अपरम्पार है मन की क्षमता
हृदयनारायण दीक्षित
सत्य निरपेक्ष है। एक है लेकिन विद्वान उसे अनेक तरह से बताते हैं - एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। मन प्रश्नाकुल है कि विद्वान उसे भिन्न-भिन्न क्यों बताते हैं? क्या केवल भाषा के कारण? ऐसा है नहीं। ऋग्वैदिक समाज की भाषा एक ही है। ऋग्वेद में सत्य को एक बताने वाले मंत्र में ही इन्द्र, अग्नि आदि नाम आए हैं। असल में यह संसार हमारे लिए वैसा है नहीं जैसा वस्तुत: है। बात अटपटी है। लेकिन सही है। वस्तुत: सबका संसार भिन्न-भिन्न है। हमारा संसार हमारी समझ का परिणाम है और सबकी समझ भिन्न है। इसलिए सबके संसार भी भिन्न-भिन्न हैं। हम अपने इन्द्रियबोध के माध्यम से ही संसार को देखते, सुनते, जानते और समझते हैं। शंकराचार्य को जगत् मिथ्या दिखाई पड़ता है और कबीर को माया। भौतिकविदें को संसार प्रत्यक्ष भौतिक इकाई दिखाई पड़ता है। हम सबका संसार भी अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार अपना-अपना है। प्रेमी के लिए संसार प्रेममय है, संघर्ष में विश्वास करने वाले के लिए संसार युद्ध क्षेत्र है। कर्म विश्वासी के लिए कर्मक्षेत्र और धर्म विश्वासी के लिए धर्म क्षेत्र। सारे निष्कर्ष निजी हैं। वस्तुत: से भिन्न हैं, यथार्थ से दूर हैं। वास्तविकता के भी विपरीत हैं।
हम परिस्थिति पीडि़त हैं तो संसार हिंसक दिखाई पड़ता है। काट खाने दौड़ता है। हम प्रशान्त हैं तो संसार सुन्दर दिखाई पड़ता है। आधुनिक दर्शनशास्त्रियों में इमैनुअल कांट की प्रतिष्ठा है। कांट ने सौन्दर्य की मीमांसा की। सौन्दर्य किसी वस्तु के प्रयोजन का वह रूप है, जो उस वस्तु में किसी अन्य प्रयोजन का समावेश किए बिना देखा जा सकता है। लिखा है कुछ वस्तुए ऐसी होती हैं जो किसी प्रयोजन के लिए होती है किन्तु स्वयं अपने में कोई प्रयोजन नहीं रखती। उदाहरण के लिए लकड़ी का एक उपकरण जिसमें पकडऩे के लिए हैन्डिल है। बीच में छेद है, सुन्दर नहीं कहा जा सकता। यद्यपि यह कलाकृति है। इससे एक प्रयोजन सिद्ध होता है किन्तु उसके चिन्तन से कोई आह्लाद नहीं पैदा होता। इसके विपरीत पुष्पगुच्छ को देखकर प्रसन्नता होती है। उसे सुंदर कहते हैं क्योंकि उसके प्रत्यक्ष में ही एक प्रयोजन दृष्टिगोचर होता है जो किसी अन्य प्रयोजन का निर्देश नहीं करता। कांट ने 'प्रयोजनहीन प्रयोजनताÓ का सुन्दर निष्कर्ष निकाला है। हमारे देखने की सीमा है। अति सूक्ष्म नहीं दिखाई पड़ता। विराट भी नहीं। हमारा संसार हमारे इन्द्रियबोध का ही परिणाम है।
हम सुख आनंद चाहते हैं। हम सबके भीतर आनंद का स्रोत होना भी चाहिए। मन के आसपास ही कहीं। हमारे मनोजगत में ही। जरूर कहीं मधुवन भी होगा। मन के पड़ोस में बुद्धि है। बुद्धि और मन अनुभूति की युति संसार का ज्ञान है। मन मधुवन के वृक्ष, वनस्पति सतत् आह्लाद देते हैं। मन खिन्न हो तो यही दुखी भी करते हैं। वैदिक समाज में मुख्यतया पांच जन थे। इन्हें पंचजना:, पंचकृष्टया: और पांचजन्य कहा गया है। मन उपवन भी पांचजन्य है। मन की अनुयायी पांच इन्द्रियां हैं। मन उपवन की पांच इन्द्रियां मुख्यतया पांच वृक्ष हैं। बुद्धि इन्द्रियबोध का ही परिणाम है। लेकिन बुद्धि भी अपनी युक्ति लागू कराने के लिए मन पर ही निर्भर है। सामान्य बुद्धिमान भी शराब, तम्बाकू के परिणाम जानता है। लेकिन मन इस निष्कर्ष को न लागू करे तो बुद्धि क्या कर लेगी? बुद्धि और मन की एकता जरूरी है। ब्रह्माण्ड नियमबद्ध है। उसका कार्यव्यापार 'इंटेलीजेन्ट डिजाइन' जान पड़ता है। वन उपवन नि:संदेह संसार का भाग है लेकिन वास्तविक वन उपवन भी हमारे मन के खेल में अपना रूप बदल डालते हैं। कालिदास की अल्कापुरी क्या वैसी ही नगरी हो सकती है? कालिदास ने महाकाल की अर्चना को पुनर्जीवन और नया सृजन दिया है। गीताकार ने बसंत को कुसुमाकर कहा है। कालिदास का बसंत विरल है। उनका बसंत वास्तविक बसंत से ज्यादा सगंधा और मधुवाता है। पुरूरवा और उर्वसी ऋग्वेद का आख्यान है लेकिन अनेक कवियों ने उसे भिन्न-भिन्न तरह से अनुभव किया। मन बड़ा सर्जक है। यह अनन्त सृष्टि गढ़ता है। बाहर के वन उपवन की तुलना मन के वन उपवन के निकट जान पड़ती है। मैं सर्जक नहीं, कवि नहीं। क्या करूं? अपने देखे मन उपवन की वास्तविकता प्राप्ति के लिए व्याकुल चित्त हूं। सोचता हूं। सोचने और देखने को एक रस करता हूं।
