपू सुलतान के पत्रों को प्रकाशित किया था जो उसने विभिन्न व्यक्तियों को अपने राज्यकाल में लिखे। इन पत्रों की भाषा देखकर और समझकर कोई भी सहज यह जान जाएगा कि इस सुल्तान के मन में हिन्दुओं के प्रति कितनी अधिक नफरत थी और वह कितना बड़ा धर्मांध व्यक्ति था।
18 जनवरी 1790 में सैयद अब्दुल दुलाई को टीपू पत्र में लिखता हैं "अल्लाह की रहमत से कालिकट के सभी हिन्दुओं को इस्लाम में शामिल कर लिया गया हैं। कुछ हिन्दू कोचीन भाग गए हैं उन्हें भी धर्मान्तरित कर लिया जायेगा।" उसने 19 जनवरी 1790 में जुमन खान को पत्र में लिखा कि " मैंने मालाबार में 4 लाख से अधिक हिन्दुओं को इस्लाम में शामिल किया हैं, अब मैं त्रावणकोर के राजा पर हमला कर उसे भी इस्लाम में शामिल करूंगा, मैंने रंगपटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।" इसी प्रकार टीपू ने अपने एक सेनानायक अब्दुल कादिर को 22 मार्च 1788 में लिखे एक पत्र में बताया कि 12 हजार से अधिक हिंदू, मुसलमान बना दिए गए, इस उपलब्धि का हिन्दुओं के बीच व्यापक प्रचार किया जाए, ताकि स्थानीय हिन्दुओं में भय व्याप्त हो और उन्हें आसानी से इस्लाम कबूल करवाया जा सके और किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए। उसने 14 दिसम्बर 1788 को अपने सेनानायकों को पत्र लिखा कि "मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन के साथ दो अनुयायी भेज रहा हूँ उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बंदी बना लेना और उनसे इस्लाम कबूल करवाना यदि वे नहीं इस्लाम स्वीकारें तो उनमें से 20 वर्ष से कम आयुवालों को कारागार में रख लेना और शेष सभी 5 हजार को पेड़ से लटकाकर मार देना।" (भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त 1923)। इसीलिए ही विल्ल्यम लोगेन मालाबार मैन्युअल में टीपू द्वारा तोड़े गए हिन्दू मंदिरों का उल्लेख करते हैं, जिनकी संख्या सैकड़ों में है।
टीपू ने अपनी तलवार पर भी खुदवाया था "मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि, मैं संसार से सभी काफिरों (गैर मुसलमान) को समाप्त कर दूँ !" टीपू के शब्दों में "यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए,तब भी मैं हिंदू मंदिरों को नष्ट करने से नहीं छोडूंगा।"(फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल)। टीपू के द्वारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारों को लेकर डॉ.गंगाधरन ने गहन शोध किया है, जिसमें वे ब्रिटिश कमीशन रिपोर्ट के आधार पर तथ्य प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि "ज़मोरियन राजा के परिवार के सदस्यों को और अनेक नायर हिन्दुओं की बलपूर्वक सुन्नत करवाकर मुसलमान बना दिया गया था और गौ मांस खाने के लिए भी विवश किया गया था।" रिपोर्ट बताती है कि टीपू सुल्तान के मालाबार हमलों के कारण 30 हजार हिन्दू नम्बुद्रि अपनी सारी धन-दौलत और घर-द्वार छोड़कर त्रावणकोर राज्य में आकर बसने को मजबूर हुए थे।
इस हमले की भयाभयता के बारे में इलान्कुलम कुंजन पिल्लई ने विस्तार से लिखा है और बताया है कि किस तरह टीपू सुलतान के मालाबार आक्रमण के समय कोझीकोड में 7 हजार ब्राह्मणों के घरों पर अत्याचार किए थे। उनमें से 2 हजार को टीपू ने नष्ट कर दिया, अत्याचार से भयक्रांत हो यहां हिन्दू अपने अपने घरों को छोड़ जंगलों की ओर भागे, टीपू की सेना ने औरतों और बच्चों तक पर किसी प्रकार का तरस नहीं किया। यहां धर्म परिवर्तन के कारण मोपला मुसलमानों की संख्या में अत्यंत वृद्धि हुई और हिन्दू जनसंख्या न्यून हो गई।
