क्या साइकिल पर सवारी करेगी राहुल की टूटी खाट!

Update: 2016-09-13 00:00 GMT

*अभिषेक शर्मा

 

संदर्भ-उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव


कांग्रेस के शहजादे यानि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी फिर एक बार अपने राजनीतिक जीवन की सबसे कठिन परीक्षा दे रहे है। या यूँ कहें कि उन्हे इस परीक्षा में जबरन झोंका गया है तो ज्यादा ठीक होगा। अपने 25-30 साला राजनीतिक जीवन में पप्पू साबित हो चुके अपने इस शहजादे से इस बीच कांग्रेसियों की किसी तरह के चमत्कार की उम्मीद पूरी नहीं हो पाई है। इससे पार्टी में जहां असंतोष बढ़ा है, वहीं राहुल भैया के नेतृत्व को नकारा जा चुका है, सिर्फ इतना ही नहीं, जिन लोगों के माथे से गांधी परिवार की चौखट घिस गई है, वह लोग भी गांधी परिवार के इस चश्मो-चिराग की राजनीतिक योग्यता पर सवाल खड़े कर चुके है, बावजूद इसके कांग्रेस नेतृत्व द्वारा राहुल गांधी के नाजुक कंधों पर देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 27 साला वनवास को खत्म करने की चुनौती लाद दी गई है। खुुद राहुल भी बेमन से ही सही, किन्तु इस चुनौती के भारी बोझ को लादकर सुपरमैन की तरह चुनावी समर में कूद पड़े है। इसी तारतम्य में राहुल भैया इन दिनों उत्तर प्रदेश के देवरिया से देश की राजधानी दिल्ली तक किसान महायात्रा बनाम चुनावी यात्रा करने में लगे हुए है। उत्तर प्रदेश की 2500 किलोमीटर की जमीन नापकर इस यात्रा के जरिए राहुल भैया को इस बीच जहां मतदाताओं की राजनीतिक नब्ज टटोलनी है, वहीं वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की जमीन भी तैयार करना है,जो वह करने की कोशिश भी रहे है। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अच्छे दिन लाने के लिए राहुल भैया कांग्रेस के व्यवसायिक सलाहकार प्रशांत कुमार की सलाह पर मंच पर कैटवॉक करते उद्बोधन और खाट पंचायत जैसे अनूठे प्रयोग करने से भी नहीं चूंक रहे है, यह बात अलग है कि इन दोनों प्रयोगों की शुरुआत कांग्रेस के लिए उल्टी पड़ गई है। कैटवॉक सभा को मॉडल प्रदर्शन से जोड़ा गया तो खाट पंचायत में खटिया लूट कांड से कांग्रेस उपाध्यक्ष की ही खटिया खड़ी हो गई। वैसे राहुल भैया के सामने चुनौती सिर्फ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सत्तासीन वापसी ही नहीं है, बल्कि इससे भी ज्यादा गंभीर चुनौती भाजपा के मुकाबले कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन करना भी है। जिससे देश में भाजपा सरकार द्वारा लाए गए अच्छे दिनों के आवरण को झुठलाया जाकर दीगर राज्यों में आगामी समय में होने वाला विधानसभा चुनावों सहित वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे भाजपा के खिलाफ हथियार के रुप में इस्तेमाल किया जा सके। इसके लिए राहुल भैया यात्रा के दौरान तमाम राजनीतिक संभावनाओं (गठबंधन) के साथ अभी तक अपनी राजनीतिक योग्यता को लेकर तय हुईं सभी आशंकाओं को निर्मूल साबित करने की कोशिशों में लगे हुए है।