मन की अपनी लीला है और अपना सृजन। हम सब इसी संसार के निवासी हैं। नहीं जानते कि इस लोक के अलावा और लोक भी होते हैं या नहीं? सुनते आए हैं कि इस लोक के अलावा परलोक भी होता है। तीन लोकों की चर्चा भी सुनी है। ईश्वर को तीनों लोकों का स्वामी - त्रिलोकीनाथ भी कहा जाता है। इसी लोक को एक मात्र सत्य मानने वाले लोकायतवादी कहे जाते थे। आधुनिक पीढ़ी कमोवेश लोकायतवादी ही है। संसार प्रत्यक्ष है। भरापूरा लोक। यह लोक दिखाई पड़ता है। लेकिन जान पड़ता है कि यह लोक हमारे द्वारा रचा गया ही एक संसार है। हमारा ही रचा, गढ़ा, बनाया या बिगाड़ा हुआ। हमारा मन ही इस लोक का सर्जक है। इसे क्या नाम दें? इसे मनगढ़ंत लोक कहने में कोई अड़चन नहीं। इसे कोई भी नाम दें लेकिन यह एक और लोक तो है ही। मन अपने मन के अनुसार इस लोक को गढ़ता है और मिटाता भी है। जैसे धरती के वन उपवन प्रीतिकर या अप्रीतिकर हैं। वैसे ही हमारे भीतर भी ऐसे ही मन मधुवन हैं।
मन और बुद्धि अलग-अलग जाने गये हैं। बुद्धि नियंत्रित मन खूबसूरत ऊर्जा है। बुद्धि स्टीयरिंग है, मन इंजन। स्टीयरिंग न हो तो दुर्घटना की गारंटी पक्की। इंजन ही गड़बड़ हो तो अच्छा स्टीयरिंग बेकार। दोनों की युति जरूरी है। मन और बुद्धि का अलगाव पूर्वजों ने ध्यान से देखा था। आधुनिक समाज इस अलगाव पर प्राय: ध्यान नहीं देता। हम मन के निर्देशानुसार गति करते हैं। हमारा व्यक्तित्व स्वतंत्र नहीं है। मन हमारा स्वामी है, हम उसके विवश दास। हम इलेक्ट्रानिक यंत्र जैसे हैं। रिमोट दूसरे के पास है। एक ने कहा कि आप अच्छा लिखते हैं, हम गदगद। अगले ने कहा कि दीक्षित जी झूठ बोलते हैं। हम उबल गये। हमारी प्रसन्नता हमारी अपनी नहीं है। हमारा गुस्सा भी अपना नहीं। हम गुस्सा जैसे स्वाभाविक मनोविकार के लिए भी दूसरे पर निर्भर हैं। हम स्वयं योजना बनाकर कभी गुस्सा लाने का उत्सव भी मना सकते हैं। मैं ऐसा नहीं कर पाया लेकिन दूसरे के सहयोग के बिना ही गुस्सा आता देखने का अवसर मुझे अक्सर मिलता है। यह मजेदार है और आश्चर्यजनक भी लेकिन हम आश्चर्य के लिए भी दूसरे पर निर्भर हैं।
मन की क्षमता अपरम्पार है। भारतीय चिन्तन में मन पर बड़ा मन लगाया गया है। यही मनन है। चिन्तन के साथ मनन भी जरूरी है। चिन्तन बुद्धिगत है और मनन मन का कार्यव्यापार। उपनिषदों में मन की कार्रवाई पर अतिरिक्त ध्यान दिया गया है। कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को बताया, नचिकेता! तुम आत्मा को रथ का स्वामी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो। अविज्ञानी मन रथ को अपने अनुसार चलाता है लेकिन विज्ञानवान मन से इन्द्रियां वश में रहती हैं - विज्ञानवान भवित मनसा: तस्येन्द्रियाणि वश्यानि। केनोपनिषद् का पहला प्रश्न मन से जुड़ा हुआ है, केनेषितं पतति प्रेषितं मन: - यह मन किसकी प्रेरणा से अपने विषयों में गिरता है? उत्तर है जो मन का मन है उसकी प्रेरणा से। यहां एक और मन है - मनसो मनो। वही मन इस मन को पे्ररित करता है। मन बेबूझ पहेली है। अपने मन को ही ध्यान से देखना समझना कठिन कार्य है। गहन मनन के अभाव में अपने मन की गति समझ में नहीं आती। मन विषयी है। इन्द्रियबोध उसका ही काम है। वही इन्द्रियों को काम देता है।
इन्द्रियबोध से प्राप्त ज्ञान की कार्रवाई में मन मध्यस्थ है। लेकिन मन गतिशील है। गतिशील मध्यस्थ की अपनी चंचल वृत्ति भी है। सुनते हैं कि बसंत में कामदेव अग्निवाण चलाते हैं। यह कवि मन का इन्द्रियबोध है। ऋग्वेद के ऋषि के भावबोध में वर्षा के बादल का मुख पत्थर जैसा है। बादल के भीतर मधुरस है। ऋषि कहते हैं कि बृहस्पति ने मधुरस से भरे बादल के मुख को तोड़ा। मधुवर्षा हुई। वस्तुत: ऋषि का मन ही मधुमय है। मन कामना ही बीज है और बाकी सब उसी का विस्तार। प्रयोजनहीन प्रयोजन।