टीपू के अत्याचार तत्कालीन कुर्ग राज्य पर भी भयंकर रूप से हुआ, कहा जाता है कि टीपू यहां साक्षात् राक्षस बन कर टूटा था। लगभग 10 हजार हिन्दुओं को इस्लाम में बलात धर्म परिवर्तित कराया गया । कुर्ग के लगभग 1 हजार हिन्दुओं को पकड़ कर श्रीरंग पट्टनम के किले में बंद कर दिया गया। उन लोगों पर इस्लाम कबूल करने के लिए अत्याचार किया जाता रहा, किंतु बाद में अंग्रेजों ने जब टीपू को मार डाला तब जाकर वे कारागार से छुटे।कुर्ग राज परिवार की एक कन्या को टीपू ने बलात मुसलमान बना कर निकाह तक कर लिया था। ( राजा केसरी वार्षिक अंक 1964)। मुस्लिम इतिहासकार पी.एस.सैयद मुहम्मद केरला मुस्लिम चरित्रम में लिखते हैं की," टीपू का केरला पर आक्रमण हमें भारत पर आक्रमण करनेवाले चंगेज़ खान और तैमुर लंग की याद दिलाता हैं।"
यदि कोई कहता है कि मैसूर में तो हिन्दुओं की टीपू के राज्य में बहुत अच्छी स्थिति थी तो यह कहना एकदम झूठ होगा। मैसूर के हिन्दुओं के बारे में ल्युईस रईस ने लिखा है कि "श्रीरंग पट्टनम के किले में केवल दो हिन्दू मंदिरों में हिन्दुओं को दैनिक पूजा करने का अधिकार था बाकी सभी मंदिरों की संपत्ति जब्त कर ली गई थी।" यहाँ तक की राज्य संचालन में हिन्दू और मुसलमानों में भेदभाव किया जाता था। मुसलमानों को कर में विशेष छुट थी और अगर कोई हिन्दू, मुसलमान बन जाता था तो उसे भी छुट दे दी जाती थी। हिन्दुओं को न के बराबर सरकारी नौकरी में रखा जाता था। इतिहासकार एम्.ए.गोपालन के अनुसार अनपढ़ और अशिक्षित मुसलमानों को आवश्यक पदों पर केवल मुसलमान होने के कारण नियुक्त किया गया था। कूल मिलाकर राज्य के प्रतिष्ठित 65 सरकारी पदों में से एक ही पद ‘‘ पूर्णिया पंडित’’ किसी हिन्दू के पास था।
वास्तव में टीपू सुल्तान के राज में इस्लामिक दानवों से बचने का कोई उपाय न देखकर धर्म रक्षा के लिए तत्कालीन समय में हजारों हिंदू स्त्री-पुरुषों ने अपने बच्चों सहित नदियों, कूओं, बाबड़िओं और अग्नि में प्रवेश कर अपनी जान दे दी थी, हिन्दू रहते हुए मृत्यु को गले लगाना ही उन्होंने मुसलमान बनने से अधिक श्रेयस्कर समझा। वस्तुत: इतिहास में सिर्फ इतना ही टीपू के बारे में नहीं मिलता है, इससे कहीं अधिक उसके अत्याचारों का वर्णन है,यहां लिखने की शब्द सीमा है, किंतु टीपू सुल्तान के अत्याचारों का अंत नहीं। इसलिए ही आज यह प्रश्न है कि इतने धर्मांध और अत्याचार करनेवाले सुल्तान का अखिर धर्म निरपेक्ष देश में क्यों महिमामंडन किया जा रहा है?जो लोग यह भ्रम फैलाने का कार्य कर रहे हैं कि वह स्वतंत्रता सेनानी है, उन्हें भी इस तथ्यों से परिचित होना चाहिए।
वस्तुत: टीपू सुल्तान कुल मिलाकर इतिहास का वह सच है, जिसने अंग्रेजों से लड़ाई इसलिए नहीं लड़ी थी कि वह भारत में अंग्रेजों से भारतीय जमीन को मुक्त रखना चाहता था, बल्कि उसने अंग्रेजों से लड़ाई सिर्फ इसलिए लड़ी जिससे कि उसका राज्य और उसका ताज सुरक्षित रह सके और वह अपने इस्लामिक राज्य के झंडे को कभी झुकते हुए न देखे। देखाजाए तो वह बहुसंख्यक हिन्दू जनसंख्यावाली भारत भूमि का एक धर्मांध मुस्लिम शासक था। जिन सेक्युलरों द्वारा कुछ उदाहरण उसके धर्म निरपेक्ष होने के लिए भी जाते हैं, उनसे आज उन उदाहरणों के बारे में विस्तार से तर्कों के साथ तथ्य सहित बात रखने को कहना चाहिए, सत्य स्वत: ही प्रकाशवान हो उठेगा । अंतत: सत्य यही है कि टीपू सिर्फ हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वयं कहा था-उसके जीवन का उद्देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना है। वास्तव में टीवी की मदद से "स्वोर्ड ऑफ़ टीपू सुलतान" नाम के कार्यक्रम से भले ही उसे हर महान स्वतंत्रता सेनानी के समकक्ष रखने का प्रयास हुआ हो, किंतु इतिहास तो इतिहास है, वह बदलता नहीं, हमेशा सच बोलता है, टीपू के मामले में भी यही है।