यहीं कारण है कि किसान महायात्रा के दौरान राहुल भैया अब तक अपने भाषणों में प्रमुख रुप से सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार पर निशाना साध रहे है, साईकल वाली समाजवादी पार्टी और हाथी वाली बहुजन समाज पार्टी के लिए भी राहुल अपना मुँह तो खोलते है, किन्तु शब्दों के प्रहार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार के मुकाबले कम धारदार रहते है। गोया उत्तर प्रदेश में सत्तासीन सपा और प्रमुख विपक्षी दल बसपा न होकर भाजपा हो। राहुल सीधे-सीधे भलें ही सपा-बसपा पर राजनीतिक डोरे नहीं डाल रहे हो, किन्तु अपने भाषणों और आचरण से राजनीतिक संकेत बहुत कुछ दे रहे है, जिन्हे समझा है मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने और इससे पहले की राहुल के संकेत बसपा की बहनजी समझकर उन्हे लपकती, अखिलेश ने इसे कैच कर लिया। हाल ही में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा राहुल गंाधी को अच्छा लड़का बताने और उनसे दोस्ती की संभावनाएं जाहिर करना इसी तथ्य को प्रमाणित करता है। हालांकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी बात में इतना और जोड़कर कि उनके कहने के राजनीतिक और चुनावी निहितार्थ नहीं निकाले जाए वक्तव्य को सहज रखने की असफल कोशिश की, किन्तु बात निकली है तो दूर तक जाएगी, जो जा भी रही है। खैर, बहरहाल चुनावी दोस्ती दोनों दलों की उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतिक जरुरत भी है। बात 27 साल से उत्तर प्रदेश में अछूत बनी हुई कांग्रेस की करें तो जबकि देश के 85 फीसदी क्षेत्र से उसका सफाया हो चुका है,पार्टी यहां भी इन हालातों में सिर्फ अपनी दम पर कुछ बेहतर करने की स्थिति में नहीं है, दूसरी ओर समाजवादी पार्टी भी सत्ता विरोधी लहर के साथ अंदरुनी संकट से इन दिनों बुरी तरह जूझ रही है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल के बीच झगड़े को लेकर सपा सुप्रिमो मुलायम सिंह यादव सपा के विभाजन तक की आशंका जता चुके है, जाहिर रुप से इन हालातों में दोनों दलों को किसी न किसी राजनीतिक सहारे की आवश्यकता है। जिसकी पहल दोनों ही दलों ने करनी शुुरु कर दी है। बड़ा सवाल यह कि क्या खुद सपाई और कांग्रेसी इसके लिए तैयार होंगे? क्या सपाई अपनी साईकल पर राहुल की टूटी खाट की सवारी सहन कर पाएंगे? या फिर कांग्रेसी अपने हाथ को अखिलेश की साईकल के हैंडल पर जमा देख पाएंगे? जबकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव को हराने वाले राजबब्बर है तो सपा की बागडोर अभी भी पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के हाथों में है, जिन्होने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान गठित जनता परिवार से यह कहकर दूरी बना ली थी कि उसमें कांग्रेस भी शामिल है। क्या दोनों दलों में इससे जबर्रदस्त असंतोष नहीं बढ़ेगा? फिर भी राजनीति में सब कुछ संभव है, यहां न दोस्ती स्थाई होती है और न दुश्मनी इस एक बात को सही मानते हुए अगर यह पहल रंग लाती है तो भाजपा के लिए यह चिंता बढ़ाने वाली बात होगी। कारण भाजपा सूत्र बताते है कि ऐसी राजनीतिक संभावनाएं पार्टी खुद भी तलाश रही है, जिसकी दिशा सपा-कंाग्रेस गठजोड़ के बाद उसे बदलनी पड़ेगी। दूसरी ओर बसपा की बहनजी इस संभावित गठबंधन से तिलमिला गईं है। हाल ही में उनकी तरफ से आया बयान कि सपा-कांग्रेस, भाजपा मिलकर प्रदेश को लूट रहे है, उनकी इसी तिलमिलाहट को बयां करता है। खैर, बहरहाल फिलहाल यह सब राजनीतिक अटकलें हंै, किन्तु चुनावी मौसम में ऐसी अटकलों का लगना स्वाभाविक भी है और उनका अपना एक महत्व भी होता है। इसलिए अटकलें लगती रहनी चाहिए।

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